अटल जी की अस्थियां और मोदी शाह की राजनीति
अनिल चमड़िया
नई पीढ़ी को पुराने गाने अच्छे नहीं लगते हैं। नये गानों में जो गति होती है वह नई पीढ़ी की गति से मेल खाती है।हालांकि यह उदहाऱण इस वक्त के लिए बेमेल हैं जब मनुष्य के लाश में तब्दील हो जाने के बाद उसके साथ होने वाले व्यवहारों पर बातचीत की जानी हो। किसी विशेष समय काल में गति की ही तरह इंसानी और सामाजिक व्यवहार भी नये रुप में सामने आते हैं। हम बचपन से पढ़ते आ रहे हैं या घर में सुनते आ रहे थे कि धर्म निरपेक्ष जवाहर लाल नेहरु की अस्थियां जगह जगह बिखेरी गई थी, उन जगहों पर भी जो हिन्दू धर्मावालंबियों के आस्था के केन्द्र के रुप में भारतीय समाज के बीच स्थापित हैं। तब से मनुष्यों और नेताओं के मरने के बाद पारिवारिक,सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर लाशों के साथ होने वाले व्यवहारों में बदलाव देखने को मिल रहा है।
भारतीय समाज में लाश उन लोगों के लिए सहानुभूति प्राप्त करने वाले एक पात्र के रुप में परिवर्तित हो जाता है जो अपनी शेष जिंदगी के लिए उसे उपयोगी समझता है। राजनीतिक स्तर पर लाशों की राजनीति के साथ कुछ बुनियादी बदलाव हो चुके हैं। राजनीति में लाशों से परिजनों को सहानुभूति प्राप्त हो सकती है, यह चुनावी गणित के हिसाब के कमोबेश सही साबित हुआ है। लेकिन बदलाव इस रुप में भी आया है जब लाशों को राजनीतिक स्तर पर प्रतिक्रिया पैदा करने की ताकत रखने वाले पात्रों के रुप में इस्तेमाल करते देखा गया है। लेकिन उस लाभ उठाने की प्रवृति को समाज ने तेजी से अस्वीकार भी किया है।यह बदलाव भी देखने को मिला है।
देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की मौत के बाद शोक के दृश्यों के जरिये इंसानी और राजनीतिक व्यवहार में आए बदलाव को देखा जा सकता है। शोक में शामिल लोगों को हंसी ठिठोली करते और मोबाईल से सेल्फी लेने के उदाहरण यह बताते है कि शोक के वक्त एक खास तरह के व्यवहार में
दिखने के दबाव से बेपरवाही दिखाई जा सकती है। यह बेपरवाही तभी होती है जब उस लाश के साथ रिश्ते के खो जाने का दर्द नहीं हो। दूसरा यह भी कि अस्थि कलश के लिए जो नदियां मानी जाती थी वे इंसानों के उपयोग के लिए नहीं रह गई है। गंगा यमुना को गंदा नाला कहा जाने लगा है।बहरहाल भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के पास आस्था के पुराने भाव मौजूद है और उन्होने उन्हीं भावों के साथ अटल बिहारी बाजपेयी की अस्थियों को अपने नीचे के नेताओं के जरिये देश की मिट्टी और पानी में मिलाने के कार्यक्रम आयोजित करवाए।राजनीतिक स्तर पर नये तरह के व्यवहार करने वाले भाजपा के नये नेता आस्था के पुराने भावों के साथ मेल कराने की कोशिश के रुप में इन कार्यक्रमों को महसूस किया गया.
सर्वविदित है कि अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय परिवार के उस बुजूर्ग की की हैसियत जैसे हालात में रहे हैं जो पिछले नौ सालों से बिस्तर पकड़ने के बाद उस परिवार के लिए केवल एक बुजूर्ग नाम भर रह जाते हैं। राजनीतिक स्तर पर किसी भी तरह की जरुरत के वे नहीं माने गए। लोकतंत्र में चुनाव को महाउत्सव कहा जाता है लेकिन इन वर्षों में उन उत्सवों में भी अटल जी की तस्वीरें भी उपयोगी नहीं रह गई थी। यदि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा और उनके गुजरात के ही अमित शाह के पार्टी अध्यक्ष के रुप में दिए गए भाषणों का एक अध्ययन करें कि उनमें कितनी बार अटल जी के बारे में और अटल जी को कितनी बार उद्धृत किया गया तो शायद यह स्पष्ट करने में मदद मिल सकती है कि अटल जी का किस हद तक उन लोगों से रिश्ता रह गया था । यह भी कि अटल जी की अस्थियां उठाकर नये तरह के राजधर्म को गढ़ने की कोशिश कितीन विद्रुपताओं के साथ सामने आ रही हैं।
नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की भारतीय जनता पार्टी और अटल जी की गति बेमेल हैं।अटल जी राजनीतिक स्तर पर सहानुभूति का लाभ पहुंचाने वाले पात्र के रुप में नहीं हो सकते हैं ।दूसरी तरफ उस गति से बहुत तेज रफ्तार में इनकी पार्टी पहुंच चुकी है जिस गति में अटल बिहारी वाजपेयी चल रहे थे। बल्कि यह कहा जाए कि गुजरात में 2002 को जब अटल जी ने राजधर्म की याद दिलाई और दूसरे दिन ही उसका 'इनकाउंटर' कर दिया गया तब अटल जी और उनकी पार्टी के बीच रिश्ते का लिंक तोड़ देने का ऐलान कर दिया गया था और वह उनके अंत तक बरकरार रहा।
राजनीतिक सहानुभूति के लिए रिश्तों में एक निरंतरता की जरुरत महसूस की जाती है।जिस तरह की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी है उसमें नेताओं के साथ रिश्तों में एक निरंतरता संभव नहीं है। हर कदम पर एक खास समय का नेता अतीत के एक पात्र के रुप में खड़ा दिखाई देने लगता है। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की पार्टी अटल जी के साथ अपने राजनीतिक व्यवहारों का कोई मेल होने का संदेश भी निर्मित नहीं कर सकते हैं। इस तरह से भी समझा जाए कि यह हिन्दू के सैन्य करण का दौर है और अटल जी का दौर राजनीति के हिन्दूकरण की प्रक्रिया का हिस्सा था। समय इतना आगे निकल चुका है कि अटल जी की उदार और संसदीय मुल्यों के पक्षधर होने की जो छवि उभारी जा रही है वह नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के किसी काम की नहीं है।बल्कि ये कहा जा सकता है अटल जी की इस छवि के ज्यादा प्रचारित होने का राजनीतिक नुकसान नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की पार्टी को उठाना पड़ सकता है।
अस्थियां यदि राजनीतिक स्तर पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने की ताकत रखती है तो यह प्रतिक्रिया एक के फायदे के लिए होती है तो दूसरा उसका पक्ष नुकसान उठाने वाले का भी होता है।