डॉ. आंबेडकर और जाति की राजनीति

जाति की राजनीति के बरक्स बाबा साहेब

Update: 2018-04-14 10:31 GMT

डॉ आंबेडकर दलित राजनीति के जनक माने जाते हैं क्योंकि उन्होंने ही सबसे पहले दलितों के लिए राजनीतिक अधिकारों की लडाई लड़ी थी। उन्होंने ही भारत के भावी संविधान के निर्माण के संबंध में लंदन में 1930-32 में हुए गोलमेज सम्मलेन में दलितों को एक अलग अल्पसंख्यक समूह के रूप में मान्यता दिलाई थी और अन्य अल्पसंख्यकों मुसलिम, सिख, ईसाई की तरह अलग अधिकार दिए जाने की मांग को स्वीकार करवाया था। 1932 में जब ‘कम्युनल अवार्ड’ के अंतर्गत दलितों को भी अन्य अल्पसंख्यकों की तरह अलग मताधिकार मिला तो गांधीजी ने उस के विरोध में यह कहते हुए कि इससे हिंदू समाज टूट जाएगा, आमरण अनशन की धमकी दे डाली, जबकि उन्हें अन्य अल्पसंख्यकों को यह अधिकार दिए जाने में कोई आपत्ति नहीं थी। अंत में अनुचित दबाव में मजबूर होकर डॉ आंबेडकर को गांधीजी की जान बचाने के लिए ‘पूना पैकट’ करना पड़ा और दलितों के राजनीतिक स्वतंत्रता के अधिकार की बलि देनी पड़ी और संयुक्त चुनाव क्षेत्र और आरक्षित सीटें स्वीकार करनी पड़ीं।

गोलमेज कॉन्फ्रेंस में लिए गए निर्णय के अनुसार नया कानून ‘गवर्नमेंट आफ इंडिया 1935 एक्ट’ 1936 में लागू हुआ। इसके अंतर्गत 1937 में पहला चुनाव कराने की घोषणा की गई। इस चुनाव में भाग लेने के लिए डॉ आंबेडकर ने अगस्त 1936 में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (स्वतंत्र मजदूर पार्टी) की स्थापना की। फिर इस पार्टी ने बंबई प्रेजीडेंसी में 17 सीटों पर चुनाव लड़ा और 15 सीटें जीतीं। इसके बाद डॉ आंबेडकर ने 19 जुलाई, 1942 को आॅल इंडिया शेडयूल्ड कास्ट्स फेडरेशन बनाई। इस पार्टी से वे 1946 और 1952 में चुनाव लड़े, पर इसमें पूना पैक्ट के दुष्प्रभाव के कारण उन्हें कोई विशेष सफलता नहीं मिली। नतीजतन, 1952 और 1954 के चुनाव में डॉ आंबेडकर हार गए। अंत में उन्होंने 14 अक्तूबर, 1956 को नागपुर में आॅल इंडिया शेडयूल्ड कास्ट्स फेडरेशन को भंग करके रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया (आरपीआई) नाम से नई पार्टी बनाने की घोषणा की। इसके लिए उन्होंने इस पार्टी का संविधान भी बनाया। वास्तव में यह पार्टी उनके परिनिर्वाण के बाद 3 अक्तूबर, 1957 को अस्तित्व में आई। इस विवरण के अनुसार बाबा साहेब ने अपने जीवन काल में तीन राजनीतिक पार्टियां बनार्इं। इनमें से वर्तमान में आरपीआई अलग-अलग गुटों के रूप में मौजूद है।

वर्तमान संदर्भ में यह देखना जरूरी है कि बाबा साहेब ने जिन राजनीतिक पार्टियों के माध्यम से राजनीति की, क्या वह जाति की राजनीति थी या विभिन्न वर्गों के मुद्दों की राजनीति थी। इसके लिए उनके द्वारा स्थापित पार्टियों के एजेंडे का विश्लेषण जरूरी है।

व्यापक सरोकार की राजनीति

सबसे पहले बाबा साहेब की स्वतंत्र मजदूर पार्टी को देखते हैं। डॉ आंबेडकर ने अपने बयान में पार्टी बनाने के कारणों और उसके काम के बारे में स्पष्टीकरण देते हुए कहा था- ‘इस बात को ध्यान में रखते हुए कि आज पार्टियों को संप्रदाय के आधार पर संगठित करने का समय नहीं है, मैंने अपने मित्रों की इच्छाओं से सहमति रखते हुए पार्टी का नाम और इसके प्रोग्राम को विशाल बना दिया है, ताकि अन्य वर्ग के लोगों के साथ राजनीतिक सहयोग संभव हो सके। पार्टी का मुख्य केंद्रबिंदु तो दलित जातियों के 15 सदस्य ही रहेंगे, लेकिन अन्य वर्ग के लोग भी पार्टी में शामिल हो सकेंगे।’ पार्टी के मैनीफेस्टो में भूमिहीन, गरीब किसानों और पट्टेदारों तथा मजदूरों की जरूरतों और समस्यायों का निवारण, पुराने उद्योगों की पुनर्स्थापना और नए उद्योगों की स्थापना, छोटी जोतों की चकबंदी, तकनीकी शिक्षा का विस्तार, उद्योगों पर राज्य का नियंत्रण, भूमि के पट्टेदारों का जमींदारों द्वारा शोषण और बेदखली, औद्योगिक मजदूरों के संरक्षण के लिए कानून, सभी प्रकार की कट्टरपंथी और प्रतिक्रियावाद को दंडित करने, दान में मिले पैसे से शिक्षा प्रसार, गांव के नजरिए को आधुनिक बनाने के लिए सफाई और मकानों का नियोजन और गांव के लिए हॉल, पुस्तकालय और सिनेमा घर आदि का प्रावधान करना था। पार्टी ने मुख्यतया किसानों और गरीब मजदूरों के कल्याण पर बल दिया। पार्टी की कोशिश लोगों को लोकतंत्र के तरीकों से शिक्षित करना, उनके सामने सही विचारधारा रखना और उन्हें कानून द्वारा राजनीतिक कार्रवाई के लिए संगठित करना आदि थी। जाहिर है कि इस पार्टी की राजनीति जातिवादी न होकर वर्ग और मुद्दा आधारित थी और इसके केंद्र में मुख्यतया दलित थे। यह पार्टी बंबई विधानसभा में सत्ताधारी कांग्रेस की विपक्षी पार्टी थी। इसने अपने कार्यकाल में बहुत जनोपयोगी कानून बनवाए थे। इस पार्टी के विरोध के कारण ही फैक्ट्रियों में हड़ताल पर रोक लगाने संबंधी औद्योगिक विवाद बिल पास नहीं हो सका था।

अब बाबा साहेब द्वारा स्थापित 1942 में स्थापित आॅल इंडिया शेडयूल्ड कास्ट्स फेडरेशन के उद्देश्य और एजेंडे को देखा जाए। डॉ आंबेडकर ने इसे सत्ताधारी कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टियों के बीच संतुलन बनाने के लिए तीसरी पार्टी के रूप में स्थापित करने की बात कही थी। पार्टी के मेनिफेस्टो में कुछ मुख्य मुद्दे थे- सभी भारतीय समानता के अधिकारी हैं, सभी भारतीयों के लिए धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक समानता की पक्षधरता; सभी भारतीयों को अभाव और भय से मुक्त रखना राज्य की जिम्मेवारी है; स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का संरक्षण; आदमी का आदमी द्वारा, वर्ग का वर्ग द्वारा और राष्ट्र का राष्ट्र द्वारा उत्पीड़न और शोषण से मुक्ति और सरकार की संसदीय व्यवस्था का संरक्षण, आर्थिक प्रोग्राम के अंतर्गत बीमा का राष्ट्रीयकरण और सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए अनिवार्य बीमा योजना और नशेबंदी का निषेध था।

अधिकारों के सवालों के साथ

हालांकि यह पार्टी पूना पैक्ट के कारण शक्तिशाली कांग्रेस के सामने चुनाव में कोई विशेष सफलता प्राप्त नहीं कर सकी, लेकिन पार्टी के एजेंडे और जन आंदोलन जैसे भूमि आंदोलन आदि के कारण अछूत एक राजनीतिक झंडे के तले जमा होने लगे, जिससे उनमें आत्मविश्वास बढ़ने लगा। फेडरेशन के प्रोग्राम से साफ है कि इस पार्टी के केंद्र में दलित थे, लेकिन पार्टी जाति की राजनीति की जगह मुद्दों पर राजनीति करती थी और उसका फलक व्यापक था।

यानी बाबा साहेब ने बदलती परिस्थितियों और लोगों की जरूरत को ध्यान में रख कर एक नई राजनीतिक पार्टी ‘रिपब्लिकन पार्टी आॅफ इंडिया’ की स्थापना की घोषणा 14 अक्तूबर, 1956 को की थी और इस का संविधान भी उन्होंने ही बनाया था। दरअसल, उनका मुख्य उद्देश्य एक ऐसी पार्टी बनाना था जो संविधान में किए गए वादों के अनुसार हो और उन्हें पूरा करना उसका मकसद हो। वे इसे केवल अछूतों की पार्टी नहीं बनाना चाहते थे, क्योंकि एक जाति या वर्ग के नाम पर बनाई गई पार्टी सत्ता प्राप्त नहीं कर सकती। वह केवल दबाव डालने वाला ग्रुप ही बन सकती है। आरपीआई की स्थापना के पीछे मुख्य ध्येय थे- (1)समाज व्यवस्था से विषमताएं हटाई जाएं, ताकि कोई विशेषाधिकार प्राप्त और वंचित वर्ग न रहे, (2) दो पार्टी सिस्टम हो, एक सत्ता में दूसरा विरोधी पक्ष, (3) कानून के सामने समानता और सबके लिए एक जैसा कानून हो, (4) समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना, (5) अल्पसंख्यक लोगों के साथ समान व्यवहार, (6) मानवता की भावना, जिसका भारतीय समाज में अभाव रहा है।

पार्टी के संविधान की प्रस्तावना में इसका मुख्य लक्ष्य और उद्देश्य ‘न्याय, स्वतंत्रता, समता व बंधुता’ को प्राप्त करना था। पार्टी का कार्यक्रम बहुत व्यापक था। इसकी स्थापना के पीछे बाबा साहेब का उद्देश्य था कि अल्पसंख्यक, गरीब मुसलिम, गरीब ईसाई, गरीब और निचली कही जाने वाली जाति के सिक्ख और कमजोर वर्ग के अछूत, पिछड़ी जातियों के लोग, आदिम जातियां, शोषण का अंत, न्याय और प्रगति चाहने वाले सभी लोग एक झंडे के तले संगठित हो सकें और पूंजीपतियों के मुकाबले में खड़े होकर संविधान और अपने अधिकारों की रक्षा कर सकें। (दलित राजनीति और संगठन- भगवान दास)

ऊंचे मकसद से समझौते के सफर

आरपीआई की विधिवत स्थापना बाबा साहेब के परिनिर्वाण के बाद 1957 में हुई और पार्टी ने नए एजेंडे के साथ 1957 और 1962 का चुनाव लड़ा। पार्टी को महाराष्ट्र के अलावा देश के अन्य हिस्सों में भी अच्छी सफलता मिली। शुरू में पार्टी ने जमीन के बंटवारे, नौकरियों में आरक्षण, न्यूनतम मजदूरी, दलित से बौद्ध बने लोगों लिए आरक्षण आदि के लिए संघर्ष किया। उसमें मुसलमान, सिक्ख और जैन आदि धर्मों के लोग भी शामिल हुए, जिनमें पंजाब के जनरल राजिंदर सिंह स्पैरो, दिल्ली में डॉ अब्बास मलिक, उत्तर प्रदेश में राहत मोलाई, डॉ छेदी लाल साथी, नासिर अहमद, बंगाल में श्री एसएच घोष आदि प्रसिद्ध व्यक्ति और कार्यकर्ता थे।

1964 में 6 दिसंबर से फरवरी 1965 तक पार्टी ने स्वतंत्र भारत में जमीन के मुद्दे को लेकर पहला जेल भरो आंदोलन चलाया, जिसमें तीन लाख से अधिक दलित जेल गए। सरकार को मजबूर होकर भूमि आबंटन और कुछ अन्य मांगें माननी पड़ीं। इस दौर में आरपीआई दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की एक मजबूत पार्टी के रूप में उभर कर सामने आई। लेकिन 1962 के बाद यह पार्टी टूटने लगी। इसका मुख्य कारण था कि इस पार्टी से उस समय की सबसे मजबूत राजनीतिक पार्टी कांग्रेस को महाराष्ट्र में खतरा पैदा हो रहा था। इस पार्टी की एक बड़ी कमजोरी थी कि इसकी सदस्यता केवल महारों तक ही सीमित थी। कांग्रेस के नेताओं ने इस पार्टी के नेताओं की कमजोरियों का फायदा उठा कर पार्टी में तोड़फोड़ शुरू कर दी। सबसे पहले उन्होंने पार्टी के सबसे शक्तिशाली नेता दादा साहेब गायकवाड़ को पटाया और उन्हें राज्यसभा का सदस्य बना दिया। इस पर पार्टी दो गुटों में बंट गई। गायकवाड़ का एक गुट कांग्रेस के साथ और दूसरा बीडी खोब्रागडे गुट विरोध में। इसके बाद अलग नेताओं के नाम पर अलग गुट बनते गए और वर्तमान में यह कई गुटों में बंट कर बेअसर हो चुकी है। इन गुटों के नेता रिपब्लिकन नाम का इस्तेमाल तो करते हैं, लेकिन उनका इस पार्टी के मूल एजेंडे से कुछ भी लेना-देना नहीं है। वे अपने-अपने फायदे के लिए अलग पार्टियों से समझौते करते हैं और अक्सर लाभ भी उठाते हैं।

आरपीआई के पतन के बाद उत्तर भारत में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) उभरी, जिसने बाबा साहेब के मिशन को पूरा करने का वादा किया। शुरू में इस पार्टी को कोई खास सफलता नहीं मिली। बाद में 1993 में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ मिल कर चुनाव लड़ने से इस पार्टी को अच्छी सीटें मिलीं और एक सम्मिलित सरकार बनी। लेकिन कुछ व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण जल्दी ही इसका पतन हो गया। इस पार्टी की नेता मायावती ने सत्ता के लिए दलितों की घोर विरोधी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से समझौता करके मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल ली, लेकिन बाबा साहेब के मिशन और सिद्धांतों को एक तरह से तिलांजलि दे दी। इसके बाद पार्टी ने दो बार फिर भाजपा से गठबंधन किया और सत्ता में आई। इस पार्टी ने अवसरवादी, ब्राह्माणवादी, माफिया और पूंजीपति तत्त्वों को पार्टी में शामिल करके दलितों को मायूस किया और उन्हें राज्य से मिलने वाले कई कल्याणकारी लाभों से वंचित कर दिया। इसके नेतृत्व के व्यक्तिगत भ्रष्टाचार, तानाशाही और अदूरदर्शिता से बाबा साहेब के नाम पर दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की बनी एकता छिन्न-भिन्न हो गई है। आज दलितों का एक बड़ा हिस्सा इस पार्टी से टूट कर हिंदुत्ववादी भाजपा के साथ चला गया है। भाजपा इन जातियों का इस्तेमाल दलितों और मुसलामानों के बीच टकराव करवाने के लिए कर रही है। इससे बहुसंख्यकवाद उग्र होता जा रहा है।

जाति के दायरे से आगे का रास्ता

डॉ आंबेडकर जाति की राजनीति के पक्षधर नहीं थे, क्योंकि इससे जाति मजबूत होती है और फिर इससे हिंदुत्व मजबूत होता है जो जाति व्यवस्था की उपज है। डॉ आंबेडकर का लक्ष्य जाति का विनाश करके भारत में जातिविहीन और वर्गविहीन समाज की स्थापना करना था। उन्होंने जो भी राजनीतिक पार्टियां बनार्ईं, वे जातिगत पार्टियां नहीं थीं, क्योंकि उनके लक्ष्य और उद्देश्य व्यापक थे। यह बात सही है कि उनके केंद्र में दलित थे, लेकिन उनके कार्यक्रम व्यापक और जाति निरपेक्ष थे। वे सभी कमजोर वर्गों के उत्थान के लिए थे। इसीलिए जब तक उनके द्वारा स्थापित की गई आरपीआई उनके सिद्धांतों और एजेंडे पर चलती रही, तब तक वह दलितों, मजदूरों और अल्पसंख्यकों को एकजुट करने में सफल रही। जब तक उनमें आंतरिक लोकतंत्र रहा और वे जन मुद्दों को लेकर संघर्ष करती रहीं, तब तक फलती-फूलती रही। जैसे ही वह व्यक्तिवादी और जातिवादी राजनीति के चंगुल में पड़ी, उसका पतन हो गया।

इसलिए अगर वर्तमान में विघटित दलित राजनीति को पुनर्जीवित करना है तो दलितों को जातिवादी राजनीति से निकल कर व्यापक मुद्दों की राजनीति को अपनाना होगा। जाति के नाम पर राजनीति करके व्यक्तिगत स्वार्थसिद्धि करने वाले नेताओं से मुक्त होना होगा। उन्हें यह जानना चाहिए कि जाति की राजनीति जाति के नायकों की व्यक्ति पूजा को मान्यता देती है और तानाशाही को बढ़ावा देती है। जाति की राजनीति में नेता प्रमुख हो जाते हैं और मुद्दे गौण। अब तक के अनुभव से यह सिद्ध हो चुका है कि जाति की राजनीति से जाति टकराव और स्पर्धा बढ़ती है जो कि जातियों की एकता में बाधक है। नतीजतन, दलितों की कई छोटी उपजातियां बड़ी उपजातियों से प्रतिक्रिया स्वरूप अपनी दुश्मन हिंदुत्ववादी पार्टियों से जा मिली हैं जो दलित एकता के लिए बहुत बड़ा खतरा है। इस खतरे के सामने आवश्यक है कि दलित वर्ग अपनी राजनीतिक पार्टियों और राजनेताओं का पुनर्मूल्यांकन करे और जाति की विघटनकारी राजनीति को नकार कर जनवादी, प्रगतिशील और मुद्दा आधारित राजनीति का अनुसरण करे, जैसा कि डॉ आंबेडकर की अपेक्षा थी। दरअसल, अब देश को जातिवादी पार्टियों की जरूरत नहीं, बल्कि सबके सहयोग से जाति-व्यवस्था विरोधी एक मोर्चे की जरूरत है, अन्यथा जातियां मजबूत होती रहेंगी, जिससे धर्म की राजनीति को पोषण मिलता रहेगा जो वर्तमान में लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है।

(एसआर दारापुरी, सेवानिवृत्त आईपीएस और संयोजक जन मंच)
 

Similar News

Justifying The Unjustifiable

How Votes Were Counted

The Damning Of Greta Thunberg