खतरे में है लोकतंत्र की विश्वसनीयता...

खतरे में है लोकतंत्र की विश्वसनीयता...

Update: 2018-05-10 13:00 GMT

दो खबरों का दफ्न होना..!

तूफानी रफ्तार से खबरों के आने और गुजर जाने के बीच कई बार वैसी खबरें गुम होकर रह जाती हैं या उन पर गौर नहीं किया जाता, जो किसी देश का वर्तमान और भविष्य तय करती हैं। हाल में दो ऐसी खबरें आईं, जिस पर गंभीरता से बात होनी चाहिए थी, उस पर सभी पार्टियों को फिक्रमंद होना चाहिए था, उसके असर से निपटने के लिए राजनीतिक और रणनीतिक पहलकदमी होनी चाहिए थी। भाजपा के लिए इस पर बात करना जरूरी नहीं था, लेकिन दूसरे राजनीतिक दलों के लिए भी ये शायद किसी महत्त्व की खबरें नहीं थीं। बाकी साधारण खबरों की तरह वे खबरें भी आईं और चली गईं।

पहली खबर यह थी कि खुद चुनाव आयोग से सूचना के अधिकार कानून के तहत यह चौंकाने वाली और बेहद चिंताजनक जानकारी सामने आई कि हैदराबाद के ईसीआइएल और बेंगलुरू के बीईएल से उसे एक खास अवधि में जो तकरीबन चालीस लाख ईवीएम यानी इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन भेजे गए, लेकिन उसे सिर्फ लगभग इक्कीस लाख मशीनें मिलीं। यानी ईसीआइएल और बीईएल के भेजे ईवीएम और चुनाव आयोग को मिले ईवीएम के आंकड़े में तकरीबन उन्नीस लाख मशीनों का फर्क है। सवाल है कि वे उन्नीस लाख ईवीएम कहां गए और उनका क्या इस्तेमाल हुआ?

देश भर में होने वाले चुनावों में वोटिंग के लिए जहां भी ईवीएम का इस्तेमाल होता है, वे कहां से आते हैं? क्या वे ईवीएम एक सुरक्षित प्रक्रिया के तहत चुनाव आयोग से ही मतदान केंद्रों तक पहुंचाए जाते हैं? अगर हां, तो गायब हुए करीब उन्नीस लाख ईवीएम कहां गए? क्या वे चुनाव आयोग के भेजे ईवीएम की जगह कहीं इस्तेमाल किए गए? हर स्तर पर चुनावी प्रक्रिया और संसाधनों-मशीनों को पूरी तरह सुरक्षित होने का दावा करने वाला चुनाव आयोग क्या यह गारंटी के साथ कह सकता है कि उन उन्नीस लाख मशीनों का इस्तेमाल कहीं भी वोटिंग में नहीं हुआ? अगर किन्हीं हालात में उन मशीनों के जरिए देश के अलग-अलग लोकसभा या विधानसभा या किसी चुनाव में वोटिंग हुई होगी, तो उन सीटों के नतीजों को कितना वैध माना जाना चाहिए?

ईवीएम में भाजपा..!

यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि इस बीच देश भर के कई इलाकों से ऐसी खबरें आईं, जिनमें यह बताया गया कि ईवीएम में किसी भी उम्मीदवार को वोट देने पर वे वोट भाजपा उम्मीदवारों को जा रहे थे। लेकिन जहां से भी ऐसी शिकायतें सामने आईं, वहां जांच कराने की बात हुई और फिर उसके बारे में कुछ पता नहीं चला। हर बार खासतौर पर एक पार्टी भारतीय जनता पार्टी की ओर से यह दावे के साथ कहा गया कि ईवीएम में कोई गड़बड़ी नहीं है और चुनाव आयोग ईवीएम के पूरी तरह सही होने के दावे के साथ ईवीएम पर सवाल उठाने वालों को गड़बड़ी साबित करने की चुनौती देता रहा।

दूसरी ओर, कुछ स्वतंत्र तकनीक विशेषज्ञों के अलावा आम आदमी पार्टी की ओर से ईवीएम के जरिए होने वाली चुनावी गड़बड़ी की प्रक्रिया का सार्वजनिक प्रदर्शन किया गया। लेकिन उन सवालों पर गंभीरता से विचार करना न चुनाव आयोग को जरूरी लगा, न दूसरे राजनीतिक दलों ने ही चुनावी प्रक्रिया को गंभीर रूप से प्रभावित करने वाले इस सवाल को राजनीतिक मुद्दा बनाना जरूरी समझा। सवाल है कि ईवीएम के जरिए की जाने वाली गड़बड़ी की आशंका और चुनाव आयोग को ईवीएम की आपूर्ति करने वाली कंपनियों के दावों का कोई मजबूत आधार है तो ऐसी स्थिति में ईवीएम के जरिए होने वाले मतदान और उसके नतीजे कितने विश्वसनीय हो सकते हैं?

आधार की खतरनाक आशंका..!

दूसरी अहम खबर कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट से आई थी, जिसमें अदालत ने जो फिक्र जताई थी, वह राष्ट्रीय चिंता का विषय होना चाहिए था। लेकिन उस पर राजनीतिक या बौद्धिक हलकों में कोई सुगबुगाहट नहीं देखी गई। हाल ही में जब फेसबुक और कैंब्रिज एनालिटिका के जरिए लोगों की निजी जानकारियां बेचने और उसका इस्तेमाल चुनावी नतीजों को प्रभावित करने की कोशिश की खबर आई तो भाजपा की ओर से बहुत हंगामा मचाया गया, उसके शीर्ष नेताओं ने इस पर काफी तीखे सवाल उठाए। अगर इस आशंका कोई आधार है, तो निश्चित रूप से यह चिंता का मसला है। लेकिन आधार मसले पर एक सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आधार का डाटा लीक होने से चुनाव के परिणाम प्रभावित हो सकते हैं। गौरतलब है कि किसी व्यक्ति के फेसबुक प्रोफाइल में जितनी जानकारी होती है, उसके मुकाबले आधार कार्ड में दर्ज ब्योरे ज्यादा महत्त्व के होते हैं और व्यक्ति के बारे में ठोस जानकारी मुहैया कराते हैं।

सवाल है कि जब फेसबुक प्रोफाइल की जानकारियों से चुनावी नतीजों को प्रभावित करने की कोशिश के आरोपों का कोई मजबूत आधार है तो क्या इसी तरह लोगों के 'आधार' के जरिए भी चुनावी नतीजों को किसी खास राजनीतिक दल के पक्ष में प्रभावित किया जा सकता है? इस मसले पर अगर सुप्रीम कोर्ट की चिंता से इत्तिफाक रखा जाए तो क्या मौजूदा सरकार की ओर से अलग-अलग रूप में हर हाल में 'आधार' नंबर को अनिवार्य बनाने पर जोर देने के पीछे एक बड़ा कारण यह भी है? यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि यूआइडीएआइ के इनकार के बावजूद अब तक लाखों या कई करोड़ लोगों के आधार में दर्ज ब्योरों के लीक होने या चोरी होने की कई खबरें आ चुकी हैं।

बहरहाल, अगर ईवीएम और उसके जरिए वोटिंग की खबरें इस कदर फिक्र और अविश्वसनीयता पैदा करती हैं तो फिर चुनाव और वोटिंग का क्या मतलब रह जाता है? इसी तरह, आधार और चुनावी नतीजों को लेकर भी आशंकाएं सामने आ रही हैं। सवाल है कि इन आशंकाओं की बुनियाद पर खड़ा लोकतंत्र कितना वास्तविक और भरोसेमंद है?
 

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