प्रदूषित ही रहेगी गंगा

प्रदूषित ही रहेगी गंगा

Update: 2018-04-02 12:43 GMT

अब तो गंगा पर चर्चा भी बंद हो गयी है, पर गंगा साफ़ नहीं हुई है. वर्ष २०१७ में उत्तर प्रदेश और बिहार के अधिकतर हिस्सों में गंगा नहाने लायक भी नहीं थी. उत्तर प्रदेश में गंगा का ६७ प्रतिशत हिस्सा और बिहार में ७८ प्रतिशत हिस्सा प्रदूषित था. इलाहाबाद के संगम पर फीकल कॉलिफोर्म की संख्या निर्धारित सीमा से ५ से १३ गुना अधिक पाई गयी. फीकल कॉलिफोर्म बैक्टीरिया का समूह होता है और इसकी पानी में उपस्थिति बताती है कि पानी में गन्दा घरेलू मलजल और शौच का पानी मिल रहा है. इस बैक्टीरिया समूह के साथ ही अनेक हानिकारक बैक्टीरिया भी सम्मिलित रहते हैं. कानपुर के जाजमऊ में फीकल कॉलिफोर्म की संख्या सामान्य से १० से २३ गुना और बनारस के मालवीय ब्रिज के नीचे ९ से २० गुना अधिक पाया गया. कानपुर, बनारस और इलाहाबाद में गंगा बेहद प्रदूषित है.

उमा भारती से छीनकर गंगा सफाई का काम नितिन गडकरी को दिया गया था. उमा भारती लगातार बताती रहीं, २०१६ तक गंगा साफ़ हो जायेगी, २०१७ तक गंगा और साफ़ हो जायेगी और २०१८ तक तो निर्मल और अविरल भी होगी. उमा जी कहती रहीं और गंगा पहले से भी प्रदूषित होती चली गयी. अंत में उन्होंने गंगा के साफ़ न होने का सारा दोष ग्रीन ट्रिब्यूनल और अन्य न्यायालयों पर दाल दिया. नितिन गडकरी ने भी आते ही कहा, एक साल में गंगा साफ़ हो जायेगी और फिर कुछ दिनों के भीतर ही कहा, गंगा की सफाई का परिणाम तीन महीनों में ही आ जायेगा.

पर, यकीन मानिए गंगा वैसी ही प्रदूषित रहने वाली है, जैसी अब है. वर्त्तमान सरकार ने शुरू से ही गंगा सफाई का काम एक दिखावा जैसा किया है. गंगा सफाई अभियान “नमामि गंगे” हो गया और मोदी जी को बनारस में गंगा ने बार-बार बुलाया. गंगा सफाई का केंद्र तो वैसे भी बनारस नहीं होना चाहिए क्यों कि न तो बनारस गंगा के शुरू का शहर है और न ही यहाँ गंगा सबसे प्रदूषित है. बनारस में भी जो काम शुरू किये गए वे नदी को साफ़ करने से कोसों दूर थे. बड़े और सुन्दर घात बनाए गए, इनपर आरती का पैमाना बड़ा होता चला गया और अंत में नदी उपेक्षित होती गयी. घाट बनाने के क्रम में गंगा और प्रदूषित होती गयी क्यों कि मशीनों के उपयोग से जो मिट्टी के टीले हटाये गए उनका बड़ा भाग नदी में ही मिल गया. सुबह और शाम आरती के पहले घाटों को धोया जाता है. इसके लिए पानी वाले पम्पों का इस्तेमाल होता है, जो गंगा से सीधे पानी खींचते हैं और फिर घाटों को धोने के बाद सारा गन्दा पानी नदी में ही मिल जाता है. पम्पों के सहारे सीधे नदी से पानी खींचना गैर-कानूनी भी है.

गडकरी जी के अनुसार अधिकतर मॉल-जल उपचारण संयंत्रों को स्थापित करने का काम शुरू हो चुका है और जल्दी ही पूरा कर लिया जाएगा. यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि गंगा जैसी को साफ़ करना एक सामाजिक विषय है. यदि सारा तकनीकी और अभियन्त्रिक ज्ञान लगा भी दें तब भी सामाजिक समस्याओं को दूर किया बिना नदियों को साफ़ नहीं किया जा सकता. बनारस में बहुत बड़ी संख्या में लोग गंगा में नहाते हैं, ऐसा नहीं है सारे लोग श्रद्धा और भक्ति के कारण गंगा में डुबकी लगाते हैं. बनारस के बड़े हिस्से में जल आपूर्ति का पर्याप्त तंत्र नहीं है, इसीलिए बड़ी आबादी का गंगा में नहाना, कपडे साफ़ करना, मवेशियों को नहलाना इत्यादि एक मजबूरी है.

शहरों के घरों में पानी का उपयोग होता है और वही पानी अपने साथ सारी गन्दगी समेटे बाहर नालियों में आता है. कई जगह नालियाँ नहीं भी होतीं हैं, तब गंदा पानी आसपास की जमीन या तालाबों में फैलता है. नालियों और नालों के तंत्र को मलजल तंत्र कहा जाता है. आदर्श व्यवस्था में शहर के हरेक घर, हरेक व्यावसाईक प्रतिष्ठान और ओद्योगिक इकाइयां इस तंत्र से जुड़े होते हैं. ऐसी व्यवस्था तो हमारे शहरों के लिए कभी सोची भी नहीं जाती. सारे शहर के गंदे पानी को एक जगह एकत्रित कर उसे उपचारित किया जा सकता है, और फिर साफ़ पानी को उपयोग में लाया जा सकता है.

बनारस समेत हरेक शहर में मलजल तंत्र जर्जर अवस्था में हैं. किसी भी शहर की पूरी आबादी इस तंत्र से नहीं जुडी है इसीलिए कुल गंदे पानी की मात्र भी किसी को नहीं पता होती. गंदे पानी का इधर-उधर खाली जमीन पर फैलना आम बात है. ऐसी अवस्था में मलजल उपचारण संयंत्र एक खर्चीला दिखावा होकर रह जाते है. कई शहरों में मलजल उपचारण संयत्र स्थापित कर दिए जाते हैं, पर उन तक गन्दा पानी पंहुचने में कई साल लग जाते हैं. दूसरी जगहों पर उपचारण संयत्र की स्थापित क्षमता से अधिक गंदा पानी पंहुचता है. हमारे देश में जो उपचारण संयंत्र स्थापित किये जाते हैं उनमें बिजली की अत्यधिक खपत होती है और लगातार बिजली की जरूरत भी. इसी कारण करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद भी जल संसाधनों के प्रदूषण में कमी नहीं आती.

गंगा या किसी भी नदी के प्रदूषण के मसले पर हम शुरू से लापरवाह रहे हैं पर नामामे गंगे के बाद से लापरवाही और बढ़ गयी है. हम अपनी नदियों को समझते नहीं और दूसरे देशों से इसे साफ़ करने के लिए मदद मांगने लगते है.

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