पर्यावरण की सुरक्षा के पैसे को भी नहीं बख्श रहें, अगली सुनवाई 9 मई को
पर्यावरण की सुरक्षा के पैसे को भी नहीं बख्श रहें, अगली सुनवाई 9 मई को
पर्यावरण की सुरक्षा और लोगों के कल्याण के लिए एकत्रित पैसे को दीगर कामों में लगाए जाने से अपनी नाराजगी जताते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में सरकार से साफ लहजे में कहा, ‘‘कार्यपालिका हमें मूर्ख बना रही है।’’ न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की पीठ ने वायु प्रदूषण और पर्यावरण संरक्षण से जुड़े मामलों की सुनवाई के दौरान स्पष्ट तौर पर सरकार की कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि कैम्पा फंड का पैसा पर्यावरण संरक्षण और जनउद्देश्य में खर्च होना था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अदालत ने कार्यपालिका पर यकीन किया। कमेटियां बनाईं, उन्हें शक्तियां दीं, फंड एकत्रित हुआ, लेकिन अधिकारी कुछ करना ही नहीं चाहते। पैसा दूसरे मद में खर्च हो रहा है। जब इस मामले में अदालत कुछ आदेश या दिशा-निर्देश देती है, तो कहा जाता है कि न्यायपालिका सीमा लांघ रही है और अतिसक्रियता दिखा रही है। शीर्ष अदालत की यह नाराजगी वाजिब भी है। एक तो हमारी कार्यपालिका संविधान और नियम-कानून के मुताबिक अपनी जिम्मेदारियों का ठीक ढंग से निर्वहन नहीं करती, तो दूसरी ओर जब अदालत, उसे उसकी जिम्मेदारियों से अवगत कराती है, तो न्यायपालिका पर तंज कसा जाता है कि वह सीमा लांघ रही है और अति सक्रियता दिखा रही है। जबकि ऐसी कोई बात नहीं। न्यायपालिका वही कार्य करती है, जिसकी जिम्मेदारी उसे संविधान ने सौंपी है।
सर्वोच्च न्यायालय साल 1985 में दायर की गई पर्यावरणविद एमसी मेहता की जनहित याचिका की सुनवाई कर रहा था। सुनवाई के दौरान जब बहस आगे बढ़ी, तब पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की ओर से अतिरिक्त सालिसीटर जनरल एएनएस नाडकर्णी ने सीधे जवाब देने के बजाय पीठ से कहा कि अदालत को केन्द्र सरकार को बताना चाहिए कि इस कोष का कैसे और कहां इस्तेमाल होना चाहिए और इसका उपयोग कहां नहीं किया जा सकता ? इस दलील पर पीठ और नाराज हुई और कहा कि यह अदालत का काम नहीं है। अदालत कोई पुलिस नहीं है, जो कि यह कहकर पकड़े कि तुमने नियम तोड़ा है। स्थिति बहुत निराशाजनक है। एक तरफ अदालत से कहा जाता है कि वह बताए कि क्या किया जाए और जब अदालत कुछ कहती है, तो कहा जाता है कि अदालत सीमा लांघ रही है। पीठ ने पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के सचिव को स्पष्ट निर्देश दिया कि इस साल 31 मार्च की स्थिति के मुताबिक सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों का आंकड़ा एकत्र करें, जिसमें यह बताया जाए कि इस मद में कुल कितना फंड एकत्रित हुआ है और उसका किस मद में कैसे उपयोग किया जाएगा। अदालत खास तौर से ओडिशा और मेघालय राज्य के हलफनामे देखकर नाराज थी। ओडिशा ने अपने हलफनामें में कहा था कि कैम्पा फंड में एकत्रित रकम से सड़कें बनीं, इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार हुआ, एक करोड़ बस स्टैंड पर खर्च हुए। कालेज की साइंस लैब बनी। इस पर अदालत ने नाराजगी जताते हुए कहा कि ये काम तो सरकार और स्थानीय निकायों का है, जिसके लिए अलग से बजट होता है। पर्यावरण संरक्षण और जन कल्याण का पैसा सरकार इस पर कैसे खर्च कर सकती है ? बहरहाल मामले में अब अगली सुनवाई 9 मई को होगी, जिसमें राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के हलफनामों से मालूम चलेगा कि कैंपा फंड का कितना सदुपयोग हुआ और कितना दुरुपयोग ?
विकास कार्यों के नाम पर देश भर में हरे पेड़ों का कटान लगातार किया जाता है। इसकी प्रतिपूर्ति में सर्वोच्च न्यायालय की ओर से दो दशक पहले, साल 2009 में ‘कंपन्सेटरी अफॉरेस्टेशन फंड्स मैनेजमेंट एंड प्लानिंग अथॉरिटी (कैम्पा) फंड बनाया था। यह फंड पर्यावरण संरक्षण के लिए इकट्ठा किया जाता है। कैंपा फंड का यह पैसा केंद्र के पास जमा होता है। केंद्र, समय-समय पर यह राशि मांग के अनुरूप राज्य सरकार को जारी करता रहता है। इस धनराशि के खर्च के लिए कोई ठोस गाइड लाइन न होने की वजह से बीते सालों में इस फंड का बड़े पैमाने पर गैर-वानिकी कार्यों में उपयोग किया जाता रहा है। जबकि ‘कैंपा’ नियमावली के मुताबिक इस निधि की 80 फीसदी रकम का इस्तेमाल वनों एवं वन्य प्राणियों के विकास में होगा, तो बाकी 20 फीसदी रकम का इस्तेमाल वनोत्तर क्षेत्रों में किया जा सकता है। यानी कैंपा की धनराशि प्रमुख रूप से क्षतिपूरक वनीकरण के लिए खर्च की जाना चाहिए, लेकिन ज्यादातर राज्य इसे अलग मद में खर्च कर रहे हैं। देश की विभिन्न राज्य सरकारों पर ‘कैंपा फंड’ के दुरुपयोग के गंभीर आरोप लगते रहे हैं। कैंपा कोष के दुरुपयोग की कहानी नियम विरुद्ध निर्माण कार्यों से लेकर आलीशान वाहनों की खरीद, इको टूरिज्म एक्टिविटी, संरक्षित वनों को काटने, वनविभाग के संविदाकर्मियों को वेतन बांटने और आला अधिकारियों के सैर सपाटे तक फैली हुई है। मसलन उत्तराखंड में 32 करोड़ रुपये से ‘राजाजी नेशनल पार्क टाइगर रिजर्व’ में अलग-अलग स्थानों पर दीवारें बना दी गईं। जबकि दीवार बनाने के लिए कैंपा के मद का प्रावधान नहीं है। यही नहीं कैंपा धनराशि से भवन निर्माण और गेस्ट हाउस बना दिए गए। इसके साथ ही भवनों की मरम्मत करा दी गई। कमोबेश यही कहानी प्राकृतिक तौर पर समृद्ध बाकी राज्यों की भी है। कुछ राज्यों ने कैंपा धनराशि से वाहनों की खरीदारी कर ली, तो कुछ ने वन्य जीवों से बचाव के लिए फेंसिंग और दीवार बनवा डालीं। इसके अलावा भी राज्य के दूसरे विभिन्न प्रोजेक्टों में ‘कैंपा’ से धनराशि का प्रावधान कर दिया गया। जाहिर है कि राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों ने सीधे-सीधे ‘कैंपा’ के नियमों को दरकिनार करके अपने यहां नियम विरुद्ध कार्यवाहियां कीं। विडम्बना की बात तो यह है कि कई मामलों में ‘कैंपा’ कोष की निगरानी के लिए केंद्रीय स्तर पर गठित की गई ‘सेंट्रल एंपावर्मेंट कमेटी’ को भी इसके दुरुपयोग की पूरी जानकारी थी, बावजूद इसके उसने दोषियों पर कोई कार्यवाही नहीं की। कैग की रिपोर्टों में भी एक बार नहीं बल्कि कई मर्तबा कैंपा कोष के दुरुपयोग की बातें उजागर हुईं हैं, लेकिन संबंधित सरकारें दोषियों पर कोई कार्यवाही नहीं करतीं। दोषियों पर यदि समय रहते कार्यवाहियां होतीं, तो कैंपा कोष का आइंदा दुरुपयोग नहीं होता।
कैंपा यानी ‘वनीकरण क्षतिपूर्ति कोष प्रबंधन और नियोजन प्राधिकरण’ का जब गठन हुआ, तो उस वक्त इस कोष में करीब 11 हजार 700 करोड़ रुपए थे। फिलहाल इस तरह के सभी कोषों में करीब एक लाख करोड़ रुपए जमा हें। अफसोस ! इतनी बड़ी रकम का सही तरह से इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है। अदालतों के दिशा-निर्देश और तमाम आदेशों के बाद भी कैंपा फंड के दुरुपयोग होने की घटनाओं में कोई कमी नहीं आई है। कैंपा कोष की निगरानी के लिए गठित ‘सेंट्रल एंपावर्मेंट कमेटी’ ने भी अपनी जिम्मेदारियों का सही तरह से निर्वहन नहीं किया। सच बात तो यह है कि जिन राज्यों में कैंपा कोष के इस्तेमाल में गड़बड़ियां पाई गईं, उन राज्यों में भी अब तक कैंपा के कार्यों की जांच, ग्राउंड लेबल पर नहीं हो पाई है। केवल कागजों में ही इंटरनल आडिट किया गया है। ऐसे में अगर ग्राउंड लेबल पर कार्यों की जांच की जाएगी, तो पूरी तस्वीर उभरकर सामने आ पाएगी। किस तरह से कैंपा के बजट को खपाया जा रहा है या फिर उसका ठीक से इस्तेमाल किया जा रहा है ? कैंपा कोष के गठन के बाद से एक नहीं, बल्कि कई राज्यों में कैंपा के कार्यों में गड़बडियां सामने आ चुकी हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड समेत अन्य राज्यों में थर्ड पार्टी जांच में खामियां सामने आई थीं। केन्द्र सरकार यदि अब भी कैंपा कोष का दुरुपयोग रोकना चाहती है और पर्यावरण के प्रति वाकई गंभीर है, तो उसे किसी स्वतंत्र एजेंसी से इस तरह के मामलों की जांच करानी चाहिए। जांच के बाद जो भी दोषी निकले, उसे सजा के अलावा उससे सारे धन की वसूली की जाए। वनों की गुणवत्ता का संरक्षण केवल वनवासियों के लिये ही नहीं है, बल्कि पर्यावरण की व्यापक आवश्यकता है। आज के वक्त की पहली जरूरत है। कैम्पा कोष का जिस मकसद के लिए गठन किया गया था, यदि उस मकसद के लिए ये रकम सही तरह से इस्तेमाल होगी, तो निश्चित तौर पर विकास और पर्यावरण एक साथ कदमताल मिलाएंगे। सर्वोच्च न्यायालय की चिंताएं भी यही हैं।