माब लिंचिंगः पूरे समाज को अमानवीय और बर्बर बनाती है

मरने वालों में 84 प्रतिशत मुसलमान व 16 प्रतिशत वंचित

Update: 2018-07-26 12:21 GMT

पिछले कुछ वर्षों में माब लिंचिंग (भीड़ द्वारा व्यक्ति या व्यक्तियों को पीट-पीटकर मार डालना) की घटनाओं में तेजी से वृद्धि हुई है, विशेषकर भाजपा के दिल्ली में सत्ता में आने के बाद से गाय से जुड़े मुद्दों पर साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाएं चार गुना बढ़ गई हैं। सन् 2010 में जहां गाय से जुड़े मुद्दे, 5 प्रतिशत से कम साम्प्रदायिक दंगों के लिए जिम्मेदार थे, वहीं सन् 2017 मे इनका प्रतिशत बढ़कर 20 हो गया। ‘इंडिया स्पेन्ड‘ वेब पोर्टल के अनुसार, 2010 से लेकर 25 जून 2017 तक, गाय से जुड़े मुद्दों पर माब लिंचिंग की 60 घटनाओं में 25 व्यक्ति मारे गए। इनमें से 97 प्रतिशत घटनाएं भाजपा के सत्ता में आने के बाद हुईं। मरने वालों में से 84 प्रतिशत मुसलमान व शेष 16 प्रतिशत दलित या अन्य हाशिए पर पड़े वर्गों से थे। गौरक्षा से संबंधित हिंसा, लिंचिंग का सबसे प्रमुख कारण रही है। इसके अलावा, बच्चा चोरी और डायन होने के आरोप में भी भीड़ द्वारा हत्याएं होती रही हैं। दूसरे मामले की अधिकांश शिकार महिलाएं होती हैं।

बड़े दंगे नहीं हुए लेकिन साम्प्रदायिकता बढ़ी

सेंटर फारॅ स्टडी ऑफ़ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म (सीएसएसएस) ने देश में साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं के अपने अध्ययन में पाया कि सन् 2014 में भाजपा के केन्द्र में सत्ता में आने के बाद से, देश में कोई बड़ा साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ। बल्कि, सन् 2014 में साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं में, उसके पिछले वर्ष की तुलना में, कमी आई। परंतु समाज में साम्प्रदायिक सोच का बोलबाला बढ़ा और इसका मुख्य कारण था सत्ताधारी दल के नेताओं के नफरत फैलाने वाले भाषण। सन् 2015 में साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं में किंचित वृद्धि हुई परंतु इस हिंसा में मरने वालों की संख्या 90 (2014) के मुकाबले 84 थी। वर्तमान सरकार के सत्ता में आने के बाद से, साम्प्रदायिक हिंसा के स्वरूप में एक बड़ा परिवर्तन आया है। अब बड़े साम्प्रदायिक दंगे नहीं होते। इसके विपरीत, छोटे पैमाने पर हिंसा होती है, जिसमें या तो मौतें होती ही नहीं हैं या बहुत कम संख्या में होती हैं।

पॉल ब्रास (‘द प्रोडक्शन ऑफ़ हिन्दू-मुस्लिम रायट्स इन कंटेम्पोरेरी इंडिया‘, 2004) लिखते हैं कि साम्प्रदायिक दंगे, ‘संस्थागत दंगा प्रणाली‘ (आईआरएस) द्वारा माकूल राजनैतिक परिस्थितियों में भड़काए जाते हैं। इसके लिए रोजाना के मामूली झगड़ों को साम्प्रदायिक रंग देकर, बड़ा स्वरूप दे दिया जाता है। साम्प्रदायिक हिंसा से हमेशा उस दल को फायदा होता है, जो समाज के बहुसंख्यक तबके का प्रतिनिधित्व करने का दावा करता है, अर्थात पहले जनसंघ और अब, भाजपा।

हिन्दू श्रेष्ठतावादी अब सत्ता में हैं। अतः उन्हें अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए बड़े और भीषण दंगे करवाने की जरूरत नहीं रह गई है। वे अपना लक्ष्य, नफरत फैलाने वाले भाषणों और दुष्प्रचार से हासिल कर सकते हैं। अल्पसंख्यकों को धर्मपरिवर्तन करवाने वाले, आतंकी, पाकिस्तान के प्रति वफादार, अलगाववादी और राष्ट्रविरोधी बताया जाता है और यह भी कहा जाता है कि वे देश के टुकड़े-टुकड़े करवाने पर आमादा हैं। इसके अलावा, उन्हें लव जेहाद के जरिए हिन्दू महिलाओं को अपने प्रेम जाल में फंसाने व गौवध का भी दोषी ठहराया जाता है। यह भी कहा जाता है कि अतीत में उन्होंने हिन्दुओं का दमन किया और हिन्दू मंदिरों को जमींदोज किया। इस दुष्प्रचार से साम्प्रदायिकता की आग धीमे-धीमे सुलगती रहती है परंतु न तो मीडिया का और ना ही अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों का ध्यान उसकी ओर जाता है। इसके विपरीत, बड़े दंगे और कत्लेआम, मीडिया और मानवाधिकार संगठनों की नजर में आ जाते हैं और इससे सरकारों की बदनामी होती है।

आईआरएस को साम्प्रदायिक दंगे करवाने के लिए बहुत मेहनत नहीं करना पड़ती। सबसे पहले एक जबरदस्त प्रचार अभियान चलाया जाता है, जिसका उदेश्य होता है अल्पसंख्यकों का दानवीकरण। डॉ. असगर अली इंजीनियर इसे समष्टि स्तर के कारक (‘आन डेव्लपिंग थ्योरी ऑफ़ कम्युनल रायट्स‘, 1984) कहते हैं। कोई भी साम्प्रदायिक दंगा तभी करवाया जा सकता है जब समष्टि कारक मौजूद हों, अर्थात, जिस समुदाय को निशाना बनाया जाना है, उसके प्रति समाज में पूर्वाग्रह व्याप्त हों। उसके बाद सूक्ष्म स्तर के कारकों की ज़रूरत पड़ती है। यह किसी मस्जिद के सामने से निकलता हिन्दू धार्मिक जुलूस हो सकता है, कोई अंतःर्धार्मिक विवाह हो सकता है, किसी मुसलमान पर गुलाल फेंकना हो सकता है, किसी मुस्लिम दुकानदार द्वारा गाय को भगाने के लिए उसे मारना हो सकता है या साबरमती एक्सप्रेस के डिब्बे में आग लगना हो सकता है। समष्टि स्तर के कारक पहले से ही दंगों के लिए वातावरण तैयार कर देते हैं। बस, एक तीली की ज़रूरत होती है, जो सूक्ष्म स्तर के कारक उपलब्ध करवाते हैं।

माब लिंचिग भी इसी प्रक्रिया से होती है। ऐसा लग सकता है कि ये घटनाएं स्वस्फूर्त हैं परंतु यह सही नहीं है। इनके पीछे वर्षों का दुष्प्रचार और समाज में रोपे गए पूर्वाग्रह होते हैं।

माब लिंचिग और साम्प्रदायिक दंगे

माब लिंचिंग और साम्प्रदायिक दंगों, दोनों में भीड़ को हिंसा करने के लिए सड़क पर लाने के लक्ष्य से अफवाहें फैलाई जाती हैं। ये अफवाहें इस तरह की होती हैं जो लोगों को संशयग्रस्त, चिंतित और क्रोधित कर दें। वे साधारण लोगों को खून की प्यासी भीड़ों में बदल देती हैं।

कभी यह अफवाह फैलाई जाती है कि शहर की दूध या पानी की सप्लाई में जहर मिला दिया गया है। माताएं अपने बच्चों को दूध पिलाना बंद कर देती हैं और कुछ सहज-विश्वासी लोग पानी पीना भी बंद कर देते हैं। परंतु आखिर कोई कितनी देर प्यासा रह सकता है? ऐसी अफवाहें भी आम तौर पर फैलाई जाती हैं कि दूसरे समुदाय के लोगों की अस्त्रों से लैस भीड़, किसी इलाके पर हमला करने के लिए कूच कर गई है, फलां मस्जिद में हथियार जमा हो रहे हैं या एक समुदाय विशेष की महिलाओं को बलात्कार का शिकार बनाया जा रहा है। इनमें से कोई भी या एक से अधिक अफवाह, लोगों को सड़क पर उतरकर दूसरे समुदाय के व्यक्तियों या उनकी संपत्ति को निशाना बनाना शुरू कर देने के लिए पर्याप्त होती हैं।

शहर या गांव में बच्चा चोरी करने वाले गिरोह घूम रहे हैं या गायों को काटने के लिए ले जाया जा रहा है, इस तरह की अफवाहों का प्रयोग भी लोगों को खून-खराबे के लिए प्रेरित करने के लिए किया जाता है। यही साम्प्रदायिक दंगों के मामले में भी होता है।

साम्प्रदायिक दंगों और माब लिंचिंग के बीच दूसरी समानता है, अपराध के पीड़ितों को न्याय दिलवाने में राज्य तंत्र की क्षमता पर अविश्वास। दंगाई और लिचिंग करने वाले तुरंत न्याय करना चाहते हैं। उन्हें अपने शिकार के अपराधी होने के किसी सुबूत की जरूरत नहीं होती। वे उसे वहीं और उसी समय सजा देना चाहते हैं और वह भी अधिक से अधिक बर्बर और अमानवीय ढंग से। न्याय के नाम पर वे बदला लेते हैं।

दंगों और माब लिंचिग, दोनों में एक दमित समुदाय को दूसरे दमित समुदाय से भिड़ा दिया जाता है। साम्प्रदायिक दंगों में दलितों को मुसलमानों के खिलाफ भड़काया जाता है, और मुसलमानों को दलितों के खिलाफ। कंधमाल में आदिवासियों ने दलित ईसाईयों पर हमले किए। लिंचिंग और दंगों दोनों के शिकार ‘बाहरी लोग‘ होते हैं। वे दूसरे धर्म के हो सकते हैं या दूसरे गांव या शहर के।

परंतु साम्प्रदायिक दंगों और माब लिंचिग में कुछ अंतर भी हैं। साम्प्रदायिक दंगे एक पूरे समुदाय के विरूद्ध युद्ध की घोषणा होते हैं। ‘शत्रु‘ समुदाय के हर व्यक्ति और उसकी संपत्ति को निशाना बनाया जाता है। साम्प्रदायिक दंगों का उद्धेष्य होता है किसी समुदाय को सामूहिक सजा देना। कोई भी व्यक्ति मात्र इसलिए शत्रु बन जाता है क्योंकि वह किसी विशिष्ट समुदाय का सदस्य है। वह कितना ही सीधा-सादा और अपने काम से काम रखने वाला क्यों न हो, उसे सिर्फ इसलिए निशना बनाया जाता है क्योंकि वह उस समुदाय का है। इसके विपरीत, माब लिंचिंग के निशाने पर विशिष्ट व्यक्ति होते हैं, जिन्हें भीड़ किसी अपराध या गलती का दोषी मानती है। इसके अलावा, जहां साम्प्रदायिक दंगे भड़काने के लिए पहले से तैयारी करनी पड़ती है और योजना बनानी पड़ती है वहीं माब लिंचिंग के लिए बहुत योजनाबद्ध और विस्तृत तैयारी नहीं करनी पड़ती।

गौवध के मुद्दे पर जो हिंसा हो रही है, उसके निशाने पर मुख्यतः मुसलमान हैं। मोहम्मद अखलाक, पहलू खान, जुन्नैद, अलीमउद्दीन अंसारी इत्यादि इसके उदाहरण हैं। इंडिया स्पेन्ड की रिपोर्ट के अनुसार, गाय से जुड़े मुद्दों पर हुई माब लिंचिंग के मामलों के 84 प्रतिशत शिकार मुसलमान थे। परंतु समस्या यह है कि इस मुद्दे को लेकर केवल कुछ ही मुसलमानों को निशाना बनाया जा सकता है, अर्थात वे जो या तो मवेशियो का व्यापार करते हैं, उन्हें पालते हैं या उनका परिवहन करते हैं। अन्य मुसलमानों को शिकार बनाने के लिए पानी या दूध में जहर या बच्चा चोरी जैसी अफवाहों का प्रयोग किया जाता है। यह अफवाह भी उड़ाई जाती है कि बच्चा चोर अपह्त बच्चों के शरीर से अंग निकालकर बेचते हैं। बच्चा चोरी से संबंधित अफवाहों में जिन वीडियो का प्रयोग किया जाता रहा है, उनमें से कई में संदेही को बुर्कानशी महिला के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। जाहिर है कि इस तरह की अफवाहें फैलाने वालों को यह आशा रही होगी की इससे गाय के मुद्दे की तरह, मुख्यतः मुसलमान भीड़ों के निशाने पर आ जाएंगे। परंतु उनका यह गणित गड़बड़ा गया और अब हालत यह है कि हाशिए पर पड़े वर्गों के गैर मुस्लिम अजनबियों की भी बच्चा चोर होने के आरोप में जान ली जा रही है।

राज्य व्यवस्था की भूमिका

गौहत्या के आरोप में हुई माब लिंचिंग की घटनाओं के मामले में राज्य की भूमिका एकतरफा रही है। जो लोग अपनी जान बचाने में कामयाब हो जाते हैं उन पर गौहत्या निषेध कानूनों के तहत मुकदमे चलाए जाते हैं। ये कानून बहुत कठोर हैं। इसके विपरीत, माब लिंचिंग - जो गौहत्या से कहीं अधिक गंभीर अपराध है - के आरोपियों के विरूद्ध या तो कोई कार्यवाही की ही नहीं जाती या बहुत ढीले-ढाले ढंग से की जाती है। राजस्थान में पहलू खान की लिंचिंग के मामले में राज्य ने आरोपियों के खिलाफ अभियोगपत्र दाखिल नहीं किया परंतु जो लोग भीड़ के हमले से अपनी जान बचाने में कामयाब हो गए थे, उन्हें आरोपी बना दिया गया।

पुलिस सामान्यतः घटनास्थल पर तब पहुंचती है जब भीड़ अपना काम कर चुकी होती है। भाजपा नेता और मंत्री, लिंचिंग के आरोपियों का बचाव करते हैं। अलीमउद्दीन अंसारी की लिंचिंग के मामले में जिन 11 लोगों को विचारण न्यायालय ने हत्या का दोषी करार दिया था, उन्हें उच्च न्यायालय से जमानत दिलवाने का श्रेय लेने के लिए भाजपा की झारखंड राज्य इकाई के अध्यक्ष और केन्द्रीय मंत्री जयंत सिन्हा के बीच होड़ मच गई। जयंत सिन्हा ने उन अभियुक्तों का स्वागत किया जिन्हें उनकी अपील पर विचारण के दौरान जमानत पर रिहा कर दिया गया था। कुल मिलाकर, राज्य ऐसी घटनाओं के मामले में अपना मुंह फेर लेता है। शायद वह यह संदेश देना चाहता है कि मुसलमानों को भीड़ द्वारा पीट-पीटकर मार डालने में कुछ भी गलत नहीं है।

अब, जबकि माब लिंचिंग ने गंभीर रूप अख्तियार कर लिया है और गैर-मुसलमानों को भी इसका शिकार बनाया जा रहा है, तब सरकार ने इस मामले में कुछ कड़े कदम उठाने की पेशकश की है। धुले में एक घुमन्तु जनजाति के 5 व्यक्तियों की पीट-पीटकर हत्या की घटना के दो महीने पहले, गोसावी समुदाय ने पुलिस से यह अनुरोध किया था कि समुदाय के सदस्यों को पहचानपत्र जारी कर दिए जाएं। बच्चा चोरी की अफवाहें वहां पिछले दो माह से फैल रही थीं परंतु प्रशासन ने उन्हें रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाया। अगर पुलिस यह संदेश स्पष्ट रूप से प्रसारित कर देती कि कानून तोड़ने वालों से कड़ाई से निपटा जाएगा तो शायद ये पांच निरपराध लोग अब भी जीवित होते। परंतु तब किसे यह मालूम था कि इन अफवाहों का शिकार गैर-मुस्लिम बनेंगे।

आखिर में

माब लिंचिंग किसी भी सभ्य समाज में पूरी तरह अस्वीकार्य है। यह जंगल राज के समान है। सन् 1877 से लेकर 1950 तक अमरीका में अश्वेत की माब लिंचिंग की अनेक घटनाएं हुईं। इनका उद्धेष्य गोरों के वर्चस्व को स्थापित करना और अश्वेत को समर्पण करने के लिए मजबूर करना था। ये सभी घटनाएं बहुत मामूली या झूठे आरोप लगाकर अंजाम दी गईं। गोरों का मानना था कि इस तरह के मामलों में किसी प्रकार के मुकदमे की जरूरत ही नहीं है और सजा भीड़ द्वारा दी जाना पूरी तरह उचित है। अमरीका के दक्षिणी राज्यों में लिंचिंग की 4,084 घटनाएं हुईं और अन्य राज्यों में 300। इनमें से शायद ही किसी घटना के दोषियों को सजा मिल सकी हो। अमरीका में नागरिक अधिकार आंदोलन के उदय के साथ लिंचिंग की घटनाएं बंद हो गईं।

हिन्दुत्व की राजनैतिक विचारधारा के प्रमुख चिंतक - सावरकर और गोलवलकर - यह मानते थे कि मुसलमान और ईसाई, हिन्दू राष्ट्र के लिए बाहरी हैं और हिन्दू राष्ट्र इन बाहरी लोगों के साथ अनवरत युद्धरत है। गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘व्ही आर अवर नेशनहुड डिफाइंड‘ में इस बात की वकालत की थी कि भारत में मुसलमानों और ईसाईयों के साथ वही सुलूक किया जाए जो हिटलर की जर्मनी में यहूदियों के साथ किया गया था।

माब लिंचिंग केवल कुछ लोगों की जिंदगी खत्म हो जाना या कुछ का घायल हो जाना नहीं है। मुद्दा प्रजातंत्र, कानून के शासन और न्याय का है। इस मामले में प्रधानमंत्री की चुप्पी उनकी सरकार की सोच की दिशा बताती है। मंत्रियों और अन्य भाजपा नेताओं द्वारा जो कहा और किया जा रहा है, उससे हम एक ऐसे समाज की ओर बढ़ रहे हैं जिसमें जो शक्तिशाली है, वही सही है।

यह जरूरी है कि राज्य तुरंत माब लिंचिंग की घटनाओं को रोकने के लिए जरूरी कदम उठाए और हमें उसे ऐसा करने पर मजबूर करना होगा। लिंचिंग न केवल उस समुदाय का अमानवीकरण करती है जो निशाने पर होता है, वरन् वह पूरे समाज को अमानवीय और बर्बर बनाती है। इसके पहले कि बहुत देर हो जाए, हमें आगे बढ़कर मानवाधिकारों, कानून के शासन और प्रजातंत्र की रक्षा के लिए कदम उठाने चाहिए।

(अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)

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