भारत की अवधारणा पर चोट

राम पुनियानी

Update: 2018-07-30 16:15 GMT

हाल (जुलाई 2018) में लोकसभा में मोदी सरकार के विरूद्ध विपक्ष द्वारा प्रस्तुत अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान यह स्पष्ट रूप से सामने आया कि मोदी सरकार लगभग सभी मोर्चों पर असफल सिद्ध हुई है. चाहे सवाल भ्रष्टाचार पर नियंत्रण का हो, विदेशों में जमा काले धन को देश में वापस लाने का हो, युवाओं के लिए रोजगार के अवसरों के सृजन का हो, बढ़ती हुई कीमतों पर नियंत्रण का हो या कृषि संकट के निवारण का - मोदी सरकार इनमें से कुछ भी नहीं कर सकी है. और हां, हम सभी भारतीय अपने खातों में 15 लाख रूपये आने का इंतजार अब भी कर रहे हैं. राहुल गांधी ने अविश्वास प्रस्ताव पर अपने भाषण में कई महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए. परंतु इसके साथ-साथ, समाज में बढ़ती नफरत और हिंसा तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों को आतंकित करने की कोशिशों पर भी चर्चा की जानी थी.

इन मुद्दों पर एक हालिया पुस्तक में विस्तृत चर्चा की गई है. इस पुस्तक को मीडिया के बड़े हिस्से ने नजरअंदाज कर दिया. मोदी सरकार के चार वर्ष पूरे हो जाने के अवसर पर कुछ नागरिक समाज समूहों ने एक पुस्तक प्रकशित की है जिसका शीर्षक है ‘डिस्मेंटलिंग इंडिया‘. इसका संपादन जानेमाने सामाजिक कार्यकर्ताओं जॉन दयाल, नीलम डाबीरू व शबनम हाशमी ने किया है. पुस्तक में राष्ट्रीय एकीकरण और साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए काम कर रहे प्रमुख लेखकों और कार्यकर्ताओं के लेख संकलित हैं. लगभग 22 प्रमुख लेखकों - जिन्हें सत्ताधारी दल निश्चय ही छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी कहेगा - ने अत्यंत सूक्ष्मता और गहराई से सरकार की नीतियों की समीक्षा की है.

यह पुस्तक मोदी सरकार के पिछले चार वर्ष के कार्यकाल को एक विस्तृत कैनवास पर देखती है. खून की प्यासी भीड़ों और भगवा ब्रिगेड के गुंडों की कारगुजारियों की इसमें विस्तार से चर्चा है. ऐसा लग सकता है कि ये भीड़ें अचानक इकट्ठी हो जाती हैं परंतु सच यह है कि यह सब कुछ काफी सुव्यवस्थित और योजनाबद्ध तरीके से अंजाम दिया जाता है. सत्ताधारियों का इन्हें प्रत्यक्ष और परोक्ष समर्थन हासिल होता है. वे कानून अपने हाथ में इसलिए ले लेते हैं क्योंकि उन्हें यह मालूम होता है कि उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा. संपादकों ने इस पुस्तक में ऐसे चुनिंदा लेख शामिल किए हैं, जो उन मिथकों, पूर्वाग्रहों और टकसाली धारणाओं पर केन्द्रित हैं जिनके चलते आम लोग कानून अपने हाथ में लेने के लिए प्रेरित होते हैं और समाज के कमजोर वर्गों के खिलाफ हिंसा करने में नहीं सकुचाते.

ये सभी लेखक, जो ‘भारत की अवधारणा‘ के प्रति प्रतिबद्ध हैं, अत्यंत संवेदनशीलता के साथ गहराई से भारत में नागरिक अधिकारों और मानवाधिकारों की स्थिति का आंकलन करते हैं और यह भी बताते हैं कि किस प्रकार समाज में भय और आतंक का वातावरण गहराता जा रहा है. ये लेख हमारे सामाजिक जीवन, संस्कृति और उस विघटनकारी हिन्दुत्ववादी राजनीति का विश्लेषण करते हैं, जो हमें अंधेरे की ओर ढ़केल रही है और जो उन मूल्यों के विरूद्ध है, जो हमारे स्वाधीनता आंदोलन का आधार थे. उदाहरण के लिए, जॉन दयाल का तीखा आलेख ‘लिंचिंग और नफरत के अन्य परिणाम‘ समाज को आईना दिखाता है. हिंसा अपने आप नहीं भड़कती. वह समाज में व्याप्त गलतफहमियों और उससे उपजी नफरत का नतीजा होती है. पुस्तक में संकलित लेख हमें बताते हैं कि पिछले चार वर्षों में किस तरह धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरूद्ध नफरत फैलाई गई और सामाजिक वातावरण में साम्प्रदायिकता को इस कदर घोल दिया गया कि हर्षमंदर के शब्दों में हम ‘नफरत के गणतंत्र‘ बन गए हैं.

हमारे प्रधानमंत्री कहते हैं कि प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी थी और वह इतनी उन्नत थी कि एक लड़के के शरीर पर हाथी का सिर लगाने में सक्षम थी. स्पष्टतः वे अंधश्रद्धा को बढ़ावा देना चाहते हैं और अतीत का महिमामंडन करने के इच्छुक हैं. उनके अनुसार, प्राचीन भारत में विमानों से लेकर टीवी तक, और वाईफाई से लेकर परमाणु बम तक सब थे. गौहर रजा और डॉ. सुरजीत सिंह हमारे राजनेताओं के इन हास्यास्पद बयानों की चर्चा करते हुए बताते हैं कि यह केवल खोखले वक्तव्य जारी करने का मसला नहीं है. वैज्ञानिक शोध के लिए नियत धन का उपयोग, ऐसे परियोजनाओं के लिए किया जा रहा है जिनसे आम लोगों का कोई लेनादेना नहीं है. पंचगव्य (गाय के गोबर, मूत्र, दूध, दही और घी का मिश्रण) पर शोध के लिए एक उच्च स्तरीय समिति के अधीन एक बड़ी धनराशि उपलब्ध करवाई गई है. सरकार की इन हास्यास्पद नीतियों से हमारे प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के देश में वैज्ञानिक सोच को प्रोत्साहन देने के प्रयासों पर पानी फिर गया है. यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा संविधान भी राज्य को यह जिम्मेदारी देता है कि वह वैज्ञानिक सोच को प्रोत्साहित करे.

शिक्षा व्यवस्था में बहुत तेजी से परिवर्तन लाए जा रहे हैं. पाठ्यक्रमों में इस तरह के बदलाव कर दिए गए हैं जो अंधकारवादी सोच को बढ़ावा देते हैं, हिन्दू राजाओं का महिमामंडन करते हैं और अन्य शासकों को राक्षसों का प्रतिरूप बताते हैं. के. सतीषचन्द्रन हमारे देश की बहुवादी परंपराओं पर हो रहे हमले से विचलित हैं. यही परंपराएं हमारे देश के विविधवर्णी चरित्र को बनाए रख सकती हैं. उनके लेख का शीर्षक है ‘द आईडिया ऑफ़ इंडियाः केस ऑफ़ प्लूरेरिटी‘. गोल्डी जार्ज अति-उपेक्षित आदिवासी वर्ग की व्यथा को चित्रित करते हैं (‘आदिवासीज इन फास्सिट रिजीम‘). कविता कृष्णन अपने लेख ‘वर्स्ट एवर अटैक ऑन वीमेन्स आटोनामी एंड राईट्स‘ में महिलाओं पर बढ़ते अत्याचारों की ओर ध्यान दिलाती हैं. मीडिया और न्यायपालिका से जुड़ी सरकार की नीतियां और उनके हमारे देश पर प्रभाव संबंधी लेख चिंता में डालने वाले हैं.

संपादकों ने नागरिक समाज और अभिव्यक्ति की आजादी पर हमलों, मुसलमानों के खिलाफ लक्षित हिंसा, ईसाईयों के विरूद्ध हिंसा, दलितों पर हमलों, गाय के नाम पर लिंचिंग और महिलाओं के साथ दुराचार से संबंधित घटनाओं के आंकड़े भी प्रस्तुत किए हैं. ये आंकड़े आंखे खोलने वाले हैं और यह बताते हैं कि हमारा देश किस ओर जा रहा है.

एक तरह से यह पुस्तक आज के राजनैतिक परिदृष्य का संपूर्ण चित्र प्रस्तुत करती है और यह बताती है कि भाजपा निश्चित रूप से ‘पार्टी विथ ए डिफरेंस‘ है. वह अपने पितृसंगठन आरएसएस द्वारा दिखाए गए हिन्दू राष्ट्रवाद के रास्ते पर चल रही है. अपने चार वर्षों के कार्यकाल में भाजपा सरकार ने ‘भारत की अवधारणा‘ को गंभीर क्षति पहुंचाई है. हमें इस अवधारणा को संरक्षित रखना है. इस पुस्तक को उन लोगों को अवश्य पढ़ना चाहिए जो भारत में मानवाधिकारों और भारतीय संविधान की रक्षा के प्रति प्रतिबद्ध हैं और भारत के धर्मनिरपेक्ष, प्रजातांत्रिक चरित्र को बनाए रखना चाहते हैं.

(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

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