सहारनपुर में बदल रहा है ठाकुरों और चमारों के बीच रिश्ता
जाट किसानों को मजदूर नहीं मिल रहे,शादी ब्याह में अड़चन आ रही है , तो भाजपा-संघ संकट में आ गए हैं
कुछ समय पूर्व पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पसर रही जातिगत और सांप्रदायिक वैमनस्यता में अब कमी आर्थिक कारणों से आनी शुरू हो गयी है . सभी पक्षों को यह लग रहा है की इससे उन्हें बहुत हानि हो रही हैं. इससे समूचे क्षेत्र में एक नया माहौल पैदा हो रहा है .
सहारनपुर जेल से चन्द्र शेखर आजाद ,“रावण” की रिहाई से जातिगत वैमनस्य में वृद्धि और एक बार फिर तनाव और संघर्ष का वातावरण बनने की उम्मीद थी .यह आशा थी कि एक बार फिर ठाकुरों और दलितों में संघर्ष होगा .इनमें संघर्ष के कारण गत एक वर्ष पूर्व समस्त पश्चिमी उत्तर प्रदेश तनाव ग्रस्त हो गया था . एक ठाकुर मूल का युवक उसी दौर में मारा गया था और दलितों के सैकड़ों घर जला दिये गए थे .लम्बे समय तक दलितों को कोई मुआवजा नहीं दिया गया था ; ठाकुर युवक के घरवालों को अच्छा मुआवजा मिला था . इससे दलितों में निरंतर तनाव बना हुआ था . चन्द्र शेखर की रिहाई के लिए प्रदेश भर में चलाये गए आन्दोलन से भी तनाव बढा था.इसलिए यह स्वाभाविक था की जैसे ही चन्द्र शेखर की रिहाई होगी , यह संभाना व्यक्त की जा रही थी कि दोनों पक्षों में एक बार फिर संघर्ष हो सकता है .
लेकिन हुआ इसके उल्टा . ठाकुरों के नेतृत्व ने समझदारी दिखाते हुए इस तनाव को समाप्त करने की कोशिश शुरू कर दी है और इसमें सफलता भी मिलनी शुरू हो गई है .
सहारनपुर में इन दो जातियों के मध्य लम्बे समय से पूरक रिश्ते रहे हैं .ठाकुरों और चमार जाति में कोई बड़ी लड़ाई नहीं है.ठाकुर अधिकाँश तौर पर ज़मीनों के मालिक हैं और ज़मींदार हैं. चमार जाति के लोग इनके खेतों मैं काम करते हैं. रोज़मर्रा के जीवन में दोनों का अनेक स्थानों पर संपर्क होता है और लेंन देन होता है .इसके अलावा ठाकुर घरों में गोश्त नहीं खा सकते हैं इसलिए वे आपने चमार जाति मूल के दोस्तों के यहाँ ही खाते हैं. दोनों का खान पान का रिश्ता है.
एक अन्य अंतर यह है कि दलित राजनीति में बहुत बदलाव आ चुका है और अधिकाँश क्षेत्र में ऊंची जाति की राजनीति को पीछे हटना पड़ा है . दलित गाथा के सम्पादक , रामकुमार, इन परिस्थितियों की विवेचना इस प्रकार करते हैं .
मुलायम सिंह यादव और मायावती ने ऊंची जाति की राजनीति को हाशिये पर ला दिया है. पहले राजनीति का मायने था ब्राह्मण बनाम ठाकुर . मुलायम सिंह यादव के बाद तीसरा समूह पिछड़ों का उभर कर सामने आया . मायावती के बाद एक चौथा समूह भी उभरा.
लेकिन इस बार की भाजपा की जीत के बाद ठाकुरों को लगा कि एक बार फिर ऊंची जाति राजनीति पर हावी हो सकती है.लेकिन यह प्रयास में उसे हानि ही अब दिखाई दे रही है क्योंकि इस बीच दलित राजनीति, चेतना और मानस तीनों ही आगे बढ़ चुके हैं .प्रतिस्पर्धा में शामिल हो चुके है. अब इनकी सोच है कि अगर तुम मारोगे तो हम भी मारेंगे .चमार जाति भी आर्थिक रूप से आगे बढ़ चुकी हैं.
ऐसे समय में ठाकुरों के लिए यह संभव नहीं था कि वे दलितों के विरोध में जुलूस निकाल सके . महाराणा प्रताप जयंती भी उन्हें पुलिस की सहायता से हथियार बंद होकर निकालनी पडी. इससे यह साफ हो गया की ठाकुरों की वह शक्ति अब नही रह गयी है जो पहले थी .उनकी प्रतिष्ठा गिरी है. इन्हें भी डर है.खेती बाडी में ठाकुरों के अन्तर्विरोध सरकार से हैं न कि चमार जाति के मजदूरों से .कृषि में संकट उनके लिए प्राथमिक है .
ठाकुरों की पंचायत में गाँव में तनाव का विरोध किया गया और आम तौर पर यही सोचा गया की चमारों से ताल मेल बिठाया जाय.
पहले तो यह भी साफ नहीं था कि किससे बात की जाय. लेकिन चन्द्र शेखर की रिहाई से यह समस्या दूर हो गई.ठाकुरों ने इसके लिए रशीद मसूद के लड़के इमरान मसूद का सहारा लिया और उसकी मध्यस्तता में बात चीत की . ठाकुरों ने यह कहां की हमारी ओर से कोई भी जिम्मेवार व्यक्ति बयान जारी नहीं करेगा . कोई ऐसा अगर करता है उस पर दलितों को ध्यान देने की ज़रुरत नहीं है . उसे ठाकुर लोग स्वयं ही निपट लेंगे . इसी प्रकार दलित नेताओं की और से कोई भी ऐसा बयान आने की ज़रुरत नहीं है.इनमें आम तौर सहमति बनी कि भाजपा की नीति से हमारा नुक्सान ही हैं.
पहले जो हुआ उसके लिये ठाकुर नेताओं ने शर्मिंदगी महसूस की है और राम कुमार के अनुसार यह पहली बार ही ऐसा हुआ है . ठाकुरों ने दूरदर्शिता और बड़प्पन का परिचय दिया और राजनातिक बराबरी भी स्वीकार की है. अब दलित जो हमेशा , विक्टिम मोड ( विक्टिम मोड ) में रहता था अर्थात उसे शिकार हो जाने का हमेशा डर था अब वह इस मोड से बाहर आ गया है और अब बराबरी की लड़ाई में अपने को मानता है .
इस प्रकार सहारनपुर की जनता में दो फाड़ हो गए थे उसे अब समाप्त करने का प्रयास है और एक हद तक सफलता भी मिली है .भाजपा की विभाजित करने वाली राजनीति को भी चुनौती मिली है . और यह सब आर्थिक कारणों से हो रहा है क्योंकि सभी वर्गों की इस वैमनस्य के कारण हानि हो रही है .
कमोबेश कुछ ऐसी ही स्थिति बगल के जिले मुज़फ्फरनगर की भी हैं . यह जिला भी सांप्रदायिक टकराव का स्थल रहा है . यहाँ जाट और मुसलमानों में संघर्ष के विविध और विपरीत हानिकारक नतीजे हुए है जिससे दोनों समुदायों को साथ आना पड रहा है.जाट समुदाय के समक्ष एक सामाजिक समस्या खडी हो गई है .हरयाणा के जाट अब मुज्ज़फ्फर नगर के जाटो के यहाँ अपनी शादियाँ करने में कतरा रहे हैं . उनका तर्क है की यहाँ पर आये दिन दंगा होने से उनके बच्चों का जीवन खतरे में पढ़ जायगा . इस क्षेत्र में जाटो और मुसलमानों के समबन्ध लम्बे समय से रहे हैं दोनो में श्रम का विभाजन है . जैसे रामलीला में भी ज्यादातर पात्र मुसलमान ही होते हैं और तमाम अन्य सम्बंधित काम भी मुसलमानों के द्वारा ही किये जाते हैं. इसलिए इस बार जब मुसलमानों ने सहयोग करने से इनकार कर दिया तो समूचा राम लीला कार्यक्रम खटाई में पढ गया. इस प्रकार जाट और मुसलमान, आन्दोलन और सांस्कृतिक क्षेत्र में ही एक दुसरे से विमुख हो गए हैं .
जाट को विरासत में आर्य समाज और चौधरी चरण सिंह की किसान सेकुलर राजनीति मिली है. इसका राजनीति में मुख्य निशाना कांग्रेस विरोध का रहा है . लेर्किन यह सब समाप्त हो गया था और भाजपा और संघ निर्णायक हो गए थे . अब इस संकट में जहां जाट किसानों को मजदूर नहीं मिल रहे हैं और शादी ब्याह में अड़चन आ रही है , तो भाजपा और संघ संकट में आ गए हैं.
लेकिन यहाँ भी माहौल में अन्तर है और यह विशेष तौर पर राजनीति के द्वारा लाया गया है. कुछ समय पूर्व हुए उप चुनाव में अखिलेश यादव द्वारा मुसलमान प्रत्याशी देने पर जोर देना और और उसे सफलता पूर्वक जीत के ले आने से पूरे हालात में अन्तर आ गया है. थोड़े समय में जाटो ने बड़ी संख्या में मुसलमान प्रत्याशी को वोट डाला है .
इस काम में अजीत सिंह और जयंत चौधरी द्वारा निरंतर किये गए प्रचार की भी सकारात्मक भूमिका रही है यद्यपि यह दूरियां अभी भी मौजूद है लेकिन आगे से बेहतर माहौल है और समुदायो में वार्तालाप जारी है.