आरएसएस मुखिया मोहन भागवत ने 17 से 19 सितंबर 2018 तक दिल्ली के विज्ञान भवन में संघ द्वारा आयोजित तीन-दिवसीय व्याख्यान श्रृंखला ‘भविष्य भारत काः आरएसएस परिपेक्ष्य ‘ को संबोधित किया। आरएसएस ने इस आयोजन में जीवन के सभी क्षेत्रों की जानीमानी हस्तियों को आमंत्रित किया था। इनमें शामिल थे विपक्षी पार्टियों के नेता, कलाकार, लेखक, उद्योगपति इत्यादि। लक्ष्य था भारत के भविष्य के बारे में संघ की सोच से उन्हें अवगत कराना।

कार्यक्रम को संबोधित करते हुए भागवत ने कुछ ऐसी बातें कहीं, जो संघ की मूल विचारधारा और विभिन्न मुद्दों पर उसके पुराने नजरिए से मेल नहीं खाती थीं। कई अध्येताओं और लेखकों ने भागवत के भाषण की विवेचना करते हुए यह सवाल उठाया है कि क्या आरएसएस का सचमुच ह्दयपरिवर्तन हो गया है या यह सिर्फ हिन्दुत्व को एक ऐसी नई पैकेजिंग में प्रस्तुत करने का प्रयास है ताकि वह सभी को स्वीकार्य हो सके और संघ के आलोचकों का मुंह बंद किया जा सके। यह लेख आरएसएस के मूल विचारों और भागवत के भाषण के निहितार्थों पर केन्द्रित है।

सबसे पहले हम यह देखें कि भागवत ने नया क्या कहा। सबसे पहले, उन्होंने कहा कि संघ, भारत के संविधान और उसकी उद्धेष्यिका का सम्मान करता है। दूसरे, उन्होंने सभी को आश्चर्य में डालते हुए कहा कि मुसलमान, भारत में अवांछित नहीं हैं और हिन्दुत्व उन्हें अपना मानता है। उन्होंने यह भी कहा कि संघ, आरक्षण के विरूद्ध नहीं है और वह भाजपा को नियंत्रित नहीं करता।

इस सम्मेलन और उसमें दिए गए भागवत के भाषण ने पूरे देश का ध्यान आकर्षित किया और कई कयासों को जन्म दिया। परंतु यह पहली बार नहीं है कि आरएसएस ने अपना चोला बदलने का प्रयास किया हो। पिछले कई वर्षों से आरएसएस लगातार कई मुद्दों पर अपने कड़े रूख को नरम और लचीला करता आया है। यह मानना गलत होगा कि संघ अतीत में कैद है और प्रासंगिक बने रहने के लिए व राजनैतिक और सामाजिक आवश्यक्ताओं के अनुरूप अपने मूल विचारों में परिवर्तन नहीं कर रहा है। समय के साथ और अपने एजेंडे में जरूरी परिवर्तन करने के लिए संघ ने कई बार अपने ही पुराने नजरियों और विचारों का सार्वजनिक रूप से खंडन किया है।

इस परिवर्तन यात्रा को तीन चरणों में बांटा जा सकता है। पहला चरण है सन् 1925 में आरएसएस के गठन से लेकर स्वतंत्रता तक का काल। यह सभी को ज्ञात है कि आरएसएस एक हिन्दू श्रेष्ठि वर्गों का संगठन है, जिसका गठन ऊँची जातियों के पुरूषों ने किया था। आरएसएस की स्थापना का उद्धेष्य था हिन्दू राष्ट्र का निर्माण। हिन्दू राष्ट्र एक एकाधिकारवादी व अतिराष्ट्रवादी देश होगा, जहां ऊँची जातियों के हिन्दू पुरूषों का बोलबाला होगा। उस समय आरएसएस के आदर्श, भारत के स्वाधीनता संग्राम के नेतृत्व के आदर्शो से एकदम भिन्न थे। स्वाधीनता आंदोलन समावेशी था और गरीब, भूमिहीन श्रमिकों और किसानों के शोषण का अंत करने का हामी था। नेहरू, गांधी, भगतसिंह और स्वाधीनता संग्राम के अन्य नेता, जातिगत और लैंगिक समानता, हिन्दू-मुस्लिम एकता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के समर्थक थे। इसके विपरीत, आरएसएस की नींव मुसलमानों, ईसाईयों और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा पर रखी गई थी। गोलवलकर के अनुसार, मुसलमान और ईसाई, देश के लिए आंतरिक खतरे और इस प्रकार राष्ट्र के शत्रु हैं। अपनी पुस्तक ‘बंच ऑफ़ थाट्स‘ में गोलवलकर जोर देकर कहते हैं कि केवल हिन्दू ही भारत के सच्चे नागरिक हैं। सावरकर के अनुसार, हिन्दू वह है जिसकी पुण्यभूमि और जन्मभूमि दोनों भारत में हैं। सावरकर का कहना था कि वैदिक धर्म, सनातन धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सिक्ख धर्म को मानने वालों के साथ-साथ लिंगायत व आर्य समाज, ब्रम्हो समाज, देव समाज, प्रार्थना समाज इत्यादि जैसे हिन्दुस्तानी मूल के धर्मों में विश्वास रखने वाले हिन्दू हैं। उनकी राय थी कि भारतीय मुसलमान, ईसाई, यहूदी और पारसी स्वयं को हिन्दू नहीं कह सकते फिर चाहे भारत उनकी जन्मभूमि क्यों न हो। इसका सीधा अर्थ यह था कि ये लोग हमेशा देश के दूसरे दर्जे के नागरिक रहेंगे और अगर उन्हें भारत में रहना है तो उन्हें हिन्दुओं की अधीनता स्वीकार करनी होगी। यही हिन्दुत्व का सार था। इसी सोच के चलते संघ ने स्वाधीनता आंदोलन में हिस्सेदारी नहीं की और अंग्रेजों, राजे-रजवाड़ों और जमींदारों का साथ दिया। चूंकि संघ ऊँची जातियों के विषेषाधिकारों और उनकी सत्ता को बनाए रखना चाहता था इसलिए उसने सामाजिक और राजनैतिक सुधारों के सभी प्रयासों का विरोध किया।

संघ की परिवर्तन यात्रा का दूसरा चरण, स्वतंत्रता से लेकर सन् 2014 तक चला। सन् 2014 में भाजपा केन्द्र में अपने बलबूते पर सत्ता में आई। सन् 1948 में गांधीजी की हत्या के बाद, संघ पर कुछ समय तक प्रतिबंध लगा दिया गया था। इस कारण वह सार्वजनिक रूप से अपनी गतिविधियां नहीं कर पाया। आपातकाल के दौरान भी संघ पर प्रतिबंध लगाया गया था। इस चरण में राज्य की सतत निगरानी के कारण और सत्ता पर नियंत्रण न होने के चलते संघ को अपने एजेंडे को लागू करने का कार्य दबे-छिपे ढंग से करना पड़ा। इसी दौरान अपने जनाधार को विस्तार देने के लिए और समाज के सभी वर्गों तक अपनी पहुंच बनाने के लिए, संघ ने कई अनुषांगिक संगठनों की स्थापना की। इनमें शामिल थे भारतीय किसान संघ, भारतीय मजदूर संघ, राष्ट्रसेविका समिति, राष्ट्रीय महिला मंच इत्यादि। इनमें से कई संगठनों के हित परस्पर विरोधाभासी थे। छोटे व्यापारियों के एक ऐसे संगठन, जो बड़े पूंजीपतियों का विरोधी था, की जगह संघ अब सहचर पूंजीवाद का समर्थक बन चुका था।

इसके अतिरिक्त, संघ ने साम्प्रदायिक हिंसा और अल्पसंख्यकों के बारे में दुष्प्रचार के जरिए समाज का धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण भी किया। अपनी शाखाओं, साहित्य और प्रशिक्षित स्वयंसेवकों को विभिन्न संगठनों और संस्थाओं में प्रविष्ट कर, संघ ने कई तरह के झूठ प्रसारित और प्रचारित किए। इनमें शामिल था मुसलमानों को बाहरी, राष्ट्रद्रोही, गौमांस भक्षक और आतंकवादी बताना। संघ ने यह भ्रांति भी फैलाई कि भारत की मुस्लिम आबादी इतनी तेजी से बढ़ रही है कि जल्दी ही देश में मुसलमानों की संख्या इतनी हो जाएगी कि वे हिन्दुओं को अपना गुलाम बना लेंगे। इस दुष्प्रचार ने समाज में जहर घोल दिया और साम्प्रदायिक दंगे और हिंसा करवाना आसान बना दिया। बजरंग दल और इस तरह के अन्य संगठन, नीची जातियों के व गरीब हिन्दुओं को संगठित कर उन्हें हिन्दू धर्म में एक पहचान और स्वीकार्यता का भाव देने में जुट गए। संघ अब एक सांस्कृतिक संगठन बन चुका था, जो अपना सांस्कृतिक एजेंडा देश पर थोपना चाहता था।

राजनैतिक दृष्टि से आरएसएस भारत को एक आधुनिक राष्ट्र-राज्य नहीं मानता था। उसके लिए भारत एक एकसार राष्ट्र था, जिसकी एक भाषा, एक धर्म, एक संस्कृति और एक पहचान (हिन्दू) थी।

आरएसएस की परिवर्तन यात्रा का तीसरा चरण शुरू हुआ भाजपा के अपने बलबूते पर दिल्ली में सत्ता में आने के बाद से। अब आरएसएस खुलकर अपना एजेंडा लागू कर सकता था और अपने विचारों को औचित्यपूर्ण ठहरा सकता था। हालिया सम्मेलन को इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए। संघ की कोशिश यह है कि वह उन उदारवादियों में अपनी पैठ बनाए जो संघ की विचारधारा के कटु विरोधी और आलोचक हैं। संघ को हिन्दू राष्ट्र का अपना एजेंडा आगे बढ़ाने के लिए पहले अपने सांस्कृतिक एजेंडे को लागू करना होगा ताकि उसकी परिकल्पना का एकाधिकारवादी राष्ट्र आकार ले सके। भागवत ने इस सम्मेलन में संघ के सांस्कृतिक एजेंडे को ही देश के सामने रखा। मूल विचार वही थे, केवल कुछ शाब्दिक और सतही परिवर्तन कर उन्हें उदारवादी चोला पहनाने का प्रयास किया गया था।

भागवत के भाषण से यह स्पष्ट है कि संघ इस चरण में भी अपने जिन विचारों और नजरिए को नहीं त्यागेगा वे हैं:

जाति आधारित पदक्रम

संघ, ऊँची जातियों के हिन्दू पुरूषों का वर्चस्व बनाए रखना चाहता है। इसके लिए उसे धर्म, जाति और लिंग- तीनों से जुड़े मुद्दों पर काम करना होगा क्योंकि ये तीनों ही इस वर्चस्व का आधार हैं। यद्यपि आरएसएस ने अनमने ढंग से यह स्वीकार किया है कि अछूत प्रथा गलत है और आधुनिक भारत में उसके लिए कोई स्थान नहीं है परंतु उसने कभी जाति प्रथा को गलत नहीं बताया। अपनी कल्पना के हिन्दू समाज की विभाजक रेखाओं को कम गहरा करने के लिए संघ, समय-समय पर अंबेडकर की तारीफ करने लगा है और उसके व भाजपा के नेता, दलितों के घर जाकर भोजन करने जैसे तमाशे कर रहे हैं। परंतु अंबेडकर जाति व्यवस्था के पूर्ण उन्मूलन के हामी थे। यह संघ को स्वीकार्य नहीं है।

आरएसएस को गौरक्षा, रोहित वेम्यूला और हाथ से मैला साफ करने की प्रथा आदि जैसे मुद्दों पर दलितों के विरोध का सामना करना पड़ रहा है। इसलिए वह चाहता है कि जातिगत पहचान को राष्ट्रवाद और धर्म के जुनून में डुबा दिया जाए। परंतु जाति प्रथा फिर भी बनी रहेगी। ऊँची जातियों की संस्कृति और उनके मूल्य, राष्ट्र में सबसे अहम रहेंगे। दलितों को यह पढ़ाया जाएगा कि वे हिन्दू धर्म का हिस्सा हैं और उन्हें अपने धर्मावलंबियों के साथ मिलकर दोनों के शत्रु, मुसलमानों से निपटना है।

लैंगिक असमानता

संघ की महिलाओं के प्रति सोच भी अत्यंत प्रतिगामी है। संघ और मोहन भागवत यह मानते हैं कि महिलाओं की प्राथमिक भूमिका पत्नियों और माताओं के रूप में होनी चाहिए। संघ के कुछ नेताओं ने हिन्दू महिलाओं का आव्हान किया है कि वे राष्ट्र की खातिर कम से कम चार बच्चे पैदा करें। भागवत ने यह भी कहा कि चूंकि विवाह एक संविदा है अतः अगर पत्नियां अपने कर्तव्य का पालन नहीं करतीं तो पति उन्हें छोड़ सकते हैं। संघ की दृष्टि में महिलाओं का दर्जा, पुरूषों से नीचा है और उन्हें अपनी ओर से निर्णय लेने का अधिकार नहीं है। उनका काम बच्चे पैदा करना और हिन्दू राष्ट्र में हिन्दुत्व के मूल्यों की रक्षा करना है। आष्चर्य नहीं कि संघ को अंतरर्जातीय और अंतधार्मिक विवाह नही भाते और न ही वह चाहता है कि हिन्दू महिलाएं मुस्लिम पुरूषों से मित्रता या विवाह करें।

मुसलमान

भागवत ने कहा कि मुसलमान भारत में अवांछित नहीं हैं। यह कोई क्रांतिकारी वक्तव्य नहीं है क्योंकि भारत का संविधान पहले ही उन्हें बराबरी का दर्जा दे चुका है। परंतु यह निश्चित तौर पर गोलवलकर द्वारा ‘बंच ऑफ़ थाट्स‘ में प्रकट किए गए विचारों से भिन्न है। इस विरोधाभास की ओर ध्यान आकर्षित किए जाने पर भागवत ने कहा कि संघ, गोलवलकर के केवल उन्हीं विचारों पर कायम रहेगा जो आज प्रासंगिक हैं। परंतु यह स्पष्ट है कि संघ के लिए मुसलमान केवल तब तक ही अवांछित नहीं होंगे जब तक कि वे हिन्दुत्व की विचारधारा का साथ देते रहेंगे और हिन्दू संस्कृति की प्रधानता को स्वीकार करेंगे। अगर मुसलमान अपने निचले दर्जे को स्वीकार कर लेते हैं तो वे देश में दूसरे दर्जे के नागरिक की तरह रह सकते हैं।

विविधता

भागवत का यह कथन कि भारत में रहने वाला हर व्यक्ति हिन्दू है न केवल तथ्यात्मक दृष्टि से गलत है वरन् वह उनकी कथित समावेशिता और उच्च आदर्शों की पोल भी खोल देता है। भारत में धार्मिक, भाषाई और नस्लीय विविधताओं का अंबार है। यह कहना कि सभी भारतीय हिन्दू हैं, इस विविधता को नकारना है। भागवत जो कहना चाहते हैं वह यह है कि अल्पसंख्यक, दलित और आदिवासी अपनी अलग पहचान को ‘हिन्दू‘ की वर्चस्वशाली पहचान में समाहित कर दें।

संघ पहले जो काम दबे-छुपे ढंग से करता था वही काम अब वह विज्ञान भवन में खुलेआम कर रहा है। अपने नफरत भरे विचारों पर उदारवाद का मुल्लमा चढ़ाने का संघ का यह प्रयास कितना सफल होगा यह समय ही बताएगा।