दलित साहित्य महोत्सव का संकल्प एक नई साहित्य की दुनिया संभव बनाएंगे

UAPA कानून, पुणे पुलिस और भारत सरकार के दलित विरोधी प्रयासों का विरोध

Update: 2019-02-06 17:14 GMT

‘साहित्य की एक नई दुनिया संभव है’, के नारे के साथ दो दिवसीय प्रथम दलित साहित्य महोत्सव का समापन दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज में हुआ. 3 फरवरी को महोत्सव का आगाज राष्ट्रीय अम्बेडकर मिशन प्रचार मंडल से मोर ध्वज गौतम और उनके साथियों ने बाबा साहेब अम्बेडकर के विचारों से युक्त क्रान्तिकारी गीतों से किया. उदघाटन समारोह में प्रसिद्द लेखक साहित्यकार मोहन दास नैमिशराय, लक्ष्मण गायकवाड़, रसाल सिंह, बल्ली सिंह चीमा, सूरज बड़त्या, प्रो. हंसराज सुमन, बलराज सिंहमार, महेंद्र बेनीवाल, मंजू रानी व संजीव डांडा शामिल थे. नर्मदा बचाओ आन्दोलन व जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय की प्रसिद्द सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर व किरोड़ीमल कॉलेज की प्रिंसिपल विभा चौहान ने मुख्य अतिथि की भूमिका निभायी.

दलित साहित्य महोत्सव की शुरुआत करते हुए किरोड़ीमल कॉलेज के डॉ नामदेव ने देशभर से आये विभिन्न भाषाओं के साहित्यकारों, कलाकारों, व सामजिक कार्यकर्ताओं का अभिनन्दन किया और महोत्सव के महत्व के बारे में बताते हुए बताया कि इस आयोजन के लिए देश भर के करीब 19 अलग भाषाओं के साहित्यकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं को संपर्क किया.

आयोजन के संस्थापक सूरज बड़त्या ने पुनः दलित शब्द की व्याख्या की कि दलित शब्द समाज के हर दलित-आदिवासी, महिला, घुमंतू आदिवासी, ट्रांसजेंडर समुदाय, किसान, मजदूर, व हर वंचित समुदाय को सम्मिलित करता हैं. यह शब्द अपने आप में संघर्ष और प्रतिरोध का प्रतीक हैं और समाज का वास्तविक चेहरा सामने लाता है.

विकास की गलत अवधारणा के खिलाफ और लोगों के अधिकारों के लिए दशकों से संघर्षरत नर्मदा बचाओ आन्दोलन से आई मेधा पाटकर ने देश में चल रहे सरकारी दमन और विनाशकारी विकास के बारे में बताते हुए कहा कि बीजेपी सरकारें संविधान होने के बावजूद भेदभाव की राजनीति आगे लाकर लोगों के बीच हिंसा और बंटवारा कर रही है. जब संविधान समानता का अधिकार देती है, और देश में जातिगत भेदभाव के खिलाफ कड़े कानून हैं तब यहाँ खुले आम भीड़ हत्या जारी है, किसान, मजदूरों, आदिवासियों की जमीन छीनी जा रही है जिसके खासकर दलित, आदिवासी, और अल्पसंख्यक शिकार बन रहे हैं. दलित साहित्य लोगों की वेदना, उसपर हो रहे जुल्मों को समाज के सामने का कार्य कर रहे हैं और समाज को इसे स्वीकारते हुए साहित्य की कमान सौंपनी चाहिए. दलित साहित्य देश के विकास और राजनीति में एक नई सकारात्मक दिशा और उर्जा लाती रही और भविष्य में ऐसा होगा यह हमारा पूरा विश्वास है.

दलित साहित्य महोत्सव को परिभाषित करते हुए प्रसिद्द साहित्यकार मोहनदास नैमिशराय ने कॉर्पोरेट हावी सरकारी साहित्य सम्मेलनों की आलोचना में कहा कि देश में चल रहे विभिन्न सरकारी साहित्य महोत्सव का आयोजन सिर्फ खानापूर्ति रहा है और वहां समाज की संवेदना रखने वाले उपयुक्त वक्ताओं की कमी है. सभी की उन्नति के लिए आवश्यक है अवसर मिलना. उन्होंने बताया कि दलित साहित्य विलास का साहित्य नहीं बल्कि उनकी पीड़ा, प्रखर आवाज, और उनके संघर्षों का साहित्य है. दलित, आदिवासी, पिछड़े वर्ग, घुमंतू आदिवासी, महिलाओं और अन्य शोषित समुदायों के प्रतिभावों को समाजवाद, बाजारवाद, और ब्राह्मणवाद ने रोक दिया है, जिसका विरोध दलित साहित्यों में मिलता है. दलित साहित्य सिर्फ दलितों का ही नहीं बल्कि उन सभी लोगों का है जो अत्याचारों के खिलाफ एकजुट और संघर्षरत हैं.

महोत्सव तब और जोश से भर गया जब प्रसिद्द गीतकार और साहित्यकार बल्ली सिंह चीमा ने अपनी रचनाओं ‘दूर हमसे क्यूँ उजाला, इसकी भी चर्चा करो. हैं कहाँ सूरज हमारा इसकी भी चर्चा करो’ और ‘ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के’ को लोगों के सामने रखा और समानांतर सत्रों में जाने से पहले लोगों की चेतना जागृत कर दी. ये वो ही गीत और रचनाएँ हैं जो देश भर के आंदोलनों और संघर्षों की आवाज़ बनती रही है और आज भी उतनी ही तार्किक है.

‘दलित साहित्य, समाज में भेदभाव, जातिवाद खत्म करने का साहित्य है, पुनर्निर्माण का साहित्य है, वह जो सबका हित करें’, इससे शुरुआत करते हुए महाराष्ट्र से आये प्रसिद्द साहित्यकार लक्ष्मण गायकवाड़ ने भेदभाव की पराकाष्ठा बताते हुए कहा कि जब गाय ब्राह्मणों ने पाली तो उसे देवता का स्थान, और गधा, सूअर दलितों ने पाला तो उसे गाली मिली और उन्हें वंचित कर दिया. दलितों को इस लोकतंत्र परिधि में साहित्यिक भागीदारी के साथ-साथ राजनीतिक भागीदारी भी बढानी होगी. जानवरों और पशुओं की अलग से बजट मिल रहा है लेकिन विमुक्त घुमंतू समुदायों को ना कोई बजट, ना उनके लिए कोई कानून बनाए गए. गाय के नाम पर इंसानों को मारा जा रहा है जिसका विरोध दलित साहित्य करता है.

“यह संगोष्ठी नहीं, महोत्सव है, एक जश्न है जो महाविद्यालय के वातावरण में दिखाई दे रहा है. यह सीखने-सिखाने, संघर्षों, और बदलाव का महोत्सव है”, कार्यक्रम की विशेष अतिथि और किरोड़ीमल कॉलेज की प्रिंसिपल डॉ विभा चौहान ने लोगों को संबोधित करते हुए कहा.

दिल्ली विश्विद्यालय के अकादमिक समिति के सदस्य और रिदम के निदेशक डॉ हंसराज सुमन ने कहा की दलित साहित्य देश में भागीदारी सुनिश्चित करते हुए एक बहुविधि समाज के निर्माण के लिए अति आवश्यक है. आज जब सामाजिक न्याय पर आधारित आरक्षण तो ताक पर रखकर आर्थिक आधार पर आरक्षण करने की कोशिश की जा रही है तब यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि दलित समाज अपनी रचनाओं को समाज के सामने स्पष्ट रूप से रखें.

“आज दलित साहित्य विद्यालयों, और महाविद्यालयों में पढ़ाया जा रहा है और हमारी आने वाली पीढ़ी संवेदनशील बन रही है और शोषित तबके अपने अधिकारों के प्रति जागृत हो उसके लिए संघर्ष कर रहे हैं. यह सकारात्मक है और हम ऐसे आयोजनों से इस पहल को और आगे ले जाना चाहते है.”, महोत्सव के प्रमुख आयोजक अम्बेडकरवादी लेखक संघ से डॉ बलराज सिंहमार ने कहा.

विमर्शों के दौरान सूरज बहादुर थापा ने आज के अकादमिक प्रणाली के सरलीकरण पर सवाल खड़े करते हुए कहा कि आज जब मार्क्स की बात होती है विश्वविद्यालओं में तो उसे सिर्फ वर्गीय विमर्श से जोड़ दिया जाता है और जब अम्बेडकर की बात होती है तो उन्हें जाति विमर्श से. वर्ग, जाति, लिंग, व अन्य सभी विमर्श को एक साथ पढ़ने की जरुरत है और विश्वविद्यालयों के जरिये इसे आगे बढ़ाना होगा.

एक विमर्श में हिंदी के प्रसिद्द साहित्यकार अब्दुल बिस्मिल्लाह ने भेदभाव की जड़ें भाषाओं में दिखाई और कहा कि यहाँ आपका धर्म देखकर लोग भाषाओं को जोड़ देते हैं जैसे एक समय मुसलमान हिंदी पढ़ना चाहे या संस्कृत तो उन्हें अलग नज़र से देखा जाता और वही बात उर्दू के साथ हो गयी थी. देश में अन्याय के खिलाफ लड़ते हुए लोगों ने धर्म बदले लेकिन आज भी नए धर्मों में उनकी जाति नहीं बदली. कई लोग कहते हैं मुसलमान मुख्य धारा में नहीं बल्कि मैं मानता हूँ वो मुख्य धारा में लेकिन लोग उन्हें मानना नहीं चाहते. आज इस समाज के लोगों की स्थिति कहीं दलितों से भी बदतर हो गयी है. एक मुसलमान आज इस देश में गाय नहीं पाल सकता ऐसा माहौल बनाया गया है. ‘अगर मेरे कहानियों से मेरा नाम हटा दिया जाए तो ऐसा लगेगा कि किसी दलित लेखक द्वारा लिखा गया है, मैं अपने अनुभव के आधार पर लिखता हूँ, पहचान समाज बनाती है’, उन्होंने कहा.

‘आदिवासियों – दलितों को जल-जंगल-जमीन के संघर्षों से आगे नहीं बढ़ने दिया जा रहा है, सरकार आज भी हमारी जमीनों, जंगलों पर कब्ज़ा कर रही है. पत्थलगढ़ी आन्दोलन में हम देख सकते हैं कि कैसे हमारे स्वशासन के प्रयासों को कुचला जा रहा है, संविधान को भी मानने से इनकार कर रही है सरकार. लेकिन हम एकजुट होकर लड़ेंगे और साहित्य के माध्यम से भी अपनी आवाज मुखर रूप से बुलंद करते हुए समाज को सही रास्ते पर लायेंगे’, निर्मला पुतुल ने कहा.

‘आज देश की विडम्बना है कि बहुसंख्यक को अल्पसंख्यक कहा जाने लगा है, कुछ समुदाय विशेष द्वारा समाज को सच्चाई से परे रखने की साज़िश को उजागर करने के लिए ऐसे दलित साहित्य सम्मेलनों की जरुरत है’, साहित्यकार केसर राम ने कहा.

विमर्शों के साथ एक अन्य सभागार में दलित इतिहास, उनके संघर्ष, मजबूती से पुरुषवादी समाज से संघर्ष करते हुए आगे बढ़ते महिलाओं के संघर्ष फिल्मों के माध्यम से दिखाई गयी. कई लेखकों और शोधार्थियों द्वारा आलेख प्रस्तुतीकरण हुआ. और लगभग 12 प्रकाशकों ने पुस्तक मेला में भाग लिया और आकर्षण का केंद्र बने रहे.

दलित साहित्य महोत्सव में आये साहित्यकारों, कलाकारों ने भीमा कोरेगांव में हिंसा के जांच के नाम पर की जा रही शर्मनाक, और दमन के खिलाफ एकजुट होकर UAPA जैसे कानून को हटाने और इस सन्दर्भ में गिरफ्तार किये सामाजिक कार्यकर्ताओं, साहित्यकारों, कलाकारों को जल्द रिहा करने के लिए आवाज़ उठायी. उन्होंने विस्तार में पत्र के माध्यम से भी अपनी बात लोगों के सामने रखी और उस पर हस्ताक्षर कर अपना समर्थन दिया, जो संलग्न है.

दिल्ली समर्थक समूह से संजीव डांडा ने दलित साहित्य महोत्सव को महत्वपूर्ण आयोजन बताते हुए देश के विभिन्न पहचान के संघर्षों और आंदोलनों से साहित्य के जुड़ाव का एक कदम बताते हुए इसे आगे ले जाने का आवाहन किया.

महोत्सव का विशेष आकर्षण बड़ी संख्या में मौजूद विद्यार्थी थे जो किरोड़ीमल कॉलेज, आर्यभट कॉलेज, रामानुज कॉलेज, जामिया मिलिया इस्लामिया, आगरा व कई अन्य जगहों के विश्वविद्यालयों से आये थे.

दो दिवसीय दलित साहित्य महोत्सव में मेधा पाटकर, लक्ष्मण गायकवाड (मराठी), विभा सिंह चौहान (पिंसिपल किरोड़ीमल कॉलेज), मोहनदास नैमिशराय, बल्लीसिंह चीमा (उतराखंड), निर्मला पुतुल (झारखण्ड), अब्दुल बिस्मिल्लाह, चौथीराम यादव (बनारस), जय प्रकाश कर्दम, श्योराज सिंह बेचैन, शामली मुस्तफा खान (त्रिवेंद्रम), जयाश्री (त्रिवेंद्रम), हरीश मंगलम (गुजराती), हरेश परमार (गुजराती), सूरज बहादुर थापा (लखनऊ), हरे प्रकाश उपाध्याय (लखनऊ), क्रांतिपाल सिंह (पंजाबी, अलीगढ), बलवीर माधोपुरी (पंजाबी), केसराराम (पंजाबी), मोहन त्यागी (पंजाबी), नंदिता नारायण, हेमलता महिश्वर, अनीता भारती, रजत रानी मीनू, स्नेहलता नेगी, सरोज कुमारी, मुसाफिर बैठा (पटना), कर्मानंद आर्य (पटना), प्रज्ञा रोहिणी, जी. बी. रत्नाकर (हैदराबाद), वी. कृष्णा (हैदराबाद), डॉ राजेश कुमार मांझी, डॉ मूलाराम, डॉ श्याम कुमार, राजपाल सिंह राजा, रजनी अनुरागी, रजनी दिसोदिया, जोएल ली (अमेरिका) व कई अन्य ने भागीदारी की।
 

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