चुनाव में भाजपा के जीतने की वजहें

सोच के स्तर पर बुनियादी परिवर्तन दिख रहा है

Update: 2019-05-29 13:45 GMT

चुनाव २०१९ से भारत ने एक नये दौर में प्रवेश कर लिया है. यह दौर इससे पहले के प्रतिमानों से कई मापकों में भिन्न होगा. इस तस्वीर के पूरे तौर पर उजागर होने में बेशक समय लगेगा. लेकिन इसमें कोई संशय नहीं कि हम पर एक नयी नियमावली लागू की जायगी.

चुनावों की पूर्व आंकलन में बहुतेरे लोगों( इस लेखक समेत ) का यह मानना था की भाजपा पिछले बार की तुलना में इस बार कम सीटें पायेगी. वह लगभग १०० सीटें कम मिलेंगी. करीब १७५ के आस पास जायगी , लेकिन अन्यों के साथ मिलकर सरकार बना लेगी .

इस सोच के कई कारण थे. पहला मोदी का कार्य संचलान कमज़ोर रहा है. उप्र की सरकार का काम बहुत ही खराब रहा . न कृषि , न उद्योग और नहीं क़ानून और व्यवस्था में कोई सुधार आया है , बल्कि पहले से बहुत अधिक खराब ही हुई है. यह मूल्यांकन बलाकोट तक बिलकुल सही था . लेकिन बलाकोट ने भाजपा की स्थिति में सुधार किया और भाजपा फिर से लड़ाई में आ गयी. देहातों के सर्वेक्षण में किसानों ने अपने संकटो के बारे में बहुत मुखर होकर कहा जिससे यह लगा कि बालाकोट उनकी गणना में नहीं हैं. इसकी चर्चा भी बहुत कम की गयी. इतिहास ने भी यही बताया था कि प्रदेश की जनता शीघ्र पार्टी बदलने की आदि है और यदि कोई पार्टी काम नहीं करती है तो, अगामी चुनावों में वोटर उन्हें हरा देता है. वर्ष १९९८ में भाजपा को लोक सभा चुनावों में ८५ में से ५७ सीटें मिली थी जिससे तहलका मच गया था और अटल बिहारी वाजपेयी नए प्रधान मंत्री बने थे. लेकिन एक वर्ष बाद ही वर्ष १९९९ में भाजपा की लोक सभा की सीटें घट कर मात्र २९ ही रह गयी थी. इसी एक वर्ष में ऐसा कुछ नहीं हुआ था कि भाजपा को इस प्रकार की हार का सामना देखना पड़े, लेकिन काम भी कुछ नहीं हुए थे . मायावती और यादव की पूर्ण बहुमत की सरकारों को भी जनता ने एक सत्र से अधिक चलने नहीं दिया .तिस पर सपा बसपा गठबंधन की लोगों को याद थी कि किस प्रकार से इन दोनों ने मिलकर वर्ष १९९३ में भाजपा को हरा दिया था.

इन सब तथ्यों के आधार पर ही यह अनुमान लगा था कि भाजपा के स्थान घटेंगे . ऐसा न होना भारत की राजनीति में कुछ बुनियादी परिवर्तनों की ओर संकेत करता है.ऐसी सीटें जिनमें भाजपा और कांग्रेस पहली या दूसरी नहीं हैं , इनकी संख्या निरंतर घटती जा रही हैं .

राज्य स्तरीय पार्टियों के कमज़ोर होने के मायने

इसी प्रकार आम तौर पर यदि गत चुनावों के नतीजों को देखे तो कांग्रेस और भाजपा मिलकर ३०० के आस पास सीटें लेते रहे हैं . लेकिन इस बार यह बढ़कर ३५३ पहुँच गया है . जिस मर्जी तरीके से देखे, हम यह पायंगे कि राज्य स्तरीय पार्टियां कमज़ोर हुई है और केंद्र स्तरीय पार्टियाँ मज़बूत. या यू कहें की बड़ी पूंजी के ख़ास पार्टियां आगे बढ़ी हैं और वे पार्टियां जिनका आधार किसान अथवा छोटी और मझोली पूंजी है उनकी शक्ति कम हुई है. उनका प्रसार भी घटा है. यह इसलिए की देश में पूंजीवाद का प्रसार और विकास निरंतर हुआ है और इसमें बड़ी पूंजी और अधिक विस्तृत हुई है उसने छोटी मझौली पूंजी को बहुत से क्षेत्रों में नष्ट कर दिया हैं और उनके बाज़ार पर नियंत्रण स्थापित कर लिया है . इस प्रकार बड़ी पूंजी के फैलाव होने से उसकी पार्टियों को भी लाभ है.इससे भाजपा को पहले से अधिक मजबूती मिल गयी है.

पूंजीपतियों का एकाधिकार और मीडिया पर नियंत्रण

भारत का पूंजीपति वर्ग अब एकाधिकार की और बढ़ रहा है . इसका शासक गुट जो भाजपा नीत सत्ता के नज़दीक है और उसने इस पार्टी और नेता को पूरा समर्थन दिया हैं . इस वर्ग ने हाल फिलहाल कांग्रेस को दूसरे स्थान पर रखा हुआ है. वह कांग्रेस को मरने भी नहीं दे रही है लेकिन वह इस समय नरेन्द्र मोदी के द्वारा अपने लाभ की नीतियाँ लागू करवाने में लगा हुआ है .इस वर्ग का समर्थन मायने रखता है क्योंकि यह अधिकांश मीडिया का मालिक है. दिन भर 24x7 देश के तमाम चैनल केवल मोदी के बारे में ही प्रचार कर रहे थे . निरंतर एक बमबारी की तरह, कुछ अपवादों को छोडकर , सभी मोदी के प्रचार में लगे हुए थे.मीडिया के कार्य करने के सामान्य नियमों को ताक पर रख दिया गया था. इस प्रकार आम जान को प्रभावित करने में सहायता मिली . इससे पहले भी यह सब होता रह है लेकिन इस बार गत किसी भी न अन्य बार की तुलना में मीडिया ने नरेन्द्र मोदी को उछालने में बहुत तल्लीनता और सफलता से काम किया है. यह सब तभी संभव था जब बड़ा पूंजी पति वर्ग उनके पक्ष में पूरे तौर पर खड़ा हो गया था. बीच बीच में एक आध बार पूंजी पतियों ने कांग्रेस के बारे में कुछ सकारात्मक बातें की अथवा किसी प्रत्याशी को समर्थन देने के बारे भी , जैसे मुकेश अम्बानी ने मिलिंद देवड़ा के मुंबई दखिन से समर्थन देने की पेशकश की और उदय कोटक ने इसका समर्थन किया. लेकिन यह सब केवल अपनी दूसरी पार्टी से समपर्क जीवित रखने के लिए ही. राहुल गाँधी के समय समय पर बयान किसी निजी क्षेत्र ही सबसे महत्त्वपूर्ण है, इत्यादि से भी कोई लाभ नहीं हुआ.

भाजपा के पास चुनाव चंदा के बतौर में बहुताधिक पैसा मिला है.समपदा बहुत बड़ी मात्रा में एकत्रित की गयी थी. टाटा जैसे घराने ने अपनी कंपनियों द्वारा कम से कम ५०० करोड़ रुपये इन चुनावों में पार्टियों को दिए हैं जिनमें लगभग चार सौ करोड़ तो मात्र भाजपा को ही दिये गये हैं .

इस प्रकार पूंजी पति वर्गों ने विभिन्न कानूनों के द्वारा जैसे चुनाव बांड इत्यादी से समूची चुनावी प्रक्रिया पर अपने नियन्त्रण स्थापित करके रखा हुआ था.

बालाकोट होने का फायदा

बालाकोट से पहले भाजपा की साख जनता में बहुत गिर गयी थी .लेकिन पुलवामा के बाद जब बालाकोट पर बमबारी के साथ ही मोदी का आंकडा ऊंचा जाने लगा और राष्ट्रवाद का नारा बुलंद किया गया . एक और बात यह की पुलवामा होने के बाद और जब भारत की वायु सेना ने अन्तर राष्ट्रीय सीमा रेखा पार का ली , तो यह एक बड़ी उपलब्धी मानी जानी लगी और इसका प्रचार समूचे देश में किया गया और हर भाषण में किया जाने लगा. इस पर विपक्ष की विभिन्न पार्टियों के रवैये का नरेन्द्र मोदी को बहुत लाभ मिला; आवाम ने जिसे शौर्य समझा उस पर सवालिया निशान लगाना विपक्ष की एक बहुत बड़ी भूल थी. बहुतों को यह शक था कि पुलवामा वास्तव में हुआ है की नहीं या इसे सरकार ने ही करवाया है ताकि चुनाव में इसका लाभ उठा सके. जहां तक चुनाव का सवाल है इससे कोई फरक नहीं पड़ता है कि यह घटना किसने करवाई है . उस समय तो ऐसी रणनीति की ज़रुरत थी जो भाजपा को इस प्रचारात्मक लाभ से वंचित कर दे. ; अर्थात यह कहा जा सकता था कि पठानकोट के समय जो गलती नरेन्द्र मोदी ने आई एस आई की टीम को देश में आकर पठानकोट के स्थान का मुआयना करने दिया गया , उसको सुधार लिया है, इत्यादि. लेकिन सभी विपक्ष के नेताओं की बातों में सरकार की बात को लेकर अविश्वास, खीज इत्यादि नज़र् आयी. ममता बनर्जी जैसे लोगों ने समूचे घटना क्रम पर ही शक जाहिर किया . इन सब के कारण राष्ट्रवाद का मुदा भाजपा के हाथ में चलागया.

इस बात पर गौर करने की ज़रूरत है कि भारत की आवाम लम्बे समय से देश में हो रहे बम धामाकों को झेल रही है और भारत की सरकारों ने उसका कोई कारगर जवाब नहीं दिया है . यह देश की अवाम के लिये एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण मुदा बन चुका था. बालकोट ने जैसे जो दबाव इतने सालो से जनता महसूस कर रही थी उसे समाप्त कर दिया , जैसे मुक्ति मिल गयी हो.चुनाव समाप्त होते होते जनता के सामने यह प्रभाव बना जैसे विपक्ष बालाकोट के विरोध में हो . इस मुद्दे के उठने से भाजपा और नरेन्द्र मोदी को जो लाभ हुआ उसे विपक्ष समाप्त नहीं कर सका.

वैचारिक परिवर्तन हुआ है

देश में एक बड़ा वैचारिक परिवर्तन दिखाई दे रहां है. शासक वर्गों ने गांधी विचार को देश का विचार और गाँधी को एक पवित्र सम्मानित मूर्ति के रूप में स्थापित कर दिया था . गाँधी पर कोई भी हमला नहीं करता था. कम्युनिस्ट जो गाँधी के आलोचक रहे हैं , वे भी गाँधी का नाम सम्मान से लेते रहे हैं , कम से कम सार्वजनिक मंचो से तो. लेकिन अब पहली बार ऐसा हुआ है कि गाँधी का सार्वजनिक तौर पर मूर्ति भंजन किया गया है और नाथूराम गोडसे को महिमा मंडित. इसकी रस्मी तौर पर आलोचना की गई तो गोडसे के पक्ष में भाजपा के कई जाने माने नेता बोल पड़े थे. प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह घोषणा तो की कि वह प्रज्ञा ठाकुर से बात नहीं करेंगे . लेकिन इसके अलावा और कोई कार्रवाई करने की कोई बात नहीं कही है.भाजपा में एक बड़ा तबका मुखर होकर अति हिंदूवादी बात कर रह है. इस श्रेणी के बहुत से प्रतिनिधि इस बार चुनकर लोक सभा में आ गये हैं .

एक ओर हिंदुत्व का विचार है जो संकीर्ण हिन्दुवाद का परिचायक है और यह अल्पमत के अधिकारों , स्वायत्त शासी सोच, के विरोध में है. वह हिंदुत्व को स्थापित करना चाहता है. यह श्रेणी इस्लाम और इसाई धर्म के विरोध में इस हद तक है की वह इन्हें भारत से समाप्त करना चाहती है . वह धर्म निरपेक्ष के स्थान पंथ निरपेक्ष राज स्थापित करने को आतुर है. यह सोच एक अजीबोगरीब तरीके पूंजीवादी सोच के साथ मिल जुल गयी है . वर्तमान में पूंजीपति वर्ग इसका विरोध नहीं कर रहां है . एक समय में बाबरी के टूटने पर रतन टाटा पहले व्यक्ति थे जिन्होनें ने इसकी आलोचना की थी और आज वे आर एस एस के मुख्यालय जाने में कोई संकोच नहीं है .उनका या किसी और का सेकुलर सोच के पक्ष में कोई बयान नही आया है. यह उदार वादी लोकतंत्र की सोच के विरोध में जाती है . आज की दशा में शासक वर्ग उदार वादी सोच के पक्ष में नहीं है. इस सोच का मतलब है अधिकारों को देना, उनकी रक्षा करना, इत्यादि . आज जिस अर्द्ध- तानाशाही के दौर से देश गुज़र रहा है

हिन्दुत्व का विचार ठीक उसके अनुसार ही है और यह दोनों एक दुसरे के पूरक हैं और शासकों के लक्ष्यो को पूरा करने में सहायता कर रहे हैं.

यह सोच मुसलमान विरोधी सोच के साथ कही मेल खाती है.देश में ही हिंन्दू – मुसलमान का फरक को भाजपा पार्टी ने लगातार बढाने की कोशिश की है और यह कुप्रचार के जरिये लोगों के दिमाग में बिठा दिया गया है कि मुसलमान हिन्दू लड़कियों को बरगला रहे है और इसी प्रकार की बातें जिनका असर आम जनता पर हुआ है . यह एक बड़े मुस्लिम विरोधी वोट में बद्ल गया है. यह चुनाव एक प्रकार से मुसलमानों के विरोध का चुनाव भी था. लोगों के अंदर मुसलमानों के विरोध में पायी गई नफरत ने भाजपा को बहुतेरे वोट दिलाये हैं.

वोटरों के दिमाग में यह भरने में भाजपा सफल रही है कि बाकी सभी पार्टियां मुसलमानों की तरफदारी करती हैं . नरेन्द्र मोदी खुद ने भी राहुल गाँधी के वायनाड में खड़े होने के फैसले पर यह कहा कि चूंकि वहाँ अल्पमत है इसलिए ये वहाँ गये हैं , इत्यादि.

दर असल पूंजीवादी विपक्षी पार्टियों और वाम दलों ने एक प्रकार का यांत्रिक वादी सेकुलर नीतियाँ अपनायी हैं. इसमें सपा , बसपा, वाम दल और कांग्रेस , जनता दल सभी इत्यादि सभी शामिल हैं . यह राजीव गाँधी के समय में शाह बानू वाले निर्णय से जिसके द्वारा सुप्रीम कोर्ट ने तलाक शुदा मुसलमान औरतों को गुज़ारे लायक भत्ता, देने के निर्णय को संविधान संशोधन के द्वारा पलटवा दिया था जिससे लाल कृष्णा अडवानी को इसप्रकार की नीतियों को तुष्टीकरण कहने का मौका मिला . इसी प्रकार की नीतियाँ जारी रही हैं , जिसके तहत ये सभी दल ऐसे मुसलमान नेताओं को अपने पक्ष में करते हैं जो मुसलामानों के वोट दिला सके. ये अधिकाँश तौर पर यथास्थिति वादी नेता हैं और मुसलमान मामलों में किसी का दखल नहीं चाहते हैं.

यह मौका भाजपा के लिए था और उसने कम्युनिस्टों के नारे अपनाने शुरू कर दिए , यूनीफोर्म सिविल कोड , ट्रिपल तलाक का विरोध इत्यादी . आज की विडंबना यह है की जब तीन मुसलमान औरतें अपनी मेहनत से संघर्ष करते हुए तुरंत तलाक के विरोध में सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच गयी तो भाजपा ने आगे बढ़कर उनको समर्थन दिया. अन्य कोई पार्टी आगे नहीं आयी . यानी दक्षिणपंथी पार्टी भाजपा अत्यंत प्रगतिशील कार्य कर रही है और प्रगतिशील पार्टियां वाम पक्ष चुपचाप बैठा हुआ मुसलमानों के उन लोगों की वकालत कर रहा है जो उनके मामलों में सरकार के दखल के विरोध में है.बृंदा कारात ने कहा कि इसे पास करने से पहले इन लोगों से तो पूछ लेना चाहिए था!

गत बीस तीस वर्षों से लगातार चल रहे प्रचार ने धरती पकड़ ली है उधर जब व्यवहार में यह आरोप सही पाया तो इनका वोट इन सभी पार्टीयों के विरोध में चला गया .यह हार सेकुलर सोच की नहीं बल्कि यान्त्रिकवादी सेकुलर सोच की है .

अमीरों के पक्ष की नीतियों को भी गरीबों की नीतियों के रूप में प्रस्तुत करने में सफलता

नरेन्द्र मोदी अपने को निर्धन पक्षीय के बतौर स्थापित करने में सफल रहे हैं. ऐसी नीति जिसका गरीबों को बहुत नुक्सान हुआ लेकिन उसे भी लोगों ने धनिकों विरोधी माना है, और ऐसे मौकों पर वे लोग मोदी के पक्ष में रहे, जैसे विमुद्रीकरण. यह सही है की बहुत सी गरीब पक्षीय नीतियाँ पूरे तौर लागू नहीं ही पायी हैं , लेकिन इसके बावजूद जिस हद तक लागू हुई उससे निर्धन जनता को लाभ हुआ है और वे भाजपा के पक्ष में गई. उनाव के गाँव के निवासी ने कहा कि बिजली के तार और खम्बे तो मायावती और अखिलेश के शासन के दौरान आगये थे लेकिन बिजली अभी ही आयी हैं . जीवन में पहली बार हमने उजाले में मन रात का खाना खाया है रोशनी जलाकर. इसी प्रकार गैस , बिजली, चिकत्सा इन सभी का कुछ कुछ लाभ होना शुरु हुआ है. यह सही है कि चिकित्सा की योजना से निजी अस्पतालों को बहुत ,लाभ है और चिकित्सा बीमा के बिल भी बहुत बढ़ा चढकर बनेंगे , लेकिन असली बात इस संदर्भ में यह है कि ५ लाख तक का इलाज शुरू हो गया है . जिनके पास अपनी ज़मीन है उन्हें मकान बनाने के लिए २ -२ लाख रुपये की योजना आयी है और लागू हुई है. कानपूर की बस्तियों में बड़े स्तर पर इसका लाभ मिला है .

जिन राज्यों में जैसे दक्षिण के राज्यों इसी प्रकार की योजनायें पहले से लागू थी वहाँ भाजपा को सफलता नहीं मिली है . लेकिन उत्तर भारत के राज्यों में यह सुविधा नहीं थी वहाँ लाभ हुआ है और भाजपा ने जीत हासिल की हैं.

जब एक बार जनता पक्ष में वोट देने का निर्णय ले लेती है उसके पक्ष में बहुतेरी कारण भी खोजने लगती हैं . अधिकतर वोटर इस बात से प्रभावित है कि भारत की बात विदेशो में सुनी जाती है. भारत का प्रभाव बढा है .यह एक संतोष का कारण मतदाता के लिए है..

सबसे महत्त्वपूर्ण कारण जीत का यह है कि धनिक वर्गों के पक्ष की नीतियाँ भी गरीबों की नीतियो के रूप में नरेद्र मोदी प्रस्तुत करने में सफल रहे .

पार्टी भाजपा को हराने के लिए प्रधान तौर पर संघर्ष नहीं कर रही थी

विपक्ष के हार के कई और कई कारण भी दिखाई देते हैं . कोई पार्टी भाजपा को हराने के लिए प्रधान तौर पर संघर्ष नहीं कर रही थी. नाम अवश्य भाजपा का ले रहे थे लेकिन समूची योजना स्वयम को आगे बढाने की थी . यह कार्य भी ठीक तरह से नहीं हुआ. कांग्रेस पार्टी ने अपने चुनाव घोषणा पात्र तो जारी किया लेकिन उनके भाषणों में उस घोषणा पत्र के अंश कही सुनाई /दिखाई नहीं दिए. कही पर भी उदारवादी पूंजीवादी लोक तंत्र का नारा नहीं दिया गया . मीडिया पर पूंजी प के कब्ज़े की बात लिखी तो गई लेकिन बोली नहीं गयी. प्रयास यह था की मोदी पर हमला करके उसे डाउन करो. न्याय जैसे स्कीम की घोषण के बाद उस पर जोर नहीं दिया गया.कांग्रेस पार्टी और सपा बसपा – गठबंधन के पास भी या तो वक्ता नहीं थे, अथवा सोची समझी नीति के तहत केवल नेता को ही चक्काने की नीति के कारण केवल उसे ही सामने लाया गया. नतीजा एक पर एक मुकाबला कराया गया अन्य इसमें नरेन्द्र मोदी बाकियों से आगे निक्ले.

अंत में जब मोदी से यह पूछा गया की इस चुनाव में जितनी कटुता देखी गयी है उतनी पहले कभी नहीं दिखाए दी है ;इसका क्या कारण है. इसके जवाब में मोदी ने एक पत्रकार से कहां की “ आपको समझना चाहिये की यह चुनाव कोई क्लास का मॉनिटर चुननेके लिए नहीं है . हम यहाँ देश किस दिशा पर चलेगा उसका निर्णय लेने जा रहे हैं . हम देश के १३० करोड़ भारतवासियों के जीवन को निर्धारित करने जा रहे हैं , विशैश तौर पर ६५ करोड़ लोगों का जिनकी आयु ३५ से नीचे है. बहुत कुछ दांव पर लगा है.”

आजादी के बाद पह्ली बार ऐसा हो रह है की जो पार्टी सत्ता में आयी है वह संविधान की कई बातों से सहमत नहीं है. जैसे धर्म निरपेक्ष राज्य अथवा सेकुलर राज से. वह नया हिंदुत्व का राज स्थापित करना चाह्ती है. वह उदार वादी लोकतंत्र की हामी नहीं है . इस समय देश में पैराडाइम बदल रहा है. जिस परिधी में आज तक हम चल रहे थे उसमें बुनियादी परिवर्तन लाने के प्रयास चल रहे हैं.

इस समय भारत का शासक गुट, सत्तारूढ पार्टी, हिंदुत्व की विचार धारा , आर्थिक सुधारों का कार्यक्रम, और विदेश नीति जिसमें भारत और अन्य बड़ी शक्तियां साथ साथ चल, रही हैं , सब एक लाइन में हैं . कही कोई विपरीत स्वर नहीं है .

आगामी दिनों में जब परिवर्तन किए जाएंगे तब ही साफ होगा की इस चुनाव का हमारे इतिहास में क्या महत्व है.
 

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