मुख्य न्यायधीश के खिलाफ महाभियोग : कितना आसान है ?
मुख्य न्यायधीश के खिलाफ महाभियोग : कितना आसान है ?
सीपीआई (एम) के महासचिव सीताराम येचुरी ने विपक्षी दलों द्वारा भारत के मुख्य न्यायधीश के खिलाफ संभावित महाभियोग की बात कहकर हलचल मचा दी है. नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी के नेता तारिक अनवर ने भी इस कदम का समर्थन किया है. कांग्रेस पार्टी ने भले ही अपनी राय सार्वजानिक न की हो, लेकिन यह साफ़ है कि वो भी इस महीने के आखिर में बजट सत्र के शुरू होने से पहले इस प्रस्ताव पर बातचीत और मशविरे के खिलाफ नहीं है.
तकनीकी तौर पर, भारत के राष्ट्रपति की भांति देश के मुख्य न्यायधीश या किसी वरिष्ठ न्यायधीश के खिलाफ अनुच्छेद 124 के तहत महाभियोग लगाया जा सकता है. अनुच्छेद 124 विधायिका को न्यायपालिका के प्रहरी या उसके ऊपर नियंत्रणकारी निकाय के तौर पर काम करने की शक्ति देता है. लेकिन इसकी प्रक्रिया बेहद जटिल है. ऐसा इसलिए किया गया है ताकि इसका मनमाना इस्तेमाल न हो. यही एक वजह है कि अतीत में महाभियोग की कार्यवाहियां हर बार असफल हुई हैं. अबतक भारत में किसी भी न्यायधीश पर महाभियोग साबित नहीं हो पाया है.
प्रक्रिया की जटिलता का ही यह पारिणाम है कि संसद द्वारा इस शक्ति का इस्तेमाल अतीत में बेहद सावधानी के साथ किया गया है. महाभियोग, चाहे वो संसद में पराजित हो गया हो, का स्वरुप पर्याप्त रूप से ऐसा रखा गया है कि वह संबंधित न्यायधीश के खिलाफ एक व्यापक नैतिक टिप्पणी के तौर पर लिया जाये.
अगर विपक्ष आगे बढ़कर भारत के मुख्य न्यायधीश दीपक मिश्र के खिलाफ सिर्फ महाभियोग का प्रस्ताव लाता भर है, तो इसे एक कड़ी आलोचना के तौर पर देखा जायेगा. क्योंकि यह पहला मौका होगा जब किसी मुख्य न्यायधीश के खिलाफ ऐसा कदम उठाया जायेगा. यह भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश के प्रति अविश्वास को भी रेखांकित करेगा. सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों ने हाल में एक प्रेस कांफ्रेंस के माध्यम से उनके कार्य – कलापों पर पर्याप्त संदेह जाहिर किया था. येचुरी ने रोस्टर और बेंचों के गठन के मुद्दे को सुलझाने में असफल रहने को महाभियोग लाने की मुख्य वजह बताया.
महाभियोग की प्रक्रिया जटिल है. संसद के वर्तमान स्वरुप को देखते हुए, विपक्ष इस प्रक्रिया को पहले चरण से आगे ले जाने में सक्षम नहीं होगा. इस प्रक्रिया में अनुच्छेद 124 (2), 124 (4), 124 (5) और जजेज़ इन्क्वायरी एक्ट, 1968 की अहम भूमिका होती है.
इस प्रकार, सबसे पहले महाभियोग के प्रस्ताव का नोटिस लोकसभा के 100 सदस्यों या राज्यसभा के 50 सदस्यों द्वारा दी जाती है.
यह संभव है क्योंकि राज्यसभा में विपक्ष के पास इसके लिए पर्याप्त संख्या है.
इसके बाद, लोकसभाध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति इस प्रस्ताव को ठुकरा या स्वीकार कर सकते हैं.
इस बात की काफी संभावना है कि इसे लोकसभाध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति, जोकि भारत के उप – राष्ट्रपति हैं, द्वारा ठुकरा दिया जाये.
अगर किसी तरह से इन चरणों को पार कर लिया गया, जिसकी संभावना क्षीण है, तब एक समिति का गठन किया जायेगा जिसमे सुप्रीम कोर्ट के जज, किसी एक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीश और एक नामचीन जूरिस्ट शामिल होंगे. यह समिति संबंधित जज, इस मामले में भारत के मुख्य न्यायधीश, के खिलाफ एक ठोस आरोपपत्र तैयार करेगी. यह समिति एक बेंच के तौर पर कार्य करेगी और जरुरी लगने पर गवाहों से पूछताछ करेगी.
अपनी कवायद पूरी करने के बाद समिति अपनी रिपोर्ट संसद को सौंपेगी. इस मुकाम पर, समिति इस मामले में मुख्य न्यायधीश को बरी कर सकती है और कार्यवाही को अंतिम रूप से बंद कर सकती है.
अगर समिति महाभियोग प्रस्ताव को मान लेती है, तो उसे दोनों सदनों में दो – तिहाई बहुमत से पारित होना जरुरी है.
अभी सभी विपक्ष दलों को मिलाकर भी इतना बहुमत नहीं है. इसके आलावा, समिति द्वारा जज को दोषी मान लिए जाने के बावजूद संसद उसके खिलाफ कार्रवाई नहीं करने का विकल्प चुन सकती है.
अगर इस चरण को भी पार कर लिया जाता है, जोकि पिछले मामलों में नहीं हुआ, तो राष्ट्रपति से उस जज को बर्खास्त करने की सिफारिश की जायेगी. राष्ट्रपति ऐसा तभी करेंगे जब संसद के दोनों सदनों द्वारा उस जज को बर्खास्त करने के पक्ष में प्रस्ताव पारित किया गया हो.
अगर यह असंभव नहीं, तो इसकी संभावना बेहद क्षीण है.
भारत में महाभियोग का सामना करने वाले जजों की सूची ज्यादा लंबी नहीं है. इस सूची पर निगाह डालने से यह साफ़ होता है कि यहां महाभियोग की प्रक्रिया कभी भी आखिरी मुकाम तक नहीं पहुंची, लेकिन इसने जजों को इस्तीफा देने के लिए मजबूर जरुर कर दिया.
2011 में कलकत्ता हाईकोर्ट के न्यायधीश सौमित्र सेन का मामला महाभियोग के काफी करीब पहुंचा. श्री सेन पहले ऐसे जज बने जिनके खिलाफ राज्यसभा ने एक प्रस्ताव पारित कर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया. लोकसभा द्वारा इस प्रक्रिया को पूरा करने के पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया.
सिक्किम हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीश पी डी दिनाकरण ने भ्रष्टाचार का आरोप में एक न्यायिक जांच समिति का सामना किया. जुलाई 2011 में संसद द्वारा उनके खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू किये जाने से पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया.
गुजरात हाईकोर्ट के न्यायधीश जे डी पारदिवाला के खिलाफ 2015 में राज्यसभा के 58 सदस्यों ने “आरक्षण के मुद्दे पर उनकी आपत्तिजनक टिप्पणी” के लिए महाभियोग का नोटिस दिया. सांसदों द्वारा राज्यसभा के तत्कालीन सभापति और उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी को नोटिस सौपे जाने के कुछ घंटों के भीतर ही न्यायमूर्ति पारदिवाला ने अपनी टिप्पणी वापस ली.
पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीश वी रामास्वामी पहले ऐसे जज बने जिनके खिलाफ 1993 में लोकसभा के माध्यम से महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की गयी. सदन में अनुपस्थित रहने के कांग्रेस पार्टी के निर्णय की वजह से महाभियोग के प्रस्ताव को पारित होने के लिए आवश्यक दो –तिहाई बहुमत नहीं जुट सका.