जौहर, सती कुप्रथा का ही बहुवचन है

काल्पनिक फिल्म पद्मावत में सती -जौहर का महिमामंडन वास्तविक अपराध है

Update: 2018-02-13 13:57 GMT

बहुतों ने पद्मावत फिल्म देखी है और बहुतों ने नहीं देखी है और शायद आगे भी नहीं देखेंगे। एक फिल्म- पत्रकार , ने अजय ब्रम्हात्मज ने फिल्म रिलीज होने की पूर्व संध्या पर पुणे में प्रेस शो में इसे देख सार्वजनिक रूप से खुलासा किया कि इसमें " जौहर " को महिमामंडित किया गया है . उन्होंने खबर दी की फिल्म के अंत में नेपथ्य से महिला स्वर में फिल्म की मुख्य किरदार पद्मावती के जौहर की प्रशस्ति की गई है। नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय ( जेएनयू ) से हिन्दी की स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त कर चुके श्री ब्रम्हात्मज ने हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार-इतिहासकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल ( 1884 -1941 ) के एक आलेख के हवाले से इस बात को भी रेखांकित किया कि भारत के सूफी कवि मलिक मोहम्मद जायसी (1477 -1542 ) की अवधी में लिखी बहुचर्चित किन्तु काल्पनिक काव्य कृति , पद्मावत में कहीं भी सती प्रथा को महिमामंडित नहीं किया गया है

संदर्भित फिल्म का नाम पहले पद्मावती था जिसे बाद में पद्मावत नाम से रिलीज किया गया . फिल्म का निर्माण मुकेश अम्बानी की एक कंपनी ने किया है .इसके निर्देशक संजय लीला भंसाली हैं जो 1988 में अग्रणी फिल्मकार श्याम बेनेगल के निर्देशन में बनी और सरकारी टेलीविजन चैनल , दूरदर्शन पर प्रसारित हिंदी धारावाहिक , भारत एक खोज , के कुल 53 में से पद्मावत काव्य रचना पर आधारित एपिसोड के कला निदेशक थे . यह धारावाहिक , पांच हज़ार वर्ष पूर्व से लेकर 1947 तक के भारतीय इतिहास पर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की ब्रिटिश राज में अहमदनगर की जेल में अप्रैल -सितम्बर 1944 में सरल अंग्रेजी में लिखित ग्रन्थ , डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया , पर आधारित था था।

जौहर , सती कुप्रथा का ही बहुवचन है जो राजा राममोहन राय की पहल पर 1829 में बंगाल सती नियमन अधिनियम के तहत प्रतिबंधित है . कालांतर में इस अधिनियम को और कड़ा कर सती के महिमामंडन को भी आपराधिक कृत्य माना गया है . वर्ष 1987 में राजस्थान सरकार ने सती निरोधक अधिनियम बनाया जो भारत के संसद के पारित सती कृत्य ( निरोधक ) अधिनियम , 1987 की बदौलत राष्ट्रीय कानून में परिणत हो गया। इस कानून के तहत किसी विधवा के स्वैछिक रूप से अथवा उसे बलपूर्वक ज़िंदा जला या दफना देने का कृत्य ही नहीं बल्कि इस कुकृत्य का किसी भी तरह का समारोह मनाकर , या जुलूस में भागीदारी कर , कोई ट्रस्ट बना कर या मंदिर का निर्माण कर या सती (जौहर ) करने वाली विधवा / विधवाओं की स्मृति को सम्मानित करने और महिमामंडित करना प्रतिबंधित है। इस राष्ट्रीय क़ानून का प्रारूप , केंद्र सरकार के महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय ने तैयार किया था। सती कुप्रथा को रोकने और इस जधन्य अपराध के महिमामंडन पर कड़ा अंकुश लगाने के उपायों को और भी कारगर ढंग से लागू करने के लिए 1987 के इस राष्ट्रीय अधिनियम के तहत कुछेक रूल भी बनाए गए।

इस कानून के भाग 1 ( 2 ) में निहित परिभाषाओं से स्पष्ट है कि पद्मावत फिल्म में सती (जौहर ) कुकृत्य का किया गया महिमामंडन आपराधिक दंड प्रक्रिया की धाराओं के अनुसार दंडनीय अपराध है।

ऐसे अपराध के लिए उपरोक्त राष्ट्रीय क़ानून के भाग -2 की विभिन धाराओं के अनुसार न्यूनतम दंड , एक वर्ष का कारावास और कम से कम पांच हज़ार रूपये का जुर्माना भी है। अधिनियम के भाग -3 में इस अपराध को रोकने और अपराध हो जाने की स्थिति में समुचित कदम उठाने के लिए सम्बंधित जिला अधिकारियों को प्राधिकृत करने के अलावा भाग -4 में विशेष अदालत के गठन का प्रावधान है। भाग -5 में विविध प्रावधान भी हैं जिनके तहत ऐसे अपराध के लिए विशेष अदालत द्वारा दोषी पाए गए व्यक्ति , भारत के जन - प्रतिनिधित्व अधिनयम की धाराओं के अनुसार पांच वर्ष तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य रहेंगे।

गौरतलब है कि 1987 में रूप कँवर -दिवराला सती कांड का अपने पत्रकारीय लेखन से महिमामंडन करने के कारण हिंदी दैनिक , जनसत्ता के तत्कालीन प्रधान संपादक प्रभाष जोशी ( अब दिवंगत ) का देश के नागरिक समाज ने पुरजोर विरोध किया था .इस विरोध के तहत उक्त दैनिक अखबार का पाठकों द्वारा बहिष्कार करने का अभियान भी चलाया गया था . संभवतः उसी अभियान का परिणाम था कि 1987 में राजस्थान में हरिदेव जोशी के मुख्य मंत्रित्व काल में नया कानून बना और 1988 में केन्द्र में राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में राष्ट्रीय अधिनयम बना। उस अधिनयम के लागू होने के बाद से देश में किसी सतीकाण्ड की खबर नहीं है लेकिन उसके महिमामंडन की पूर्ण रोकथाम नहीं की जा सकी है जिसका एक ज्वलंत उदाहरण संजय लीला की यह कमर्सियल फिल्म है। स्पष्ट है कि यह फिल्म सिनेमाकला के लिए नहीं धन कमाने के इरादे से बनाई और प्रदर्शित की गई। इस फिल्म ने भारत के एक राष्ट्रीय क़ानून को धता बता दिया और हमारी सरकार तमाशा देखती रही , विधि निर्माता और विधिवेत्ता लगभग चुप रहे.

फिल्म का शुरुआत में जिन लोगों ने विरोध किया उनपर आरोप है कि वे साफ तौर पर सत्तापोषित , सामन्ती , महिला -विरोधी और साप्रदायिक हैं .फिल्म प्रदर्शन को हरी झंडी दिखाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के कारण भी कानून के राज से इतर लगते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने फिल्म पर रोक से जुड़ी सारी याचिकाएं खारिज कर कहा कि कुछ संगठनों की धमकी के मद्देनजर फिल्म पर रोक नहीं लगाई जाएगी। याचिका दाखिल करने वालों में इसी वर्ष चुनाव के लिए तय मध्यप्रदेश और राजस्थान की सरकार भी शामिल थीं जिन्होंने फिल्म में सती कुप्रथा के महिमामंडन का कोई जिक्र नहीं कर फिल्म के प्रदर्शन को रोकने के साम्प्र्दायिक तत्वों की बातों से सुर मिलाते हुए यही कहा था कि फिल्म के प्रदर्शन से कानून-व्यवस्था बिगड़ने का ख़तरा है। यह भी गौरतलब है कि फिल्म की शूटिंग और फिर उसका प्रदर्शन रोकने की मांग को लेकर हिंसा में लिप्त सती महिमामंडन के समर्थक तत्वों ने फिल्म के प्रदर्शन के बाद उसका विरोध छोड़ दिया। जाहिर है वे फिल्म में जौहर महिमामंडन के पक्ष में नेपथ्य से गूंजे स्वर से संतुष्ट हो गए।

(* लेखक न्यूज एजेंसी , यूएनआई मुम्बई ब्यूरो के विशेष संवाददाता पद से हाल में सेवानिवृत होने के बाद से विभिन्न विषयों पर हिन्दी और अंग्रेजी में स्वतन्त्र पत्रकारिता कर रहे हैं।)

(तस्वीर: राजस्थान के नागौर जिले में कुचामन सिटी फोर्ट के ' सती कुआं ' की है जो सती जैसी कुप्रथा की अमानवीय क्रूरता को रेखांकित करती है। यह तस्वीर जेएनयू के पूर्व छात्र सतीश कुमार ने बरसों पहले ली थी ।)

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