लकीर का फकीर वाला बजट
बजट में घोषित दर्जनों स्कीमों का हश्र प्रभावहीन होना है
प्रत्येक बजट सरकार के चरित्र से मेल खता है. इसकी मंशा होती है अख़बारों की सुर्खियाँ बटोरना तथा साथ में चालू राजनीतिक मुहावरे में एक संदेश देना. दोनों ही नजरियों से जो बात उछाली जा रही है वह है चुनावी गणित की दृष्टि से. कहा जा रहा है कि ये ग्रामीण भारत को लुभाने का 2019 से पहले का भाजपा का बड़ा दांव है. यह सच है कि लगभग सात दशक के तथाकथित विकास के बाद भी अधिकांश ग्रामीण भारतवासी आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित हैं. गंदगी, बीमारी, कुपोषण तथा साफ़ – सुथरे परिवेश में जिंदगी बिताने के जरुरी सुविधाओं के अभाव में उनका सफ़र मुश्किलों भरा बना रहता है. आये दिन ख़बर आती रहती है कि किस तरह सरकारी दवा-दारू की सुविधा अपर्याप्त, महंगी तथा काफी दूरी पर उपलब्ध होने के कारण गरीबी के दर्द में कर्ज के बोझ का दंश भी जुड़ जाता है. इसलिए करोड़ों गांव वासियों के लिए प्रति परिवार 5 लाख तक के स्वास्थ्य बीमा की तजबीज काफी लुभावनी प्रतीत होती है.
किन्तु इस मसले पर थोडा ध्यान से देखने पर शायद उत्साह कुछ ठंडा होने लगेगा. याद कीजिये कि दो साल पहले के बजट में भी एक ऐसी ही घोषणा की गयी थी जिसके तहत प्रति परिवार एक लाख रूपए का सालाना बीमा कवर देने और साथ में 60 साल के ग्रामीण के लिए 80 हजार रूपए का अतिरिक्त बीमा देने की बात प्रमुखता से प्रचारित की गयी थी. ऐसी घोषणाओं के बारे में लोगों की यादाश्त कमजोर होती है. पांच सदस्यों के परिवार के लिए 5 लाख तक की बीमा की बात कही गई है. करीब 70 करोड़ गांव वालों में से 10 करोड़ परिवारों का चयन किस तरह किया जायेगा, किस किस्म की हारी – बीमारी में यह सहायता किस तरह दी जायेगी, मसलन कैशलेस आधार पर या खर्च करने के बाद नकद भरपाई की जायेगी. और किस एजेंसी या अस्पताल या डॉक्टर के जरिए यह सुविधा गांव वालों को मिल पायेगी आदि ऐसे सवाल हैं जो लाभार्थियों के जेहन में स्वाभाविक रूप आयेंगे. इस योजना का असली असर इस घोषणा पर निर्भर नहीं रहेगा कि यह ओबामा केयर से भी बड़ी स्कीम है. यह तो इस बात पर निर्भर करेगा कि कितने लोग किस सीमा तक इसका लाभ उठा पाते हैं. क्या इस स्कीम के लिए केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के लिए किया गया आवंटन पर्याप्त होगा या राज्यों को भी इसमें शामिल किया जायेगा? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो जमीनी हकीकत को तय करेंगे या प्रभावित करेंगे. वैसे, पिछले बजट के स्कीम के अनुसार प्रति परिवार डेढ़ लाख रूपए के बीमे की व्यवस्था की ही गयी थी. उस स्कीम पर किये खर्च और लाभार्थियों की संख्या का इस साल बजट में नामोनिशान तक दिखायी नहीं दिया. इसलिए कहा जा सकता है कि जब बजट की घोषणाएं और तालियों की गडगडाहट बासी पड़ जायेगें तो सवाल जमीनी असर और लाभ का आएगा. ये ही तथ्य इस स्कीम के वास्तविक चरित्र को निर्धारित करेंगे और यही इस स्कीम और बजट की ग्रामीणों के प्रति प्रतिबद्धता की असलियत बतायेंगे. कहा जाता है कि 2004 के चुनाव में खाद्य सुरक्षा और मनरेगा की व्यवस्था ने लोगो को बहुत लुभाया था. क्या यह आंशिक, अनिश्चित और अपरिभाषित बीमा जैसी कागजी व्यवस्था लोगो को मनरेगा और खाद्य सुरक्षा व्यवस्था जैसे ठोस लाभ देने वाली व्यवस्था जैसी कारगर साबित हो पायेगी?
हमने इस बहुप्रचारित स्कीम से अपने बजट विश्लेषण की शुरुआत इसलिए की है ताकि ये स्पष्ट हो जाये कि क्या इस स्कीम की वाहवाही के शोर के नीचे इस बजट का असली कारपोरेट सेक्टर का पक्षपाती और ढाक के तीन पात की तरह जीडीपी वृद्धि के प्रति समर्पित चरित्र छिप पायेगा? कुछ खास तथ्यों पर गौर कीजिये. पूरे बजट में कुल मिलाकर केन्द्रीय सरकार का सारा सार्वजनिक खर्च 24 लाख करोड़ रूपए अनुमानित है. यह राशि भारत की संपूर्ण राष्ट्रीय आय का 10 प्रतिशत के करीब बैठता है. साथ में हमने बहरहाल भारत में बढती आर्थिक असमानताओं के कुछ अंतरराष्ट्रीय आंकलन देखें हैं. इनके अनुसार 2017 में तीन प्रतिशत भारतीयों के हाथ में भारत की सम्पूर्ण राष्ट्रीय सम्पदा का 73 प्रतिशत केन्द्रित था. पिछले एक साल में, इस सम्पदा का अति सीमित हाथों में केन्द्रित होने का अनुपात 21 प्रतिशत बढ़ गया है. इससे साबित होता है कि हमारी मुख्य बजटीय, वितीय और औद्योगिक एवं अन्य आर्थिक नीतियों का मुख्य प्रभाव बड़ी कंपनियों और उनके इर्द गिर्द के चंद लोगों की सम्पदा को बढ़ाते रहना है.
असमानता रोजगार वृद्धि की सबसे बड़ी दुश्मन
यह भी जगजाहिर है कि असमानता रोजगार वृद्धि की सबसे बड़ी दुश्मन है. जहां – जहां और जब – जब आय, संपत्ति और आर्थिक शक्ति कुछ लोगों के हाथो में केन्द्रित होती है तो रोजगार बढ़त की दर घट जाती है. ऊंची आमदनी वाले तबकों की मांग महंगी और पूंजी प्रधान वस्तुओं और सेवाओं की होती है. उनके उत्पादन में आयातित माल का अनुपात भी ऊंचा होता है. ऐसे साजो- सामान के उत्पादन का हमारे विदेशी व्यापर संतुलन और पर्यावरण पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. यह भी नहीं भूलना चाहिए कि काले धन के उत्पादन और संग्रहण में सबसे बड़ी भूमिका धनी तथा शक्तिसंपन्न लोगों की होती है. इसी काले धन के बूते पर सारे चुनाव जीते जाते हैं. इस निजी हाथो में केन्द्रित श्वेत – श्याम यानि मटमैली अर्थव्यवस्था की प्रतिरोधी ताकत सार्वजनिक या सरकारी या संगठित विशाल जनशक्ति के हाथो में ही हो सकती है. हमारे राष्ट्रीय आय के अनुपात में हमारे केन्द्रीय बजट का छोटा सा आकार और उस बजट की नीतियों और आवंटन का चरित्र आम आदमी की घोर उपेक्षा करता है. साथ में यह नजर आता है कि सार्वजनिक व्यय और सार्वजनिक राजस्व दोनों ही बड़ी कंपनियों, महानगरों, उंच्च मध्यम वर्ग आदि की ओर बहुत ही ज्यादा झुका होता है. यदि आम आदमी, गरीब तबकों , दलितों , आदिवासियों की संख्या को उनकी बहुत बड़ी और उपेक्षित आवश्यकताओं के परिपेक्ष्य में देखें, तो साफ़ नजर आएगा कि कुछ चंद हजार रुपयों के बलबूते पर चालू की गयी जनपक्षीय और लोकलुभावन योजनाएं जमीनी स्तर पर कोई उचित और पर्याप्त जनहितकारी प्रभाव पैदा नहीं कर पाती हैं. जैसा हमने शुरू में ग्रामीण स्वास्थ्य बीमा योजना का उदहारण देते हुए दिखाया था, बजट में घोषित दर्जनों स्कीमों का हश्र प्रभाव - शून्य और प्रभावहीन होना है. ऐसा लगता है कि ऐसी स्कीमों के माध्यम से वोटों की फसल काटने की मुहीम भी बहुधा नाकामयाब रह जाती है. इसलिए उसे तरह – तरह की जुमलेबाजी और काले धन की ताक़त पर संचालित चालबाजियों के आधार पर सत्ता हथियाने के काम में लगाया जाता है. भारतीय बजट और अन्य आर्थिक नीतियों के असली राजनीतिक आर्थिकी दशकों से इसी लकीर को पीट रही है. इसलिए, प्रभावी और प्रतिबद्ध राजनीतिक आर्थिकी की जरुरत हर बार बजट के मौकों पर फिर से रेखांकित होती है.
( लेखक सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री है )