गूगल गुरु के युग में फिल्म हिचकी का महत्व

अधिकांश वेतन के मोह में शिक्षक बने बैठें हैं,अधिकांश डिग्री धारक बनने के लिये विद्यार्थी

Update: 2018-09-05 12:15 GMT

अभी कुछ दिन पूर्व ऑल इंडिया रेडियो में ‘प्रातः समाचार’ में एक खबर आयी थी, जिसमें यह बताया गया कि सावित्री बाई फूले और महात्मा फूले को मरणोपरांत भारत रत्न देने की सिफारिश की गयी है। यह खबर सुनकर मेरे चेहरे पर चमक सी आ गयी और जहन में एकाएक यह संचार हुआ कि चलो देर से ही सही लोगों ने इनके अमिट योगदान को थोड़ा तवज्जों तो दिया। फूले दंपति ने समाज में शिक्षा की जो अलख जगायी और महिलाओं, पिछड़ों और वंचितों के बीच में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिये जिस तरीके के चुनौतीपूर्ण कदम उठाकर आजीवन संघर्ष किया, उसे भूलना बेईमानी होगी। उन्होंने शिक्षकों के दायित्व का जो बोध कराया, वह सभी के लिये मिसाल है।

एक शिक्षक होने के नाते यह बात हर रोज कचोटती है कि विद्यार्थियों की निर्भरता जिस प्रकार से गुगल जैसे तकनीकों पर निर्भर होती जा रही है, सामाजिक, नैतिक और शैक्षणिक मूल्यों का पतन तो हो ही रहा है साथ ही अन्य तरह की जितनी हानि हो रही है उसकी भरपायी नामुमकिन है। गूगल के कारण विद्यार्थियों, खासतौर पर अपरिपक्व विद्यार्थियों के सामने शिक्षकों का महत्व निरंतर कम होता जा रहा है। किंतु विद्यार्थी ये बात भूल रहे हैं कि शिक्षकों का स्थान दुनिया में कोई नहीं ले सकता। अभी हाल में ही एक फिल्म आयी थी ’हिचकी’ जो शिक्षकों के सामाजिक महत्व के इर्द-गिर्द घूमता हुआ प्रतीत होता है।

ऐसा अक्सर कहा जाता है कि एक आम शिक्षक पढ़ाता है, अच्छा शिक्षक समझाता है और बहुत अच्छा शिक्षक उसे करके दिखाता है और जो आम से खास अथवा अच्छा शिक्षक होता है, वह प्रेरणा अथवा मार्गदर्शक बन जाते हैं। फिल्म ’हिचकी’ ऐसे ही शिक्षक की कहानी से प्रेरित है। इस फिल्म की नैना माथुर (रानी मुखर्जी) की जिंदगी की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। नैना माथुर, टॉरेट सिंड्रोम नामक एक बीमारी से ग्रस्त रहती है, जिस वजह से उसे बार-बार हिचकी आती है। इसी वजह से उसे बचपन में 12 स्कूल बदलने पड़ते हैं। लगभग 5 वर्षों में 18 स्कूलों से रिजेक्ट होने के बाद भी वह शिक्षक बनना ही चाहती है। निरंतर असफलताओं के बाद आखिरकार नैना को अपने ही पढ़े स्कूल में शिक्षा के अधिकार के तहत दाखिल हुए झुग्गी बस्ती के विद्यार्थियों को पढ़ाने का मौका मिल जाता है। शुरुआत में नैना को इन विद्यार्थियों को पढ़ाने में काफी मशक्कत करती पड़ती है। ये विद्यार्थी नैना को परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ते ताकि नैना उन्हें पढ़ाना छोड़ दे लेकिन बच्चे असफल हो जाते हैं।

इस फिल्म में रानी मुखर्जी के किरदार के बारे में बताया गया है कि यह अमेरिकन मोटिवेशनल स्पीकर और टीचर ब्रैड कोहेन के जीवन से प्रेरित है, जो कि टॉरेट सिंड्रोम के चलते तमाम परेशानियां झेलकर भी कामयाब टीचर बने। उन्होंने अपनी लाइफ पर एक किताब लिखी, जिस पर 2008 में फ्रंट ऑफ द क्लास नाम से अमेरिकन फिल्म भी आई। ’हिचकी’ इसी फिल्म पर आधारित है।

इस फिल्म में नैना माथुर की जब इंट्री स्कूल में होती है, तब तमाम कर्मचारी, अधिकारी बहुत ही अचंभित नजरों से उसे देखते हैं। उधर विद्यार्थी भी यह चुनौती देने की तैयारी में रहते हैं कि देखते हैं यह शिक्षक हमें कैसे झेलती और यहां कैसे टिकती है?

किंतु कहते हैं कि जब इरादे बुलंद हो तो सबकुछ संभव हो जाता है। नैना माथुर का किरदार भी इसी बात को साबित करता चरितार्थ होता है। फिल्म में नैना बच्चों का भविष्य बनाने के लिये एड़ी-चोटी एक कर देती है। उन्हें हर संभव सहायता प्रदान करने की कोशिश करती है। एक बार स्कूल में पैरेंट़स मीटिंग होती है, जहां अमीर बच्चों के मां-बाप तो पहुंच जाते हैं लेकिन गरीब अथवा झुग्गी बस्ती के बच्चों के मां-बाप नहीं पहुंच पाते हैं। फिर इन बच्चों की मानसिकता और स्थिति को समझने के लिए नैना उनके घर तक पहुँच जाती है, जहां वे रहते हैं। यहां वे पाती है कि इन बच्चों का गुजारा बहुत ही मुश्किल से हो पाता है। उनके मां-बाप दिनभर रोजी-मजदूरी करते हैं, तब जाकर उनके घर में चूल्हा जल पाता है और अगर वे पैरेंट्स मीटिंग में आते तो उनके घर चूल्हा नहीं जल पाता।

अब बच्चों की मानसिकता और स्थिति को समझकर नैना और भी जोश और उमंग के साथ बच्चों के साथ जुट जाती है और बच्चे भी अब नैना के उद्देश्य में उसका साथ देते हैं। अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिये नैना सैद्धांतिक पढ़ाई पर कम और व्यावहारिक पढ़ाई पर ज्यादा जोर देती है, जिसके कारण बच्चे किसी भी चीज को बहुत ही आसानी से समझ लेते हैं और उन अमीर बच्चों को भी पछाड़ देते हैं, जिनके साथ खड़े रहना भी इन गरीब बच्चों के लिये असंभव था, जिसकी हकदार नैना माथुर जैसी शिक्षक होती है।

फिल्म में नैना माथुर का यह किरदार शिक्षकों के सामाजिक दायित्व को तो पूरजोर तरीके से रखता ही है, साथ ही गूगल के युग में भी शिक्षकों के महत्व को समझाने की कोशिश करता है। यह फिल्म शिक्षक और विद्यार्थी दोनों को उनके दायित्वों का बोध कराती प्रतीत होती है। एक तरफ जहां अधिकांश शिक्षक वेतन के मोह में शिक्षक बने बैठें हैं, वहीं दूसरी ओर अधिकांश विद्यार्थी डिग्री धारक बनने के लिये विद्यार्थी बने बैठे हैं। इन दोनों ही स्थितियों में हम अपने दायित्वों का सही तरीके से निर्वहन करने में असमर्थ होते हैं।

अतः शिक्षक और विद्यार्थी दोनों का यह दायित्व है कि वे इस बात को समझे कि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे के अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती। गूगल युग में भी विद्यार्थियों को यह स्वीकार करना होगा कि प्रेरणा और कुछ करने का रूझान सिर्फ शिक्षक पैदा कर सकते हैं, सही-गलत के बीच के फासले को सिर्फ शिक्षक बता सकते हैं, गूगल नहीं।

सहायक प्राध्यापक,गुरू घासीदास केंद्रीय विश्वविद्यालय

Similar News

The City That Reads

Siddaramaiah Fights It Out

Mayawati’s Sad Elephant

A Warrior No More

A Taste Of Lucknowi Kitchens