कंधमाल हिंसा का दसवां साल : जितना भी हम इसे भूलना चाहें
16 राज्यों में ईसाईयों पर लगातार आक्रमण हो रहे हैं.
भारत के उत्तरपूर्वी राज्य ओडिशा के कंधमालमें रहनेवाले ईसाईयों के विरुद्ध पहली बड़े स्तर की हिंसा को भूलकर, ईसाई समाज आगे बढ़ना जाना चाहे तो भी कंधमाल के दुःख पीछा नहीं छोड़ते । हमें लगता है कि कंधमाल हिंसा की दसवी वर्षगांठ पर 25 अगस्त से 2 सितम्बर तक कंधमाल का स्मरण सप्ताह मनाने के अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं है.
10 वर्ष पूर्व क्या हुआ था
24 अगस्त 2008 की रात स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की ईसाईयों द्वारा कथित हत्या (हालांकि बाद की जांच पड़ताल में यह स्पष्ट हो गया कि इसके पीछे माओवादियों का हाथ था) की प्रतिक्रियास्वरुप हिंसक भीड़ ने निर्दयता पूर्वक ईसाईयों तथा उनके घरों और चर्चों पर आक्रमण किया. 100 से अधिक लोग मारे गए, 50000 दे अधिक लोगों को अपनी जान बचने के लिए अपने घरों से और गाँवों से निकलकर जंगलों और राहत शिविरों में शरण लेना पड़ा. 8,000 से अधिक घरों को लूटा और जला दिया गया. 300 से अधिक चर्च नष्ट किये गए. लगभग 12,000 बच्चों की पढ़ाई में बाधा आई और उन्हें विस्थापित होना पड़ा. उन दिनों एक युवा वकील होने के नाते मैंने पाया कि उन असहाय पीड़ितों और उनके परिवारों तक आवश्यक राहत पहुँचाने के लिए मुझे बुलाया जा रहा है. अतः अनेक संगठनों के सहयोग से ओडीशा लीगल ऐड सेंटर की स्थापना हुई. हालाकि संसाधन सीमित थे, किन्तु समर्पित वकीलों और कार्यकर्ताओं ने कमी पूरी कर दी.
जैसे जैसे हम एक गाँव से दूसरे गाँव, एक राहत शिविर से दूसरे राहत शिविर गए, हिंसा की घटनाओं का और ज्यादा भयानक रूप सामने आता चला गया - भीड़ द्वारा निर्दयतापूर्वक मारे गए लोग, इंसानों के अन्दर होते हुए भी घरों को जला दिया गया, एक गर्भवती महिला अपनी जान बचने के लिए जंगल में भाग गयी, जहाँ पर उसे समय से पूर्व प्रसव हुआ और उसने पत्थर से गर्भनाल को काट कर अलग किया.
इतने बड़े पैमाने पर इतनी तीव्र हिंसा देख कर वकीलों और कार्यकर्ताओं का हमारा छोटा सा समूह सोच में पड़ गया कि कि इस उग्रता और बैर का जवाब कैसे दिया जाये. उस समय कि सबसे बड़ी और जरूरी आवश्यकता थी राहत और पुनर्वास, इस कारण स्वाभिक रूप से कानूनी कार्यवाही नहीं करने का निर्णय लिया गया. किन्तु कुछ महीने बीतने के बाद हमारी टीम तथा अन्य संस्थाओं ने मुक़दमे दायर करने का काम आरंभ किया, जिससे पीडितों को नुकसान की भरपाई हो तथा अभियोग में सहायता मिल सके.हम विभिन्न जिला अदालतों, उच्च न्यायलय और उच्चत्तम न्यायलय के समक्ष 200 से अधिक केस दायर करने में सफल हुए.
जब हत्या करनेवाली भीड़ के सदस्यों को आजीवन कारावास दिलवाया हमारी टीम को बड़ी सफ़लता तब मिली जब पास्टर अकबर दीगल की हत्या करनेवाली भीड़ के सदस्यों को सबसे पहले हम आजीवन कारावास दिलवा पाए. इसके साथ ही मैं यह भी स्वीकार करती हूँ कि पीढ़ितों को न्याय दिलवाने के हमारे भरसक प्रयास के बाद भी हम बहुत थोड़ा ही कर पाए.
उच्चतम न्यायलय ने 2016 में आर्चबिशपचीनथकी याचिका के निर्णय1में अतिरिक्त 'नुकसान की भरपाई'देते हुए कहा कि "राज्य कि ओर से दाखिल शपथ पत्र से यह खुलासा हुआ कि दायर किये गए 827 प्रकरणों में से 512 में चार्ज शीट फाइल की गयी और 315 में अंतिम रिपोर्ट जमा कि गयीं. दूसरे शब्दों में, 315 प्रकरणों में या तो कोई अपराध बना ही नहीं या अपराधियों की पहिचान नहीं हो पाई.इतना बड़ा अनुपात काफी परेशान करनेवाला है. राज्य इन 315 प्रकरणों की जांच करवा कर अपराधियों को दंड मिलना सुनिश्चित कर सकता है. इसी प्रकार जिन 362 मुकदमों में सुनवाई पूरी हो चुकीं हैं, उनमें से केवल 78 में दंड मिला है जो कि एक चिंता का विषय है. सम्बंधित अधिकारियों को यह देखना चाहिए कि जहां कहीं रिहाई हुई है, यदि वह तथ्यों के आधार पर सही नहीं है तो उन मामलों कि जांच पुनः कि जाये."
उच्चतम न्यायलय ने इस खामी को स्वीकार करते हुए प्रत्येक पीड़ित को अतिरिक्त मुआवजा देने का निर्णय सुनाया. हालाकि 2016में ये निर्देश दे दिए गए थे फिर भी पीड़ितों को यह मुआवजा नहीं दिया गया जब तक कि ए.डी.एफ. इंडिया ने सहयोगी अधिवक्ता तथा ओडिशा लीगल ऐड सेंटर के निर्देशक एडवोकेट प्रताप छिनचानी के साथ मिलकर श्रंखलाबद्ध रीति से अनेक याचिकाएं दायर नहीं कीं. अंततः मार्च 2018 में ओडिशा राज्य ने जिला अधिकारीयों को 13 करोड़ रूपये की रकम कंधमाल के पीड़ितों में बांटने के लिए दी. इस प्रकार हिंसा के दस वर्षों के बाद ओडिशा के पीडितों को उनका उचित मुआवजा मिला.
भारत देश में जिस प्रकार से बार-बार और जैसी तीव्रता से सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं हो रहीं हैं, उससे हम इस दसवीं वर्षगांठ पर बहुत से पाठ सीख सकते हैं. पिछले कुछ वर्षों में हमने सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा में अचानक से बहुत वृद्धि देखी है.
केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा संसद में प्रस्तुत किये गए आकड़ों के अनुसार पिछले तीन वर्षों में सांप्रदायिक घटनाएं 28% बढ़ी हैं तथा 2017 में 822 "घटनाएं" दर्ज कि गयी है, जिनमें 111 लोग मारे गए तथा 2,384 अन्य घायल हुए. ईसाई अल्पसंख्यक समुदाय के विरुद्ध होनेवाली हिंसा में धार्मिक विश्वास पर आधारित मानवाधिकार संस्थाओं ने पिछले चार वर्षों में 800 से अधिक घटनाएं दर्ज कि हैं. भारत के 29 राज्यों में से कम से कम 16 राज्यों में ईसाईयों पर लगातार आक्रमण हो रहे हैं.
छत्तीसगढ़ इस सूची में सबसे ऊपर है, इसके बाद तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र हैं. बिहार, दिल्ली, हरयाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखण्ड, कर्नाटक, पंजाब, तेलंगाना, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल अन्य ऐसे राज्य हैं जहाँ ईसाईयों के विरुद्ध हिंसा होती रहती है. छत्तीसगढ़, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश इन चारों राज्यों में 50% से भी अधिक घटनाएं दर्ज हुई हैं. इन घटनाओं में हिंसा का स्वरुप अलग अलग है, जैसे - घर वापसी, आराधनालय स्थापित करने और चलाने की अनुमति ना देना, जबरदस्ती या लालच देकर धर्म परिवर्तन करवाने का झूठा आरोप, चर्च के पास्टरों और सदस्यों पर शारीरिक एवं मौखिक हमले, आराधना स्थलों को नुकसान पहुंचना और अपवित्र करना तथा उसमें लूट-पाट करना, प्रार्थना सभाओं में अवरोध डालना तथा धार्मिक सभाओं पर प्रतिबन्ध लगाना.
इस लगातार होनेवाली हिंसा को देखते हुए आर्चबिशप चीनथ के मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट का बयान प्रासंगिक है. कोर्ट ने अपने फैसले में दोहराया है कि "... अल्पसंख्यक उतने ही माटी पुत्र हैं जितने कि बहुसंख्यक और प्रयास यह सुनिश्चित करना है कि ऐसा कुछ ना किया जाये जिससे कि अल्पसंख्यक लोग अपने जुड़े होने का भाव, सुरक्षा भाव, बराबरी की विवेकशीलता, तथा अपने धर्म, संस्कृति, भाषा और लिपि की सुरक्षा के साथ साथ अपने शिक्षण संस्थानों कि सुरक्षा का संविधान में निहित मौलिक अधिकार खो दें."
".....निश्चय ही एक राष्ट्र के अल्पसंख्यक अपने आप को कितना सुरक्षित महसूस करते हैं तथा भेदभाव और दमन का शिकार नहीं बनते हैं, यह बात उस राष्ट्र की सभ्यता के स्तर एवं उदारता की संकेतक है."
किन्तु हिंसा का समाधान केवल न्याय से नहीं होगा. इस समस्या के जड़ से निवारण करने के लिए यह अनिवार्य है कि चर्च एवं नागरिक संगठन उस सत्य के द्वारा उन झूठी बातों का सामना करें जो बार-बार समाज के विरोध में कही जाती हैं. ईसाईयों को भारत का इतिहास पढ़ने, उग्र राष्ट्रवादी संगठनों की युक्तियों को समझने तथा सोशल मीडिया पर भारत की विविधता एवं मिश्रित संस्कृति पर लेख, ब्लॉग, वीडियो इत्यादि बनाकर प्रसारित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए.