झूठ के पंख होते हैं, सच कछुआ है..!

झूठ के पंख होते हैं, सच कछुआ है..!

Update: 2018-03-15 17:26 GMT

आजकल झूठ का जमाना है। अनेक समाचार चैनल दिनभर झूठी खबरें परोसते हैं और अनेक अखबार इन्हीं झूठी खबरों को छाप कर व्यापक सकुर्लेशन में हैं। सोशल मीडिया तो ऐसे खबरों की खान है। अब तो समाचार पत्रों की मुख्य खबर पढ़ कर भी सोचना पड़ता है कि यह सच था या झूठ। सरकारी स्तर पर भी झूठी खबरें फैलाई जाने लगीं हैं। ऐसी एक या दो खबरें नहीं हैं, बल्कि हजारों में होंगी। हमारे प्रधानमंत्री को भी झूठ से परहेज नहीं है। नोटबंदी के समय प्रधानमंत्री मोदी ने एक भाषण में बड़े गर्व से बताया था कि अब तो भीख मांगने वाला भी पेटीएम की मशीन रखने लगा है। दरअसल, यह खबर सोशल मीडिया पर उन दिनों तेजी से फैल रही थी, जो बाद में झूठी साबित हुई। अमेरिका में भी डोनाल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद सरकारी स्तर पर झूठ की बाढ़ आ गयी है।

हाल में एक वैज्ञानिक अध्ययन से भी यह स्पष्ट होता है कि झूठी खबरें जल्दी और ज्यादा लोगों तक पहुंचतीं हैं। यह अध्ययन सोरौश वोसौघी की अगुवाई में वैज्ञानिकों के एक दल ने किया है। सोरौश वोसौघी एक डाटा साइंटिस्ट हैं और कैंब्रिज स्थित मैसाचुसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में कार्यरत हैं। 2013 में अमेरिका के बोस्टन मैराथन के दौरान बम फेंके गए थे, जिसमें अनेक लोग घायल हुए थे और कुछ मारे भी गए थे। उस दौरान सोरौश वोसौघी उसी संस्थान में शोध कर रहे थे और सोशल मीडिया, खासतौर पर ट्विटर पर इससे संबंधित हरेक समाचार पर ध्यान दे रहे थे। कुछ दिनों बाद ही उनके सामने यह साफ हो गया कि लोग सही खबरों से अधिक झूठी खबरों को फॉलो कर रहे हैं और ऐसी खबरें तेजी से फैलती हैं।

सोरौश वोसौघी के दल ने इसी विषय को आगे बढ़ाने का निश्चय किया। ट्विटर की शुरुआत 2006 में हुई थी। इस दल ने ट्विटर पर 2006 से 2017 के बीच मैसेज के जरिए भेजे गए 1,26,000 समाचारों का चयन किया, जिन्हें 30 लाख लोगों ने कुल 45 लाख बार शेयर किया था। इन सभी समाचारों की छह स्वतंत्र संस्थानों द्वारा सत्यता की जांच कराई गयी। फिर सही खबरों और झूठी खबरों को अलग-अलग किया गया।

अध्ययन दल ने पाया कि सही खबरें औसतन 1000 लोगों तक पहुंच पाती हैं, जबकि पूरी तरीके से झूठी कुछ खबरें तो 10,000 लोगों तक भी पहुंच जातीं हैं। झूठी खबरें औसतन 1500 लोगों तक सही खबरों की तुलना में छह गुना तेजी से पहुचतीं हैं। सोरौश वोसौघी ने सोचा कि झूठी खबरें शायद बौट्स के कारण अधिक फैलती हैं। बौट्स ऑटोमेटेड सिस्टम होता है जो ऑनलाइन इन्फॉर्मेशन को शेयर कर सकता है। लेकिन विस्तृत अध्ययन से स्पष्ट हुआ कि बौट्स झूठ और सच की पहचान नहीं करता और दोनों तरह की खबरों को लगभग बराबर-बराबर शेयर करता है। वैसे भी बौट्स ट्विटर की तुलना में बहुत बाद में अस्तित्व में आया है।

इसके बाद सवाल आया कि हो सकता है झूठी खबरें भेजने वालों के फॉलोअर्स अधिक हों। लेकिन पाया गया कि वास्तव में ऐसे लोगों के फॉलोअर्स की संख्या सही खबर वालों की तुलना में कम थी। फिर ऐसा क्या है जो झूठी खबरों को अधिक व्यापक बना देता है। अध्ययन दल ने गहन अध्ययन के बाद देखा कि झूठी खबरों में नयापन होता है। इन्हें अच्छी तरह से आक्रामक बना कर पेश किया जाता है। इसे लोग आश्चर्य और कौतूहल के साथ देखते हैं। आमतौर पर ऐसी खबरों को लोगों की धारणाओं और संवेदनाओं से जोड़ दिया जाता है। इसीलिए यह ज्यादा लोगों को यह प्रभावित करती है और लोग इसे ज्यादा शेयर करते हैं।

मोबाइल, स्मार्टफोन, ट्विटर, फेसबुक आदि तो कुछ साल पहले ही आए हैं। लेकिन हमारे देश में तो झूठ इन सबके बिना भी बिजली की गति से पूरे देश में फैल जाता है। गणेश के दूध पीने का किस्सा सबको याद होगा। दरअसल, आज के दौर में झूठ और जुमला- दोनों पर्यायवाची बन गए हैं। हजारों किसानों का आंदोलन शायद ही किसी को प्रभावित करता हो, लेकिन श्रीदेवी की मौत पर सच्ची से अधिक झूठी खबरें व्यापक पैमाने पर सोशल मीडिया समेत सभी प्रकार के मीडिया में जगह बनाती रहीं। इस अध्ययन से इतना तो सीखा ही जा सकता है कि बहुत तेजी से फैलती खबरों का सत्यापन आवश्यक है।
 

Similar News

The City That Reads

Siddaramaiah Fights It Out

Mayawati’s Sad Elephant

A Warrior No More

A Taste Of Lucknowi Kitchens