वो यौवन के दिन और नये साल का स्वागत ...
वो यौवन के दिन और नये साल का स्वागत ...
हम बी.ए. पास करके एम.ए.में आ गये थे ।दिल्ली के युसुफ सराय इलाके में रहते थे ।साहित्य के विद्यार्थी थे तो कुछ सनकी कुछ जुनूनी भी थे ।हर साहित्य का विद्यार्थी ऐसा ही हो जरूरी नहीं ।पर मैं और मेरा दोस्त जो बाद में दै. हिंदुस्तान में लग गया था ,हम दोनों ही कुछ भी अलग किस्म के थे ।वह कविता लिखता था और मैं कविता कम और गद्य ज्यादा ।लंगोटिया यार थे ।तो हम नये साल को कैसे मनाते थे ।
इकत्तीस दिसंबर की रात को सबकी तरह हम भी लाजपत नगर में मेरी बहन के यहां दूरदर्शन से चिपक जाते थे ।उन दिनों यानी सत्तर के दशक के अंत और अस्सी के दशक की शुरुआत में दूरदर्शन के अलावा कोई और चैनल होता ही नहीं था ।प्रतिमा पुरी, सलमा सुलतान जैसी टी.वी.एंकर भाती थीं ।और भी कई लोग होते थे ।तो हम रात बारह बजे तक टी.वी. देखने के बाद हाड़ तोड़ सर्दी में दिल्ली की सड़कों पर पैदल निकलते थे ।धीरे धीरे जब दिल्ली सुनसान होती जाती थी सन्नाटे में तब हम सबसे पहले गुलमोहर पार्क में डॉ.हरिवंश राय बच्चन के घर 'सोपान' की ओर बढ़ते थे ।नव वर्ष का संदेश एक लिफाफे में रख कर बच्चन जी के लैटर बॉक्स में गिरा आते थे ।उसके बाद टहलते कुछ गुनगुनाते ,कुछ गुफ्तगू करते हमारा अगला मुकाम और मकान होता था हौज़ खास में कवियत्री अमृता प्रीतम का ।अमृता जी के नाम नव वर्ष का संदेश छोड़ कर साहित्य चर्चाओं में कभी नामवर तो कभी डॉ.राम विलास शर्मा तो कभी निर्मल वर्मा जैसे लोगों पर आपस में टकराते चलते थे ।हमें हैरानी यह थी कि शर्मा जी और वर्मा जी ने अपनी वामपंथी और समाजवादी ज़मीन क्यों छोड़ दी ।कुछ इसी तरह की बातों में उलझे आगे बढ़ कर पहुंचते थे सफदरजंग एन्क्लेव में जहां हिमाशु जोशी रहते थे ।तब तक शायद सुबह के तीनेक बज चुके होते थे ।हमें नये साल का सूरज देखना है और वह सूरज हम आर.के.पुरम के पास अयप्पा मंदिर के टॉप से देखा करते थे ।यह हमारा कई साल तक का कार्यक्रम चलता रहा ।मेरा दोस्त श्याम सिंह सुशील आज भी कविताएं लिखता है ।और अब उसका काम बच्चों के साहित्य पर ज्यादा है ।अयप्पा मंदिर से देखा नये साल का सूरज हमारे साल भर का सूरज होता था ।यह यौवन की एक सनक थी अच्छी या बुरी, छोटे से जीवन में क्या फर्क पड़ता है इससे ।इसी बहाने दिल्ली रात की बाहों में समाते देखते थे ।
ऐसे ही किसी रात पहली जनवरी की, कोई एक बजे का समय रहा होगा ।युसुफ सराय के बस स्टॉप के पास हम चाय पी रहे थे ।और कोई नहीं था ।दिल्ली और बड़े शहरों में कई दुकानें चाय नाश्ते की रात नौ बजे से सुबह तक लगा करती हैं ।तभी खोमचे पर अचानक एक इंपाला गाड़ी आकर सर्राटे से लगी ।कड़ाके की ठंड में दूर दूर तक कोई नहीं ।एक लंबे हैंडसम से सरदार जी कार से बाहर आये ।कार में शायद उनकी पत्नी बैठी थीं ।सरदार जी ने खोमचे वाले से सिगरेट के लिए पूछा ।सिगरेट नहीं थी ।सरदार जी को जबरदस्त तलब थी ।मायूसी के सिवा और कुछ नहीं ।वे वापस बैठ ही रहे थे ।मैंने हल्की सी आवाज लगायी ।सर, क्या रेड एंड व्हाइट चलेगी ।प्लेन है ।सरदार जी में तो जैसे एकाएक बदन की गरमी आ गयी ।बोले ,बिल्कुल जी बिल्कुल ।मैंने पैकेट आगे बढ़ाया ।पहली बार मैंने दूसरे की तलब का इत्मीनान देखा था ।सरदार जी ने बहुत दुआएं देकर हैप्पी न्यू ईयर कहा और हाथ मिला कर ,कहूं हाथ दबा कर बैठे अपनी इंपाला में ।अच्छा लगा हमें भी ।नया साल आता है तो यह वाकया याद आ ही जाता है ।बेशक सालों गुजर गये हों सरदार जी भी याद तो करते ही होंगे रेड एंड व्हाइट को ,जो अब शायद नहीं मिलती ।