कालबेलिया समाज : सांप, सूरमा और बीन की दुखद दास्तान

‘काल’ को वश में करने वाला समाज आज खुद काल के वश में हैं

Update: 2019-05-20 15:28 GMT

जैसलमेर शहर में पटवा हवेली से कुछ दूरी पर टिन शेड के नीचे करीब 70-75 वर्ष का एक आदमी, सिर पर पगड़ी, शरीर पर भगवा कुर्ता, कानों में मोटे कुंडल, पैरों में लंबी नुकीली जूतियां और गले में ढेरों मनकों की माला व ताबीज पहने पूरी ताकत से बीन में सांस फूंक रहा था. ये सांसे हवा में तान और सुनी गलियों में प्राण बनकर बनकर बिखरती जा रहीं थी. उस आदमी की देह में सांसे कम थीं, लेकिन बीन के सुर ख़ामोश न हों, सुनी न रहें गलियां, और बेरौनक़ न रहे बचपन का चेहरा, इसलिए वह ख़ुद को घुलाकर बीन को जगा रहा था. इस कवायद में उसका चेहरा लाल पड़ता जा रहा था. लेकिन उसके चारों ओर घेरा बनाए खड़े बच्चे, जवान और बूढ़े लोग बड़े मज़े से खेल देख रहे थे.

उस आदमी से कुछ दूरी पर सामने की ओर एक सुनहरी रंगत बिखेरता एक सांप अपना फन फैलाये बैठा था. उसकी दृष्टि कभी लहराती बीन पर जा ठहरती, तो कभी आसपास खड़ी भीड़ पर टिक जाती. अधेड़ जैसे -जैसे अपने बीन को हवा में लहराता जाता, वैसे- वैसे सांप अपने फन को उसी दिशा में घुमा देता.

थोड़ी देर बाद उस आदमी ने बीन बजाना बन्द कर दिया और बगल में रखी कपड़े की खाली झोली से बांस का बना एक कटोरानुमा पिटारा निकालकर, सुनहरी सांप का सर चूमते हुए वापस पिटारे में रख दिया. उसके बाद वह खेल देखने के लिए मौजूद लोगों को बतात जा रहा था कि यह नुगरा (कोबरा सांप) है. सांपों में सबसे खतरनाक सांप, जिसका काटा पानी न मांगे.

 


बच्चे डर गए और दौड़-दाड़कर अपने घर से रोटी या कटोरी भर गेहूं लाकर उसकी झोली में डालने लगे. वह एक झोली में सामान भरता जाता और हाथ हिला-हिलाकर आशीर्वाद देता जाता. फिर उसने अपने नीले रंग के तहमद पर कुछ छोटी- छोटी डिब्बियां, शीशियां और पुड़ियां निकाल कर सजा लीं. गांव की बूढ़ी महिलाएं उससे बात करके वो डिब्बियां लेने की जुगत बिठाने लगीं. कुछ ने मुंहमांगी क़ीमत देकर डिब्बियां हासिल कर लीं, जबकि कुछ मोल-भाव की गुंजाइश तलाशती रहीं. कुछ चंचल महिलाओं की नजरें सुरमे पर अटकी थीं. उधर, पीछे से बूढ़े लोग कहने लगे कि अब हमें भी अपना समान लेने दो. हमें दूर गांव जाना है. करीब एक घंटे तक यही खेल जारी रहा. फिर सब लोग अपना-अपना समान लेकर अपने-अपने रास्ते चले गए. केवल तीन बूढ़े साथ बैठकर चिलम सुपड़ते रह गए.

मुझे उससे कोई सामान नहीं लेना था. न सुरमा, न भूत भगाने की दवा, न विष उतारने की बूटी. लेकिन मैं उसके पास जाना चाहता था. उसके साथ बैठकर बातें करना चाहता था और जानना चाहता था कि बीन में प्राण फूंकने वाली देह पर सांसों का भार कितना है?

लेकिन जब मैं नज़दीक गया, तो लगा जैसे वो कुछ घबरा गया. शायद वो मुझे पुलिस वाला समझ रहा था. उसने हाथ जोड़कर कहा कि साहब मैं तो इस महीने के 200 रुपए देकर आया था, चाहो तो आप बड़े साहब से बात कर लो. मेरे पास तो ये दो सेर गेहूं है और 10-12 सूखी रोटी. मेरे पास पैसा नही है. आज दिन भर जो अनाज आएगा, उसको आटा पीसने की चक्की पर देकर, जो पैसा मिलेगा वो आपको दे दूंगा. मुझे बख़्श दो माई-बाप. मेरे 5 बच्चे हैं और मैं अकेला कमाने वाला!!!

 


पूछने पर उसने अपना नाम मूकनाथ बताया. उसका जन्म जैसलमेर के सन में हुआ था. मूकनाथ को याद नहीं कि उसने पहला सांप कब पकड़ा था. लेकिन अब यही काम उसकी ज़िंदगी है. उसके पुरख़े भी सदियों से यही काम करते आए हैं. वे गांव-गांव सांप पकड़ते हैं और शहर-शहर तमाशे दिखाते हैं. लेकिन किसी एक ठौर पर अपना घर नहीं बनाते.

आख़िर कौन है ये लोग ? इनका अतीत क्या है? आज ये लोग इतने मजबूर क्यों है ? आज इनको पुलिस का इतना डर क्यों है? ये लोग हमारे लिए क्यों मायने रखते हैं ? कालबेलिया नृत्य तो विश्व विरासत में शामिल है, फिर भी आज इनकी ऐसी स्थिति क्यों है?

कौन है साँप दिखाने वाले ये लोग?

मॉडर्न मेडिसिन के आने से पहले ग्रामीण भारत में मौत का एक बड़ा कारण सांप का काटना होता था. मतलब सांप ‘काल’ था और उस ‘काल’ को वश में करने के कारण ये ‘कालबेलिया’ कहलाये.

बेहद साधारण सा जीवन जीने वाले ये मामूली से लोग, अपने असाधारण कामों से हमेशा हमारे जीवन को प्रकाशित करते रहे हैं. यो तो राजस्थान में इस समाज की अधिकता है, लेकिन हम अगर अपने चारों ओर नज़र घूमकर देखें, तो यह पायेंगे कि कालबेलिया समाज भारत के हर राज्य में फैला है. अलग-अलग स्थान पर, अलग-अलग नामों से मशहूर कालबेलिया समाज के लोगों को कहीं अनुसूचित जनजाति, तो कहींअनुसूचित जाति में रखा गया है.

जनांकीय स्थिति

कालबेलिया समाज की जनसंख्या कितनी है ? यह महज अनुमानों पर ही आधारित है. इस घुमंतू समाज की स्थिति का पता लगाने और उनके विकास के बारे में सुझाव देने के लिए बने रैनके आयोग और इदाते आयोग भी इस मामले में सफल नहीं हो पाए. रैनके आयोग के अनुसार सभी घुमंतू समाज की जनसंख्या, कुल जनसंख्या के 10 फीसदी है. लेकिन इसका कोई ठोस आधार नही है.

क्या करते हैं कालबेलिया?

यह लोग समाज की शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन से लेकर सौंदर्य प्रसाधन तक और रोज़मर्रा की जरूरतों को पूरा करने में अपनी भूमिका निभाते रहे हैं. सदियों से सर्प दंश के इलाज के लिए लोग इन्हीं पर भरोसा करते रहे हैं क्योंकि इन्हें जितना सांप के काटने का इलाज पता है, उतना तो मॉडर्न मेडिसिन में भी नहीं है. इन्होंने सांपों को नुगरा, सुगरा, फुगरा इत्यादि वर्गों में विभाजित किया हुआ है. ये सांप काटने पर लगाने वाली बूटी के साथ-साथ पिलाने वाली बूटी भी देते हैं.

अगर पुराने पन्नों को हम पलटें, तो बच्चों के जन्म से लेकर बुढ़ापे तक इस समाज की भूमिका दिखाई देती है. मसलन बच्चे के जन्म पर उसको जन्म घुट्टी पिलाई जाती थी, ताकि इससे बच्चे में इम्युनिटी बढ़ सके। जंगल की जड़ी बूटियों से मिलाकर यह जन्म घुट्टी कालबेलिया ही तैयार करता था और वो ही गांवों में घूमते हुए लोगों तक पहुँचाता था.

कब्ज, गैस , पेट- दर्द और बाई में प्रयोग में आने वाली रामबाण दवा, हरड़ की फांकी, का निर्माण कालबेलिया ने ही किया था. इंसानों के साथ -साथ, ऊंट , गाय- भैंस और बकरी को पेट दर्द, आफरा (पेट फूल जाना) या बाई होने की स्थिति में यह फांकी खिलाई जाती है.

आटा पीसने की पत्थर से बनी हाथ की चक्की तथा मसाले और चटनी पीसने के लिए लोढ़ी- सिलवटों जैसी ग्रामीण जीवन की रोजमर्रा की जरूरतों की आपूर्ति यही समाज कर रहा है. जोधपुर और भिलवाड़ा जिले में यह आटा पीसने की चक्की तैयार की जाती हैं, जिन्हें गधों और ऊंटों पर लादकर कालबेलिया सभी कोनों में पहुँचाते हैं.

परम्परा की खूबसूरती

ग्रामीण समाज से साथ इनकी बेहतरीन जुगलबन्दी हुआ करती थी. हरियाणा और राजस्थान की एक पुरानी परंपरा के अनुसार, गांव में बच्चा पैदा होने पर यदि उस दौरान वहां पर कालबेलिया का डेरा आया हुआ है, तो उस बच्चे का नामकरण का काम कालबेलिया करता था. फसल बोने के समय कलबेलिया महिलाएं लोकगीत गाती थी और अच्छी फसल की कामना करती थीं.

वर्तमान स्थिति

जयपुर के एल.एन .टी.रिंग रोड के पास, सांगानेर में प्लास्टिक के फटे तंबू में जमीन पर बैठे 80 वर्षीय शंकर नाथ कलबेलिया अपनी बांस की टोकरी को बुहार रहे थे. शंकरनाथ डेरे के मुखिया भी हैं. उनके तंबू के एक कोने में कपड़े का झोला, बीन, फटी पुरानी दो कपड़े की गुदड़ी, मिट्टी का चूल्हा, एक जंग लगी लोहे की संदूक पड़ी है. उसपर एक दो कांसे के बर्तन रखे हैं. तम्बू के बाहर की तरफ कालबेलिया महिलाएं सज- दज कर एक लोक गीत गुनगुना रही है. उनके घर पर सात दिन पहले लड़की का जन्म हुआ है, उसी की खुशी में यह गीत गाई जा रही है.

शंकरनाथ अपने बीते दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि हम केवल बारिश के मौसम में ही एक स्थान पर ठहरते थे. अन्यथा हम साल भर घूमते रहते थे. हमारे गांव बंटे होते थे (जजमानी व्यवस्था). हम हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रेदेश, गुजरात और महाराष्ट्र तक जाते थे.

हमारा गांव वालों से इतना प्रेम था कि जब हमारा डेरा गांव में पहुँचता, तो रात -रात भर लोग हमारे पास हुक्का- चिलम लेकर बैठे रहते और गांव -समाज, खेत- खलिहानों की बातें करते रहते थे. रात भर सांपों के किस्से सुनाए जाते थे. गांव की बूढ़ी महिलाएं, अपने घर पर बनी डाल, कढ़ी, बाजरे और ज्वार की रोटी लेकर आतीं और जन्म घुटी व हरड़ की फांकी लेकर जाती थीं.

हम पत्थर की बनी हाथ से आटा पीसने की चक्की, लोढ़ा- सिलवटटा, गधों, ऊंटों और बैलगाड़ी में रखकर गांवों लेकर जाते.

शंकरनाथ की पत्नी ने बताया कि हमे शुभ माना जाता था. बच्चों के जन्म पर हम लोग बच्चों का नामकरण करते थे. महिलांए अपने छोटे बच्चे को हमारी गोद में दे देती और कहती कि इसके लिए दुआ मांगो. ऐसी मान्यता थी कि फसल बोने से पहले यदि कालबेलिया महिला गीत गाए तो बारिश होगी और फसल अच्छी होगी. हमारी महिलाएं 'झेधड' और पापिया गाती थी.

शंकरनाथ ने गहरी सांस छोड़ते हुए बताया कि आज समय बदल गया है. हमारे डेरे में 150 घर हैं, जिसमे 100 से ज्यादा बच्चे हैं. पर कोई बच्चा स्कूल नही जाता. न बिजली का पता है और न कोई पानी का ठिकाना. सरकार जब मर्जी आए हमे उजाड़ देती है. जमीन का पट्टा देना तो बहुत दूर की बात है. हमारे यहां किसी के मरने पर उसे शमशान भूमि भी नसीब नही होती. हम कहाँ जायें?

अकेले राजस्थान के पाली, अजमेर, चितौड़गढ़ में हज़ारों की संख्या में बच्चे स्कूलों से बाहर हैं. जमीन का पट्टा नहीं है. न घर है, न बीपीएल राशन कार्ड. पहचान का कोई दस्तावेज नहीं होने के कारण सरकारी स्कीम का फायदा भी नही मिलता.

कालबेलिया की ऐसी स्थिति क्यों बनी?

अंग्रेजी सरकार के 1871 के जन्मजात अपराधी कानून ने इस समाज के लोगों को पैदा होते ही अपराधी बना दिया. स्वतंत्रता के बाद 1952 में उनके सर से अपराधी होने का तमगा तो हट गया, लेकिन उनके विकास के लिए कुछ नही हुआ. तकनीक के विकास ने रही-सही कसर पूरी कर दी. ऊपर से सरकार ने जानवरों के पकड़ने पर रोक लगा दी. अब वे सांप भी नही पकड़ सकते. बिजली की चक्की ने हाथ की चक्की को छीन लिया.

इनका कहना है कि सरकार ने सांप पकड़ने पर तो रोक लगा दी, लेकिन हमें कोई वैकल्पिक रोजगार नही दिया. मूकनाथ कालबेलिया बताते हैं कि गाँवों की शामलात और गोचर भूमि पर ताकतवर लोगों ने कब्जा कर लिया तो अब हम डेरा लगाएं कहाँ? हमारा घूमना-फिरना भी बन्द हो गया है. मूकनाथ आगे कहते हैं कि हमारे नाच को तो धरोहर बना दिया, जबकि उसके क़द्रदानों को ठुकरा दिया है. कभी होटल में नाच-गाना करते हैं या पत्थर तोड़ने का काम कर अपना घर चलाते हैं.

इंदौर के देबोनाथ कालबेलिया बताते हैं कि हमारे जीवन का आधार जन्मघुट्टी, सुरमा, जौ - हरड की फांकी पर आज बिचौलियों का कब्जा है. वो हमसे सस्ते में ले जाते हैं और उन्हें बाजार में ऊंची दामों पर बेच देते हैं.

कालबेलिया समाज की ऐसी बदत्तर स्थिति बनाने में एक बड़ा कारण होटल माफिया ओर लोक कला के संरक्षण के नाम पर चलने वाली संस्थाएँ भी हैं, जिनको सरकारी अधिकारियों का संरक्षण प्राप्त है.

अजमेर जिले में पिछले 17 साल से घुमंन्तु समाज के बीच काम करने वाले रॉय डेनियल कहते हैं कि ये लोग पढ़े लिखे नही हैं. इन्हें विदेश ले जाया जाता है, वहां इनसे महीनों नाच-गाना करवाया जाता है और बदले में मात्र 2 से 3 हज़ार रुपए दिया जाता है. इनके हिस्से वही फटे- पुराने तम्बू रह जाते हैं. इनके जीवन मे तो कोई बदलाव नही आता, लेकिन इनके नाम पर होटल माफिया चमक जाते हैं.

आगे का रास्ता

हमे यह समझना होगा कि जब कलबेलिया समाज बचेगा, तभी इनकी कला बचेगी और ज्ञान बचेगा.

जब तमिलनाडु सरकार एंटीवेनम बनाने वाली कंपनी में कलबेलिया को लगा सकते हैं, तो फिर अन्य राज्य ऐसा क्यों नही कर सकते? कलबेलिया से बेहतर शायद ही किसी अन्य व्यक्ति को सांप और उनके जहर के बारे में ज्ञान हो.

इनके द्वारा बनाए गए सुरमा, जन्मघुट्टी और फांकी पर इनको पेटेंट या कोई अन्य आर्थिक मदद मिले. इनके उत्पाद को बेचने की उचित व्यवस्था हो.

सरकार को चाहिए कि इनके बच्चों की शिक्षा के लिए आवासयुक्त स्कूल बनवाए ताकि वे आधुनिक शिक्षा के साथ - साथ अपने समाज की कला, परम्परा और ज्ञान को सहेज पाएं.

लोक संस्कृति, नाच-गाने के नाम पर, विदेशों में लेकर जाने वाली संस्थाओं और होटल माफिया का रेगुलेशन होना चाहिए, जिससे कला का पैसा लोक कलाकारों के हिस्से में जाये.

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