संघ का क्यों भावनात्मक मुद्दों को असली एजेंडा बनाना चाहता है

संघ का क्यों भावनात्मक मुद्दों को असली एजेंडा बनाना चाहता है

Update: 2018-11-22 16:25 GMT

जैसे-जैसे सन् 2019 के आम चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं, विभिन्न राजनैतिक दल अपने-अपने एजेंडों के अनुरूप ऐसे मुद्दे उठा रहे हैं जिनसे उन्हें जनसमर्थन मिलने की उम्मीद है। कुछ पार्टियां ऐसी भी हैं जिन्हें समाज का धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण होने से चुनावों में लाभ मिलने की आशा होती है। इस तरह के मुद्दों को उछालने के प्रयास अब स्पष्ट दिखलाई दे रहे हैं। अगले चुनावों की हलचल शुरू होते ही, यह स्पष्ट समझ में आने लगा है कि अब से लेकर चुनावों तक विभिन्न राजनैतिक दल मुख्यतः, बल्कि केवल, ऐेसे मुद्दे ही उठाएंगे जिनसे उन्हें वोट मिलने की उम्मीद होगी। आरएसएस मुखिया मोहन भागवत ने भाजपा का यह आव्हान किया है कि वह राममंदिर के निर्माण की राह प्रशस्त करने हेतु कानून बनाए। यह इस तथ्य के बावजूद कि यह प्रकरण न्यायालय में विचाराधीन है। संघ प्रमुख के इस इशारे के बाद, संघ से जुड़े लगभग सभी संगठनों ने राममंदिर के मुद्दे को उछालना शुरू कर दिया है। विश्व हिन्दू परिषद ने हाल में संत सम्मेलन आयोजित किया जिसने इस तथ्य पर क्षोभ व्यक्त किया गया कि राम मंदिर का निर्माण अब तक शुरू नहीं हो सका है। लगभग चेतावनी देते हुए संघ के प्रवक्ता ने सरकार से कहा कि अगर वह राममंदिर के निर्माण के लिए ज़रूरी कदम नहीं उठाएगी तो उसे आंदोलन का सामना करना पड़ सकता है।

यह उल्लेखनीय है कि संघ परिवार, अर्थव्यवस्था, विदेशी मामलों और रक्षा संबंधी मसलों पर अपने दल की सरकार की विभिन्न कार्यवाहियों और निर्णयों को देखता आ रहा है परंतु उसने इस संबंध में कभी कोई सवाल नहीं उठाए। अब, जबकि चुनाव नजदीक हैं, उसने अचानक राममंदिर का मुद्दा उछालना शुरू कर दिया है। आज हमारे देश का एक बड़ा तबका आर्थिक बदहाली से जूझ रहा है। समाज में लव जिहाद, भारत माता की जय के नारे आदि जैसे बेमानी मुद्दों पर विभाजक रेखाएं खींच दी गई हैं। जो लोग शासक दल की नीतियों और कार्यक्रमों से असहमत हैं, उन्हें राष्ट्रविरोधी बताया जा रहा है। गौमाता और गोमांस के नाम पर दलितों और मुसलमानों पर हमले हो रहे हैं और उन्हें पीट-पीटकर मार डालने की घटनाएं भी देश के कई भागों में हुईं हैं।

भाजपा सन् 2004 में देश में अच्छे दिन लाने के वायदे के साथ सत्ता में आई थी। हम सबसे यह वायदा किया गया था कि विदेशों में जमा काला धन वापिस लाया जाएगा और इससे हम सभी के खातों में 15-15 लाख रूपये आएंगे। हमारे प्रधानमंत्री ने कहा था कि वे एक सतर्क और कर्तव्यनिष्ठ चौकीदार की भूमिका निभाएंगे और यह सुनिश्चित करेंगे कि देश की संपत्ति को कोई चुरा न पाए और भ्रष्टाचार पर पूर्ण नियंत्रण लगे। यद्यपि दबे-छुपे शब्दों में वे साम्प्रदायिक मुद्दे भी उठाते थे परंतु उनका मुख्य जोर आर्थिक बेहतरी, सुशासन और ऐसी विदेश नीति पर था, जिससे वैश्विक मंचों पर देश का सम्मान बढ़े। उन्होंने यह वायदा किया था कि ज़रूरी वस्तुओं के दाम कम किए जाएंगे और युवाओं के लिए बड़ी संख्या में रोजगार सृजित होंगे। आज साढ़े चार साल बाद हम यह पा रहे हैं कि मंहगाई आसमान छू रही है और पेट्रोल व डीजल के दामों में इतनी अधिक और इतनी तेजी से वृद्धि हुई है जितनी इसके पहले कभी देखी और सुनी नहीं गई थी। बेरोजगारी बढ़ रही है और यह देश के युवाओं को कुंठाग्रस्त बना रही है। सर्जिकल स्ट्राईक के मुद्दे पर सरकार भले ही कितने ढोल पीट ले परंतु तथ्य यह है कि सीमा पर मरने वाले हमारे सैनिकों की संख्या बढ़ी है। जहां तक विदेश नीति का सवाल है, हमारे पड़ोसियों से हमारे संबंध पहले की तुलना में कहीं खराब हैं।

नोटबंदी के कारण देश की अर्थव्यवस्था को अपूर्णनीय क्षति पहुंची है। इस विवेकहीन निर्णय के कारण लगभग 100 लोगों को अपनी जानें गंवानी पड़ीं और सरकारी खजाने का एक बड़ा हिस्सा नए नोटों के मुद्रण में स्वाहा हो गया। यह दावा किया गया था कि नोटबंदी से देश में कालेधन में कमी आएगी। परंतु जिन नोटों का विमुद्रीकरण किया गया था, उनमें से 99.3 प्रतिशत नोट के रिजर्व बैंक में वापस आ जाने से यह दावा खोखला सिद्ध हो गया है। जीएसटी के कारण छोटे उद्योगों और कृषि व संबद्ध गतिविधियों से अपनी रोजी-रोटी कमा रहे लाखों लोगों को आजीविका से हाथ धोना पड़ा है। जीएसटी के लागू होने से छोटे व्यापारियों के समक्ष जो समस्याएं उत्पन्न हो गई थीं वे अभी भी बनी हुई हैं। पेट्रोल और डीजल के दामों में वृद्धि से आम आदमी की आर्थिक रीढ़ टूट गई है। जहां कुछ बड़े व्यापारी और उद्योगपति देश की अरबों की संपत्ति डकारकर विदेश फरार हो गए हैं वहीं उनके वे साथी जो अब भी इस देश में हैं, की संपत्ति में दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ोत्तरी हो रही है। छोटे किसान और कृषि मजदूर बदहाली में हैं। भाजपा सरकार के साढ़े चार साल के शासन की बैलेंस शीट को देखकर भाजपा और आरएसएस को अच्छी तरह से यह समझ में आ गया होगा कि पिछली बार किए गए वायदे दुहराने से इस बार उन्हें कोई लाभ नहीं होने वाला है। काठ की हांडी बार-बार चूल्हे पर नहीं चढ़ सकती। यही कारण है कि भाजपा और उसके साथियों ने समाज को धार्मिक आधार पर ध्रुवीकृत करने का अपना पुराना खेल फिर से शुरू कर दिया है।

हमें यह याद रखना होगा कि राम मंदिर के मुद्दे पर चलाया गया आंदोलन, और विशेषकर अडवाणी की रथयात्रा, ने भाजपा के दिल्ली में गद्दीनशीन होने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। तब से ही राममंदिर भाजपा का पसंदीदा मुद्दा बन गया है। वह हर बार राममंदिर की पूंछ पकड़कर चुनाव की वैतरणी को पार करने की कोशिश करती आ रही है। राममंदिर के निर्माण की राह प्रशस्त करने के लिए संसद द्वारा कानून बनाए जाने की भागवत की मांग को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। भागवत के साथ-साथ संघ परिवार के अन्य सदस्यों ने भी एक अच्छे आर्केस्टा की तरह इसी मुद्दे पर शोर मचाना शुरू कर दिया है। इस पूरी कवायद का एकमात्र लक्ष्य भाजपा सरकार की विफलताओं से जनता का ध्यान हटाना है।

राममंदिर के अभियान के साथ-साथ, देश के शहरों के नाम बदलने का सिलसिला भी शुरू हो गया है। इसका लक्ष्य केवल और केवल मुसलमानों को कठघरे में खड़ा करना है। अनेक भाजपा नेता अलग-अलग स्थानों के नाम बदलने की मांग कर रहे हैं। शायद इन लोगों का प्रेरणास्त्रोत पाकिस्तान है, जहां अधिकांश गैर-इस्लामिक नामों को दफन कर उन्हें इस्लामिक नामों से प्रतिस्थापित कर दिया गया है। कुल मिलाकर, इसका अर्थ यही है कि हमने हमारे देश की मिली-जुली संस्कृति को पूरी तरह भुला देने का निर्णय ले लिया है।

इसके अलावा, सबरीमाला मंदिर में 10-50 वर्ष आयुवर्ग की महिलाओं के प्रवेश को भी मुद्दा बना लिया गया है। पहले तो भाजपा नेताओं ने सबरीमाला मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय का स्वागत किया परंतु अब वे इसके खिलाफ खड़े हो गए हैं। कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा आडवानी की तरह सबरीमाला को ‘बचाने‘ के लिए रथयात्रा निकाल रहे हैं।

इस सबसे यह साफ है कि संघ का असली एजेंडा क्या है। वह केवल भावनात्मक मुद्दों को उछालकर चुनाव जीतना चाहता है ताकि कुबेरपतियों द्वारा देश को लूटने-खसोटने का सिलसिला जारी रह सके। यह एक तरह से हमारे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को पटरी से उतारने का प्रयास है।

Similar News

Justifying The Unjustifiable

How Votes Were Counted

The Damning Of Greta Thunberg