‘विकास’ दुनिया का सबसे खराब नशा है
दुनिया की लगभग 75 प्रतिशत संपत्ति एक प्रतिशत धनी लोगों के पास
पूरे दुनिया में विकास की होड लगी है। विकास याने भौतिक विकास। घर से लेकर सभी जगह शारीरिक और मानसिक स्तर पर भोगों को भोगने के लिये सारी भौतिक सुविधाऐं। उसे प्राप्त करने के लिये भौतिक साधनों का निर्माण, मशीनों का निर्माण, इंफ्रास्ट्रक्चर का निर्माण, युद्ध सामग्री का निर्माण अनिवार्य बन जाता है। घरेलू इस्तेमाल की चिजे, बडी इमारतें, सडकें, पूलों का निर्माण, सभी प्रकार के परिवहन के साधन आदी का बडे पैमाने पर निर्माण किया जाता है। इसके लिये जमीन, पानी, जंगल, खनिज, सीमेंट, लोहा, कोयला, गौण खनिज, गैस, खनिज तेल, पेट्रोलियम, लकडी, बिजली, स्पेक्ट्रम, वातावरण आदि की जरुरत पडती है और उसे प्राप्त करने के लिये खदानें, बिजली परियोजनाऐं, स्टिल परियोजनाऐं, बडे बांध और अन्य उद्योंगों का निर्माण किया जाता है। इस पूरे प्रक्रिया को औद्योगिक क्रांति नाम दिया गया है।
औद्योगिक उत्पादन प्रक्रिया और उत्पादों का उपयोग दोनों में उर्जा के उपयोग और कोयला, गैस, पेट्रोलियम पदार्थों आदि जीवाश्म ईंधन जलाने से कार्बन डाइ ऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड जैसे ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। यह गैसे सूर्य की उर्जा का शोषण करके पृथ्वी की सतह को गर्म कर देती है। जीवाश्म इंधन के इस्तेमाल से पृथ्वी के अंदर की गर्मी बाहर उंडेली जाती है और जैव पदार्थों का इंधन के रुपमें इस्तेमाल उसकी उर्जा को ताप उर्जा में बदलता है। इससे वैश्विक ताप में वृद्धि और पृथ्वी पर मौसम की दशाओं में याने की जलवायु परिवर्तन होता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह व्यापक तौर पर अपरिवर्तनीय है। इसके कारण पर्यावरण का संतुलन बिगडने से मौसम में बदलाव जैसे चक्री तूफान, भारी वर्षा, बाढ, हिमवर्षा, सुखा, तापमान वृद्धि, बर्फ पिघलना, मरुस्थलीकरण, समुद्री जलस्तर वृद्धि, जैव विविधता का ऱ्हास, कृषि उत्पादकता पर प्रभाव आदी बदलाव हो रहा है। वातावरण में कार्बन प्रतिवर्ष 2 पीपीएम दर से बढ का रहा है। कार्बन स्तर 2013 में 400 पीपीएम से 2017 तक 407 पीपीएम तक बढा है। वैज्ञानिक कहते है कि इसे नही रोका गया तो केवल मनुष्य, सजीव सृष्टी ही नही कुछ दशकों में पृथ्वी नष्ट हो सकती है।
मोटे तौरपर एक यूनिट बीजली के लिये एक किलो कोयला, पांच लिटर पानी की आवश्यकता होती है। एक किलो कोयला जलाने से 400 ग्राम राख, 2700 किलो कैलरी उष्णता और एक किलो ऑक्सीजन खर्च होकर 1.5 किलो कार्बन डाय ऑक्साईड वातावरण में पहुंचता है। भारत में कोल आधारित उद्योगों में हरसाल लगभग 800 दशलक्ष टन कोयला जलाया जाता है। जितना कोयला उतनाही ऑक्सीजन खर्च होकर 1200 दशलक्ष टन कार्बन डाय आक्साइड, 320 दशलक्ष टन राख और 2160 खरब किलो कैलरी उष्णता वातावरण में पहुंचती है। दूसरे उद्योंगो से होनेवाले प्रभावों को जोडा गया तो यह प्रभाव और अधिक बढेगा। औद्योगिकरण के इतने भयंकर परिणाम दिखाई देने के बावजूद भारत उसी होड में शामिल हो गया है। घरेलू भौतिक उपभोगों की वस्तुओं, वाहनों, इंफ्रास्ट्रक्चर और युद्ध औजार आदी का उत्पादन घरेलू इस्तेमाल और निर्यात के लिये तेजी से बढाया जा रहा है। प्रतिव्यक्ति औसत बिजली खपत के आधार पर विकास नापनेवाले देशों का अनुकरण करके भारत में भी औसत बिजली खपत विकसित देशों के बराबरी में पहुंचाने के लिये प्रयास किया जा रहा है।
विकसित देशों ने दो तीन दशक पहले नीति बनाई कि प्रदुषण फैलाने वाले उद्योगों को विकसनशील देशों में स्थानांतरित करना चाहिये। इससे विकसित देशों के उद्योगों के सीधे प्रदूषणकारी प्रभावों से तो मुक्ति मिल सकती है लेकिन राष्ट्र की सीमाऐं ग्रीन हाउस इफेक्ट को नही रोक सकती और फिर यह प्रभाव केवल उत्पादन प्रक्रिया से नही होता, उत्पादित वस्तुओं के उपयोग से भी प्रदूषण और तापमान वृद्धि होती है। विज्ञान ने हमे बताया है कि उर्जा नष्ट नही होती वह रुपांतरित होती है। इसका अर्थ यह भी है कि हर भौतिक वस्तुओं के उपयोग की कीमत के रुपमें हमें तापमान वृद्धि और प्रदूषण की कीमत चुकानी पडती है। प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रुपसे जो जीतने यूनिट बिजली, उर्जा का उपयोग करता है वह उसी अनुपात में पर्यावरण को हानी पहुंचता है।
मनुष्य की प्राथमिक जरुरतों को पूरा करने के लिये एक हदतक विकास की जरुरत समझी जा सकती है। उसे नकारा नही जा सकता। जैसे बीमारियों में निजात पानेके लिये गुणकारी दवाइयों में अल्कोहोल की या भोजन में स्वाद के लिये नमक की जो भूमिका है उसी हद में इसे स्वीकारा जा सकता है। मनुष्य के श्रम बोझ को कम करने के लिये पर्यावरण को नुकसान पहुंचाऐ बिना होनेवाला भौतिक विकास, जो सबके लिये प्राप्त हो सकता है उसे उपयुक्त माना जा सकता है। लेकिन ऐसी सुविधाऐं जो सबको कभी प्राप्त नही हो सकती है, जो ऐक विशिष्ट वर्ग के लिये ही पैदा की जाती है और जिसके लिये दुनिया के अधिकांश लोगों के जीवन के बुनियादी अधिकार छीनकर ही उपलब्ध किया जा सकता है। ऐसा विकास जिसने मानव जाति को रौंदते हुये सबको सर्वनाश के कगार पर खडा कर दिया है, उसे अनुमति नही दी जा सकती।
प्राकृतिक संसाधन और श्रम ही संपत्ति है। लेकिन प्राकृतिक संसाधनों के इतने दोहन और श्रम के शोषण के बावजूद ऐसा नही है कि औद्योगिक क्रांति के कारण दुनिया के सभी लोगों के जीवन में खुशहाली आई है। औद्योगिक क्रांति का तीनसौ साल का इतिहास यह बताता है कि इस दौर में आर्थिक विषमता बढी है और वर्तमान में वह चरम सीमा पर पहुंची है। दुनिया की लगभग 75 प्रतिशत संपत्ति एक प्रतिशत धनी लोगों के पास इकठ्ठा हुई है और 15-20 प्रतिशत उन लोगों को भी उसका लाभ मिला है जो जाने अनजाने में धनी लोगों के लिये समाज को लूटने की प्रक्रिया में शामिल है। लेकिन जिन्होंने सबसे बडी कीमत चुकाई है ऐसे 80 प्रतिशत लोगों को इसका कोई लाभ नही मिला और लाभ मिल भी नही सकता क्योंकि उनके हित एक दूसरे के विरुद्ध खडे है।
आम समाज आज भी भूख मिटाने, रोजगार पाने और जीवन जीने के लिये संघर्ष कर रहा है। प्राकृतिक संसाधन जल, जंगल, जमीन, खनिज, गौण खनिज, पेट्रोलियम आदि से समाज का हक छीनकर जबरदस्ती से उद्योगपतियों के हवाले किया गया। उसके लिये किसान को खेती से बेदखल किया गया, पानी लूटा गया, जंगल काटा गया, खनिज का दोहन किया गया और श्रम का शोषण किया गया। यह सब छीनने के लिये कानून का उपयोग काम नही आया तो अमानवीय तरीकें इस्तेमाल किये गये। अक्सर युद्ध संसाधनों पर अधिकार पाने के लिये ही किये जाते है।
औद्योगिक क्रांति इस मान्यतापर खडी है कि विकास के लिये लोगों के अधिकार छीनने ही पडेंगे जिनका उसपर अधिकार है और उसके लिये अगर उन्हे जबरदस्ती हटाना पडे तो उसमें बुराई नही है। औद्योगिक विकास पर्यावरण को अपरिवर्तनीय क्षती पहुंचाता है। समाज के जीने के साधन छीनकर उन्हे गरीबी का जीवन जीने के लिये मजबूर करता है। भारी उद्योगों में हरसाल लाखों कामगारों को दुर्घटनाओं में जान गंवानी पडती है। एक अध्ययन के अनुसार भारत में बिजली उद्योगों में हरसाल एक लाख से ज्यादा कामगारों को दुर्घटनाओं में जान गंवानी पडती है। इसलिये यह कह सकते है कि औद्योगिक विकास खुनी है क्योंकि वह प्रकृति को रौंदकर और मनुष्य का खून चूसकर किया जाता है।
'विकास' नशा ने पर्यावरण का नाश और पृथ्वी के अस्तित्व का संकट पैदा किया है। जिसे न रोकने से सबका विनाश होगा। इसलिये हमे उसे पाने की होड में शामिल नही होना चाहिये और फिर कुछ लोगों की राक्षसी महात्वाकांशा पूरी करने के लिये अपना बलि क्यों चढाये? हम समझ चुके है कि इस तरह भौतिक सुविधायें सभी को देनी हो तो दुनिया की बडी आबादी को उसके लिये बलि चढाया जायेगा और प्रकृति का जितना विनाश आजतक हुआ है उसके छ सात गुना अधिक विनाश करना होगा और फिर ऐसा नही है कि यह संसाधन असीमित है। हो सकता है कि इसके लिये पृथ्वीके सारे संसाधन कम पड जाये और फिर हम यह भी जानते है कि मनुष्य की राक्षसी महत्वाकांक्षा का कोई अंत नही है। मनुष्य जब यह मान लेता है कि उसके और दुनिया के भोग के लिये हिंसा अनिवार्य है तो हम कह सकते है कि उस मनुष्य ने अपना आत्मनाश कर लिया है। लेकिन जब सारा समाज इसे अनिवार्य मानने लगता है तब मानवता का नाश होता है।