(दिल्ली में डाक्टरी के पेशे से मुक्त होकर आशु कबीर इन दिनों बस्तर में है। बस्तर और बाजार के जीवन के अंतर्विरोधों को उन्होने शिद्दत से महसूस किया है। इस दूसरी किस्त में उनके अन्य अनुभवों को यहां साझा कर रहे हैं। )
एक दूसरे का सहयोग उनके दैनिक जीवन के विभिन क्रियाकलापों में देख सकते हैं । चाहे वो उनके पूरे गावँ (पारा) द्वारा जंगली सुअर का सामुहिक शिकार हो या उसको पकाकर खाना हो , साप्ताहिक बाजार हो या धान की बुवाई ओर कटाई हो, जंगल से सूखी लकड़ी लाना हो या नदी से पानी लाना हो, महुवा बीनना हो या तेंदूपत्ता लाना हो, रात भर कोई उत्सव मनाना हो या महुवा पीना हो हर जगह आपसी सहयोग अहम है।
विवाह में केवल परिचित लोगों को ही नही भुलाया जाता बल्कि अपरिचित लोग अधिक शामिल होते हैं अदिवसियों की परंपरा के अनुसार अपने साप्ताहिक बाजार में जिसके घर शादी है वो गले मे ढोल टांगकर उसे बजाते हुए जाएगा ओर बतायेगा की अमुक पाड़ा में अमुक दिन शादी है जिस जिस ने उसे सुना वो लोग तय समय पर वहां चले जायेंगे और दो रात वहीं रुकेंगे ।इतने लोगों के खाने की व्यवस्था का पूरा काम पूरा पाड़ा मिलकर करता है ।
अगर किसी के घर मौत हो गई तो अगले कई दिनों तक उसके घर के सारे कामकाज पाडा के अन्य लोग करेंगे।हम लोग जूठी संवेदना प्रकट कर रह जाते हैं।
आदिवासियों में प्रेम और सौहार्द का अनूठा संगम देखने को मिलेगा , वनवासी लाभ हानि के आधार पर रिश्ता नही बनाते। वे दिल से रिश्ता बनाते हैं और न ही उनकी रिश्ते से कोई अपेक्षा रहती है ।जब सामने वाले से रिश्ते में अपेक्षा नही रहती तो घृणा और द्वेष का भाव भी मन मे नही आता और जिंदगी खूबसूरत लगती है। हम रिश्ते लाभ -हानि के आधार पर बनाते हैं
हम रिश्तों से अपेक्षा रखते हैं और जब रिश्तों में अपेक्षा का भाव रहेगा तो जब वह पूरी नही होगी तो वो रिश्ता भी समाप्त होगा और ईर्ष्या , द्वेष ओर घृणा का भाव मन में आएगा और इससे जीवन एक बना बनाया ढर्रा सा दिखता है।
अदिवासियों का साप्ताहिक बाजार केवल खरीद-फरोख्त का केंद्र मात्र नही हैं जैसे हमारे लिए बाजार होते हैं बल्कि बाजार उनके लिए अपने सगे संबंधियों से मिलने का दिन ओर स्थान होता है। जहां वह उनके साथ मिलकर उस दिन को उत्सव की तरहं मनाता है। साथ बैठकर महुवा पीते है ।अपने जंगल के उत्पादों का आदान प्रदान करते हैं एक दुसरे का दुख सुख साझा करते हैं ।
जबकि "पढ़े लिखे" लोग समाज को एक नफरत के माहौल में लेकर जा रहे हैं जहां कोई किसी की बात सुनना नही चाहता ।विपरीत मत को हर तरीके से दबा देना चाहते हैं ।
आधुनिकता को लेकर हम तथाकथित सभ्य समाज के लोग यह मानकर चलते है कि जो जितना उपभोग करेगा, इकट्ठा करेगा वो उतना ही खुशहाल, आधुनिक ओर विकसित होगा लेकिन वनवासी संतोष को तवज्जो देते हैं। प्रकृति से उतना ही लेते हैं जितनी उनकी रोजाना की जरूरत है।
इसी वजह से उनके आज तक जंगल बचे हुए हैं, नदी का पानी बचा हुआ है और मिट्टी/जमीन बची हुई है। उनके लिए आधुनिक होने का अर्थ ज्यादा उपभोग नही है बल्कि जीवन को ज्यादा उत्साह के साथ जीना है ।उनके लिए विकास का मतलब खुशी है, संतुष्टि है, न कि प्रकृति का विनाश है।
वो जंगल से सूखी लकड़ी काटते हैं जिससे जंगल आग से बचा रह सके, वो तेंदू पेड़ों की पत्तियां लाते हैं वो भी अधिकांश नीचे गिरी हुई होती है । वे खाने की थाली के रूप में शियडी पेड़ के पतों का प्रयोग करते हैं । गर्मी के दिनों में महुवा बीनने का काम करते हैं। करीब पंद्रह दिन में पूरा पाडा मिलकर एक जंगली सुअर का शिकार करता है और सभी मिलकर खाते हैं। इससे प्रकृति के साथ उनका समयोजन बना रहता है। हमारी तरहं बासी खाने को फेंकते नही है।