राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला और चुनावी रणनीति
राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला और चुनावी रणनीति
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की हताशा अब नजर आने लगी है. विपक्षी एकता से घबरायी सत्तारूढ़ पार्टी अपने चुनावी पत्ते खोलती जा रही है. सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में असम में नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजन्स (एनआरसी) को अद्यतन करने का काम हाल में पूरा होने के बाद से वो राज्य से अवैध घुसपैठियों को बाहर करने का श्रेय ले रही है.
अवैध घुसपैठियों के मुद्दे ने भाजपा को पूर्वोत्तर राज्यों में पैठ बनाने में सहूलियत दी. और अब, वह देशभर में इसका चुनावी लाभ लेने के फ़िराक में है. इस मामले में उसे जितनी सफलता मिलेगी, उतना ही नस्लीय बंटवारा गहरा होगा और बंगाली राष्ट्रवाद पनपेगा. यही वजह है कि बंगाली राजनीति की दमदार शख्सियत ममता बनर्जी ने एक संभावित गृहयुद्ध की चेतावनी दी है.
हैरानी की बात यह है कि खुद को राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील बताने वाली पार्टी को इस किस्म की चेतावनी की जरुरत पड़ती है. यह बहुत अजीब है कि असम में 40 लाख अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों पर शिकंजा कसने का दावा करने के बाद इसका श्रेय बटोरने के चक्कर में भाजपा राष्ट्रीय सुरक्षा की बात करे.
भाजपा को अपनी इस धारणा के उलट जाने से अचरज हो सकता है कि नस्लीय उप – राष्ट्रीयता में पगे होने के बावजूद भारत को धर्म एक रखेगा.
वह भारतीय उप - महाद्वीप के उस हालिया इतिहास से अंजान बन रही है जिसने 1971 में दूसरा विभाजन और धर्म के आधार पर स्थापित पाकिस्तान को बिखरते देखा. पूर्वी बंगालियों ने पंजाबी शासन और एक गृहयुद्ध के दौरान लादे गये उर्दू का जुआ उतार फेंका.
ममता बनर्जी का राजनीतिक बड़बोलेपन और बेबाकीपन के लिए कोई नया नहीं है. गृहयुद्ध की बात भले ही अतिश्योक्ति हो, लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा की बात बंगाली उप – राष्ट्रीयता को छेड़े बिना भी की जा सकती थी.
बंगाली लोग एक अरब की जनसंख्या का चौथाई हिस्सा हैं और उपमहाद्वीप के एक सघन इलाके में रहते हैं. वे फिलहाल धर्म के आधार पर विभाजित हैं. लेकिन यदि वे एक प्रजातीय राष्ट्र के रूप में एक साथ आना चाहें, तो वे आसानी से आबादी के हिसाब से शीर्ष पांच देशों में शामिल होंगे.
इतिहास को इस बात को दर्ज करने तक ही नहीं सीमित रहना चाहिए कि इस दिशा में पहला कदम नाम बदलकर ‘बांग्ला’ किया जाना था. सोशल मीडिया ने पहले ही बंगाली लोगों को गलत तरीके से बांग्लादेशी के तौर पर चिन्हित करना शुरू कर दिया है. एक बंगाली (हिंदू) ने अफ़सोस जताते हुए राष्ट्रीय राजधानी में उन्हें जानबूझ कर गलत तरीके से एक बांग्लादेशी के तौर पर चिन्हित किये जाने के बारे में लिखा है. दिल दहला देने वाले एक मामले में, राजस्थान में एक बंगाली (मुसलमान) को मौत के घाट उतार दिया गया और उसका खौफनाक वीडियो अपलोड किया गया. बाद में अपराधी को एक उभरते हुए भगवा नायक के रूप में एक धार्मिक जुलूस में फूल – माला के साथ सम्मानित किया गया.
कश्मीरी, नगा और सिख उग्रवाद इस बात का सबूत है कि भारत नस्लीय – राष्ट्रवाद से अनजान नहीं है. लंबे समय से चलने वाला मणिपुरी और असमिया उग्रवाद इस बात का सूचक है कि हिन्दू होने भर से राज्य का खतरनाक चुनौतियों से बचाव नहीं होता. तमिल राष्ट्रवाद काफी समय से भारत के लिए चिंता का विषय रहा है. इसके भद्दा रूप अख्तियार करने से पहले ही इसे रोकने की इच्छा ने अस्सी के दशक में भारत को श्रीलंका में हस्तक्षेप करने पर मजबूर किया.
सरकार में बैठे राष्ट्रीय सुरक्षा की जिम्मेदारी संभालने वाले लोगों को सत्तारूढ़ दल पर इस बात का दबाव डालने की जरुरत है कि वह भारत के बहुलता के मर्म की अनावश्यक परीक्षा न ले. भारतीय सुरक्षा प्रतिष्ठान की एक खामी यह है कि वह परोक्ष रूप से बहुलता को एक दुर्बलता के तौर पर चिन्हित करता है. उसका मानना है कि धर्म की ओर मुड़कर और हिंदुत्व को एक गोंद की तरह इस्तेमाल कर इस कमजोरी से पार पाया जा सकता है. उसके दृष्टिकोण में इस गड़बड़ी की जड़ हिंदुत्व को हिन्दू धर्म मानने की गफलत में है.
राष्ट्रीय सुरक्षा के नायक अजीत डोभाल द्वारा सेवानिवृति के बाद दस सालों तक यूपीए के शासनकाल में हाशिए पर रहने के दौरान दिए गये भाषण (जो यू – ट्यूब पर भरे पड़े हैं) धर्म पर आधारित राजनीति और एक शक्तिशाली शासक के नेतृत्व पर बल देते हैं. ऐसी आकांक्षा व्यक्त करने के बावजूद, इसके लिए माहौल तैयार करने हेतु इस्लामी आंतकवाद को बढ़ा – चढ़ाकर पेश किया गया, अवैध घुसपैठियों के मामले को उपकथा के तौर इस्तेमाल किया गया और हिंदुत्व के कारिंदे सूरत से लेकर मालेगांव तक बम लगाते रहे.
राष्ट्रीय सुरक्षा की दुशाला ओढाकर नरेन्द्र मोदी के रूप में एक विचार को सत्तारूढ़ करा दिया गया. इसकी व्याख्या गृहमंत्री के मामले से होती है. गृहमंत्री ने अविश्वास प्रस्ताव पर संसद में हुई बहस के दौरान कहा कि पिछले चार सालों में देश में आंतकवाद की कोई घटना नहीं हुई.
एनआरसी प्रक्रिया अब समाप्ति की ओर है. वैसे ही अनुच्छेद 35 ए की संवैधानिक वैधता को दी गयी चुनौती का सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किये गये परीक्षण का परिणाम भी आने ही वाला है. कुछ लोगों के लिए यह अनुच्छेद वो धागा है जो कश्मीर को भारत से बांधता है, जबकि कई अन्य लोगों की नजर में यह कश्मीर को भारत से बंधने से रोकता है.
इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस कहानी के मुस्लिम कोण ने केंद्र के हितों को पोषित किया है. कश्मीर मामलों के विशेष वार्ताकार के अन्यथा बेजान से पड़े मिशन में जान डालने का श्रेय अगर किसी पहलू को है तो वह है अनुच्छेद 35 A में उनकी रूचि. इससे भाजपा की भूख बढ़ेगी और उम्मीद है कि आगली बार सत्ता में आने पर वो संविधान के अनुच्छेद 370, में बदलाव करने के अपने घोषणापत्र के वादे का पालन करेगी. अनुच्छेद 370 भारतीय संविधान का एक और ऐसा अनुच्छेद है, जो कुछ की नजर में कश्मीर को भारत का ‘अटूट अंग’ बनाता है और भाजपा के हिसाब से कश्मीर को भारत से अलग और दूर रखता है. मंदिर के मुद्दे की तरह यह भाजपा के लिए एक और तुरुप का पत्ता है, जिसके बारे में उसे कुछ भी बताने की जरूरत नहीं है क्योंकि इसके बारे में सबको पता है.
भाजपा फिलहाल खुद को भगवान राम की मूर्ति बनाने तक सीमित रखकर खुश है. संसद में अविश्वास प्रस्ताव के दौरान बिना किसी नोट्स का सहारा लिए राहुल गांधी द्वारा दिया गया भाषण और मोदी से उनका ऐतिहासिक गला – मिलन उन्हें मोदी के मुकाबले आगे नहीं बढ़ा पाया है. मोदी-शाह की जोड़ी को शायद कहीं और से बड़ी चुनौती मिलती दिखाई देती है. यह जोड़ी अपने संभावित प्रतिद्वंदी भगवा वेशभूषा वाले अजय सिंह बिष्ट उर्फ योगी आदित्यनाथ की छवि को ऊपर उठाना नहीं चाहती, जो एक राज्य के मुखिया के तौर पर निश्चित रूप से मंदिर मामले में किसी भी प्रगति के लिए श्रेय के हक़दार होंगे.
संक्षेप में, भाजपा एक और मोदी लहर पैदा करने की कोशिश में ध्रुवीकरण के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे को पीछे छोड़ सकती है. यह प्राथमिक सुरक्षा चिंता है, जिस पर बात करने की आवश्यकता है. इसे सत्ताधारी पार्टी द्वारा नियुक्त नेतृत्व के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है. ऐसा इसलिए भी क्योंकि हिंदुत्व की विचारधारा में पगा यह नेतृत्व ऐसा मानता है कि भगवा रंग भारत की मजबूती के लिए जरूरी है. और इस दिशा में चालीस लाख लोगों को शिविरों में निरुद्ध करना सही औषधि है.