अब जबकि कांग्रेस पार्टी तीन राज्यों – मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ – में सरकार बनाने की तैयारी में है, विधानसभा चुनावों के अधिकांश विश्लेषण इस बात पर केन्द्रित रहे कि इन चुनाव परिणामों का असर अगले साल होने वाले आम चुनावों पर कैसा होगा. इन विश्लेषणों में एक बराबरी का विभाजन सामने आया. एक किस्म के विश्लेषण का केंद्र एक जुझारू विपक्ष के तौर पर कांग्रेस का उभार था, जबकि दूसरे किस्म का विश्लेषण इन तीन राज्यों में सत्ता विरोधी रुझानों पर केन्द्रित था.

लेकिन इस बड़ी कहानी में वोटों के पाला बदलने और उस बदलाव के पैमाने का आकलन करना बाकी रह गया.

कांग्रेस की ओर जाने वाले वोटों का विश्लेषण करने के प्रयास में द सिटिज़न ने दलित वोटों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया. जैसाकि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पाले से वोटों का एक हिस्सा कांग्रेस पार्टी वापस अपनी ओर खींचने में कामयाब रही, तो क्या वापस मुड़ने वाले वोटों में दलित वोट भी थे? यदि हां, तो इसकी वजह?

हमने इन तीनों राज्यों में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों पर गौर किया और भाजपा से कांग्रेस की ओर वोटों के खिसकने की प्रक्रिया को साफ़ तौर पर महसूस किया. पिछले विधानसभा चुनावों में, इन तीनों राज्यों में दलितों ने एकजुट होकर भाजपा के पक्ष में मतदान किया था. लेकिन इस बार मिले सकेतों से यह साफ़ है कि बड़े पैमाने पर उनके वोट भाजपा से कांग्रेस की ओर मुड़ गये.

कुछ अहम बातें इस तथ्य की पुष्टि करते हैं.

1. राजस्थान में अनुसूचित जाति के लिए कुल 33 सीटें आरक्षित हैं. इनमें से 11 सीटें भाजपा ने जीतीं और 19 कांग्रेस ने. वर्ष 2013 के विधानसभा चुनावों में, इनमें से 31 सीटें अकेले भाजपा ने जीतीं थीं और कांग्रेस के खाते में एक भी सीट नहीं आ पायी थी.

2. छत्तीसगढ़ में, अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कुल 10 सीटें हैं. इनमें से 2 भाजपा को मिलीं और 7 कांग्रेस को. वर्ष 2013 के विधानसभा चुनावों में, भाजपा ने इनमें से 9 सीटें जीती थीं और कांग्रेस को सिर्फ एक सीट से संतोष करना पड़ा था.

3. मध्य प्रदेश में, अनुसूचित जाति के लिए कुल 35 सीटें आरक्षित हैं. इनमें से भाजपा को मिलीं 18 और कांग्रेस को 17. वर्ष 2013 के विधानसभा चुनावों के मुकाबले इस बार वोटों में बदलाव साफ़ दिखायी देता है. पिछली बार, भाजपा 28 सीटों पर कामयाब रही थी और कांग्रेस के खाते में मात्र 4 सीटें ही आयी थीं.

नीचे की तालिका में, #W= जीती हुई सीटें, #R= बरकरार रहने वाली सीटें

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कुल वोटों में दलितों का हिस्सा राजस्थान में 17.1 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 11.6 प्रतिशत और मध्यप्रदेश में 15.2 प्रतिशत है.

हालांकि, विश्लेषकों ने इस बात के लिए सचेत किया है कि वोटों में इस बदलाव का बहुत ज्यादा मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए क्योंकि इन वोटों का स्वरुप कांग्रेस – समर्थक होने के बजाय भाजपा – विरोधी था.

राजनीतिक विश्लेषक आनंद तेलतुम्बडे ने द सिटिज़न को बतया, “कांग्रेस के पक्ष में वोटों का खिसकना यह दर्शाता है कि भाजपा के लंबे शासन के बावजूद उन इलाकों में प्रतिस्पर्धा में कमी नहीं आई है. लेकिन लोगों को इसका बहुत ज्यादा मतलब नहीं निकलना चाहिए और लोकसभा चुनावों के बड़े सन्दर्भों में शिथिल नहीं पड़ना चाहिए.”

उन्होंने आगे कहा, “इन वोटों को कांग्रेस या राहुल गांधी के समर्थन में नहीं समझा जाना चाहिए. बल्कि इसे भाजपा के प्रति लोगों की नाराजगी के इजहार के तौर पर देखा जाना चाहिए. इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि अभी भी बड़ी तादाद में लोग भाजपा समर्थक हैं.”

द सिटिज़न से बात करते हुए वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया ने कहा, “दलित और आदिवासी भाजपा के स्वाभाविक वोट बैंक नहीं हैं. फिर भी, इन लोगों ने उसपर भरोसा करते हुए उसे सत्ता में बिठाया. बड़े पैमाने पर उनका वोट भाजपा से कांग्रेस की ओर खिसकना यह दर्शाता है कि भाजपा ने लोगों के भरोसे को तोड़ा है. वे संरचनात्मक स्तर पर कोई भी सामाजिक या आर्थिक बदलाव लाने में असफल रहे. वे बस मुफ्त सिलिंडर देने जैसी अंशकालिक रणनीति पर भरोसा करते रहे.”

श्री चमड़िया ने आगे कहा, “इस बीच दलितों के खिलाफ हिंसा और मॉब लिंचिंग की घटनाएं होती रहीं. लोगों के संगठनात्मक दमन पर केंद्र की चुप्पी ने लोगों के बीच बहुत बेचैनी और अशांति पैदा की है.”

उन्होंने कहा, “इन वोटों को कांग्रेस के समर्थन के बजाय भाजपा के विरोध के तौर पर देखा जाना चाहिए. लेकिन यहां यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि जब मतदाताओं की भीड़ पाला बदलती है, तो वह अंतिम परिणाम आने तक नहीं शांत होती, जोकि इस संदर्भ में 2019 का लोकसभा चुनाव है.”