अर्थशास्त्र के लिए नोबेल पुरस्कार: इस वर्ष चौंका दिया है
वर्ष 2018 के नोबेल पुरस्कारों की घोषणा की जा चुकी है और इसी के साथ अर्थशास्त्र के
लिए अल्फ्रेड नोबेल की याद में स्वेरिजेस रिक्सबैंक प्राइज की घोषणा भी की जाती है. इस वर्ष अर्थशास्त्र का सबसे बड़ा पुरस्कार पॉल रोमर और विलियम नोर्दाहौस को देने की घोषणा की गयी है. पॉल रोमर को तकनीकी आविष्कारों को दीर्घकालीन मैक्रोइकानोमिक विश्लेषण में समन्वय और विलियम नोर्दाहौस को दीर्घकालीन मैक्रोइकनोमिक विश्लेषण में जलवायु परिवर्तन का समन्वय करने के लिए इस पुरस्कार को देने की घोषणा की गयी है.
दरअसल जिसे हम अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार कहते हैं वह मूल नोबेल पुरस्कार नहीं है. मूल नोबेल पुरस्कार शांति, साहित्य, फिजिक्स, केमिस्ट्री और मेडिसिन के क्षेत्र में दिए जाते हैं. अर्थशास्त्र के लिए अल्फ्रेड नोबेल की याद में स्वेरिजेस रिक्सबैंक प्राइज 1968 से आरम्भ किया गया, जिसका प्रायोजन स्वीडन का केन्द्रीय बैंक, स्वेरिजेस रिक्सबैंक, करता है और पुरस्कार की राशि भी इसी बैंक के डोनेशन से आती है. यह नोबेल पुरस्कार तो नहीं है पर दुनिया में अर्थशास्त्र का सबसे बड़ा और प्रतिष्ठित पुरस्कार है. इस वर्ष इस पुरस्कार का 50वा संस्करण था. इसे जीतने वाले अमर्त्य सेन (1998) अकेले भारतीय हैं. अमेरिकी राजनैतिक अर्थशास्त्री एलिनर ओस्त्रोम (2009) एकमात्र महिला हैं जिन्हें यह पुरस्कार मिला है.
लगभग हरेक वर्ष इन पुरस्कारों में थोडा बहुत विवाद यह रहता है कि इन और लोगों को पुरस्कार में शामिल किया जा सकता था. पर इस वर्ष तो विश्वव्यापी बहस जिन्हें पुरस्कार दिए गए उनके काम पर ही छिड़ गयी है. दरअसल दोनों अर्थशास्त्री विकास को परम्परागत अर्थशास्त्र की नजर से देखते हैं, जबकि अधिकतर जानकारों का मानना है कि परम्परागत अर्थशास्त्र में विकास की जो परिभाषा है, उससे पूरे समाज का विकास नहीं होता. दरअसल यह विकास केवल आंकड़ों में उलझ कर रह जाता है, और केवल कुछ लोग पूरी जनसँख्या के संसाधनों पर विकास करते हैं. हमारे देश का उदाहरण सबके सामने है, परम्परागत अर्थशास्त्र के अनुसार हम बहुत विकास कर रहे हैं, हमारी अर्थव्यवस्था विश्व में पांचवे स्थान पर है, सकल घरेलू उत्पाद 7 प्रतिशत से भी अधिक तेजी से बढ़ रहा है, पूरा विश्व इसे सराह रहा है. दूसरी तरफ देश के सबसे समृद्ध एक प्रतिशत लोग पूरे देश के 64 प्रतिशत संसाधनों पर कब्ज़ा किये बैठे हैं, सबसे गरीब 15 प्रतिशत आबादी और गरीब हो रही है, पूरी दुनिया में सबसे अधिक भूखे और कुपोषित आबादी हमारे देश में है, कृषि उत्पादकता कम हो रही है, बेरोजगारी बढ़ रही है, प्रदूषण से सबसे अधिक लोग हमारे देश में मर रहे हैं और सभी प्राकृतिक संसाधन सिमटते जा रहे हैं. दूसरी तरफ परम्परागत अर्थशास्त्र के विकास की
परिभाषा के अनुसार स्वीडन, आइसलैंड, नोर्वे और इसी तरह अन्य छोटे यूरोपीय देश बहुत बड़ी अर्थ व्यवस्था वाले देश नहीं हैं पर इन देशों में सही में सबका विकास हो रहा है, बेरोजगारी नहीं है और लोग खुश हैं.
समस्या यही है कि, इन सब के बावजूद परम्परागत आर्थिक विकास का पैमाना और परिभाषा अभी तक उसी ऐतिहासिक मॉडल के इर्द-गिर्द घूम रहा है. पॉल रोमर और विलियम नोर्दाहौस भी नए वैज्ञानिक आविष्कारों और जलवायु परिवर्तन का अर्थ व्यवस्था में समन्वय करने के बाद भी उसी परम्परागत विकास की बात करते हैं, जो पूरी दुनिया में असमानता को बढ़ावा दे रही है और प्राकृतिक संसाधनों को तेजी से नष्ट कर रही है.
न्यू यॉर्क यूनिवर्सिटी के स्टर्न स्कूल ऑफ़ बिज़नेस के प्रमुख अर्थशास्त्री 63 वर्षीय पॉल रोमर 1980 के दशक से नए आविष्कारों के आर्थिक लाभ पर अध्ययन करते रहे हैं, और वर्तमान औद्योगिक क्रान्ति जो पूरी तरह ऑटोमेशन और डिजिटल प्रोद्योगिकी पर आधारित है, के मुखर समर्थक माने जाते हैं. अधिकतर पर्यावरण विशेषज्ञ वर्तमान औद्योगिक क्रान्ति को ही पर्यावरण की सभी वर्तमान समस्याओं, जिसमें जलवायु परिवर्तन भी सम्मिलित है, की जड़ मानते है. ऐसे में, बारीकी से देखें दो दोनों अर्थशास्त्रियों के काम, जिनके लिए पुरस्कार दिया गया है, एक दूसरे के ठीक विपरीत हैं. पॉल रोमर ऐसे प्रोद्योगिकी की वकालत कर रहे हैं, जिससे जलवायु परिवर्तन बढ़ रहा है, जबकि 77 वर्षीय विलियम नोर्दाहौस जलवायु परिवर्तन से होने वाले आर्थिक नुकसान की बात करते हैं और इस नुकसान को अर्थव्यवस्था में शामिल करने की वकालत करते हैं. यूनिवर्सिटी ऑफ़ लीड्स की पर्यावरण अर्थशास्त्र विशेषज्ञ जूलिया स्टीनबर्गर के अनुसार इस वर्ष के पुरस्कारों की घोषणा ने चौंका दिया है और संभवतः पहली बार बिलकुल उल्टे सिद्धान्तों वाले लोग पुरस्कार साझा कर रहे होंगे.
येल यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्री विलियम नोर्दाहौस 1970 के दशक से जलवायु परिवर्तन का आर्थिक आकलन कर रहे हैं. दरअसल वे जलवायु परिवर्तन के अर्थशास्त्र के जनक माने जाते है. इन्होने एक बहुचर्चित इंटीग्रेटेड असेसमेंट मॉडल तैयार किया है – जिसमें किस तरह आर्थिक गतिविधियों से कार्बन उत्सर्जन प्रभावित होता है, कार्बन उत्सर्जन से पर्यावरण कैसे प्रभावित होता है और फिर पर्यावरण आर्थिक गतिविधियों को कैसे प्रभावित करता है – को संमन्वित किया गया है. इसे पूरी दुनिया में सराहा गया है. ब्रिटेन के यूनिवर्सिटी ऑफ़ ईस्ट एंग्लिया के पर्यावरण अर्थशास्त्री डाबो गुआन के अनुसार पूरे के पूरे प्रकृति विज्ञान को अर्थशास्त्र से जोड़ना एक महान उपलब्धि है.
पूरी दुनिया बदल रही है, और साथ ही अर्थव्यवस्था भी. ऐसे में विकास की परिभाषा भी बदलने की जरूरत है. शायद कभी ऐसे विकास की अवधारणा, जिसमें सभी सुखी हों और खुश हों, पर भी कोई पुरस्कार मिलेगा और उस दिन से दुनिया में विकास की परिभाषा बदल जायेगी.