अभिनंदन की तरह सी करियप्पा ने भी अपना नाम, रैंक और सर्विस नंबर बताया
अभिनंदन की तरह सी करियप्पा ने भी अपना नाम, रैंक और सर्विस नंबर बताया
“वे सभी मेरे बेटे हैं” यह जवाब था फील्ड मार्शल के एम करियप्पा का पाकिस्तान के फील्ड मार्शल अयूब खान को 1965 में जब उन्हें यह संदेश मिला कि उनका बेटा, 27 वर्षीय भारतीय वायुसेना का लड़ाकू विमान चालक फ्लाइट लेफ्टिनेंट के सी करियप्पा को पाकिस्तान द्वारा बंधक बना लिया गया और वह उनके “कब्जे” में है.
अयूब खान विभाजन से पहले जनरल करियप्पा के मातहत काम कर चुके थे और उनका बहुत आदर करते थे और उन्होंने उस नौजवान बंदी को रिहा करने का प्रस्ताव दिया था. तब भारत के जनरल और फील्ड मार्शल करियप्पा ने, जिन्हें सैन्य बिरादरी में एक नायक की तरह देखा जाता है, ने जवाब दिया था, “वे सभी मेरे बेटे हैं. उन सबों के साथ एक जैसा व्यवहार कीजिए और एक साथ ही लौटाइये.”
वो नौजवान लड़ाकू विमान चालक, एयर मार्शल करियप्पा, जिनके विमान को 1965 के युद्ध में दुश्मन के इलाके में मार गिराया गया था, ने द सिटिज़न के साथ एक खास बातचीत में यह संस्मरण सुनाया और विंग कमांडर अभिनंदन वर्तमान, जो अपने मिग 21 विमान के मार गिराये जाने के बाद पाकिस्तान के हाथो में पड़ जाने के कुछ दिन बाद रिहा किये गये, जैसी स्थिति से गुजरने के अपने अनुभवों को साझा किया.
एयर मार्शल – तब के फ्लाइट लेफ्टिनेंट – ने 22 सितम्बर 1965 से 22 जनवरी 1966 तक, लगभग चार महीने, पाकिस्तान की हिरासत में गुजारे थे. उन्हें भारतीय वायुसेना के छह अन्य लड़ाकू विमान चालकों के साथ पाकिस्तान के युद्धबंदियों के बदले में रिहा किया था. जैसाकि वे बताते हैं, उस वक़्त रिहाई संबंधी वार्ता सेना द्वारा चलायी गई थी और तत्कालीन राजनीतिक सरकार या मीडिया की इसमें कोई भूमिका नहीं थी. यह सब अभिनंदन वर्तमान को लेकर मीडिया द्वारा किये गये शोरशराबे से ठीक उलट था. एयर मार्शल ने टेलीविज़न के रिपोर्टरों द्वारा अभिनंदन से जुड़ी अहम जानकारियों का खुलासा किये जाने पर बेहद अफ़सोस जाहिर किया. हालांकि, उन्होंने इस बारे में की जा रही राजनीति के बारे में कुछ भी बोलने से मना कर दिया.
उनकी कहानी यह दिखाती है कि एक युद्ध में क्या कुछ होता है, जिसके बारे में राजनेता और मीडिया के लोग इतनी बेपरवाही से बात करते हैं. अमूमन जंग के मैदान में एक फौजी को हालात से निपटने को छोड़ दिया जाता है और उसकी कहानी रिटायरमेंट के बाद तक बची रहती है.
जैसाकि द सिटिज़न को बताया गया :
22 सितम्बर को मैं इलाहाबाद में पदस्थापित था. मुझे चार लड़ाकू विमानों के एक स्क्वाड्रन का नेतृत्व करते हुए सीमा की ओर कूच करने का आदेश मिला. जैसे ही हमने इस पर अमल करना शुरू किया, एक विमान में तकनीकी खराबी आ गयी और वह उड़ान भरने में नाकामयाब रहा. जैसे ही हम सीमा के निकट पहुंचने को हुए कि एक और विमान को भी तकनीकी दिक्कतों की वजह से वापस लौटना पड़ा. लिहाज़ा, सिर्फ हम दो विमान सीमा के उस पार गये और गाड़ियों, पुलों को निशाना बनाया. जैसे ही हम वापस लौटने को मुड़े कि हमें नीचे सेना की एक बड़ी टुकड़ी इकट्ठी होती हुई दिखी और हमने उनपर हमला बोला. नीचे से जवाबी हमले में मेरा विमान निशाना बना और दूसरे विमान के पायलट साथी “बेबी” सहगल ने मुझे कहा, “केरी कूदो, कूदो, तुम्हारे विमान में आग लगी है.” मैं कूदा और जुते हुए एक खेत में अपने नितम्बों के बल गिरा.
सेना की एक टुकड़ी ने मुझे तुरंत घेर लिया, लेकिन मुझे इस बात का अंदाजा नहीं था कि मैं कहां हूं. तभी एक धमाके की आवाज़ सुनायी दी और उन सैनिकों में से एक ने कहा, “तुम्हारी बंदूकें हमें निशाना बना रही हैं”. तब मुझे अहसास हुआ कि मैं पाकिस्तानी सेना के कब्जे में हूं. उन्होंने मुझे हाथ ऊपर उठाने को कहा. मैं ऐसा नहीं कर पाया क्योंकि मेरी रीढ़ की हड्डी चोटिल हो गयी थी. मेरी बांह पर भी चोट थी. वे एक स्ट्रेचर लाये और मुझे उसपर लादकर लाहौर के एक अस्पताल पहुंचाया गया. वहां पता चला कि मेरी रीढ़ की हड्डी टूट गयी है. जैसाकि उम्मीद थी, मुझे अस्पताल में अकेले में रखा गया.
कुछ दिनों बाद पाकिस्तानी कमांडर इन चीफ मुहम्मद मूसा खान मुझसे मिलने आये और पूछा कि मुझे किसी चीज की जरुरत तो नहीं. मैंने कहा कि मुझे किसी और चीज की जरुरत नहीं है, बस मुझे वहां भेज दिया जाये जहां अन्य भारतीय कैदी बंद हैं. मुझसे पूछताछ की गयी और अभिनंदन की तरह मैंने भी अपना नाम, रैंक और सर्विस नंबर बताया. उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं जनरल करियप्पा का बेटा हूं. इसके जवाब में मैंने फिर से उन्हें सिर्फ अपना नाम, रैंक और सर्विस नंबर बताया. हालांकि, उन्हें किसी अन्य तरीके से इस बारे में सूचना मिल गयी.
मुझे रावलपिंडी के एक अस्पताल में स्थानांतरित कर दिया गया. वहां अयूब खान मुझसे मिलने आये. वे अपने साथ पी. जी. वोडहाउस की एक किताब और सिगरेट के डिब्बे लाये थे.
उसके बाद मुझे जेल की एक कोठरी में भेजा गया और दो हफ्ते तक अकेले में रखा गया. वह एक बंद कोठरी थी और मुझे बाहर का कोई दृश्य नहीं दिखायी देता था. शौचालय ले जाते वक्त मेरी आंखों पर पट्टी बांध दी जाती थी. जीवन के चिन्ह के रूप में वहां मुझे सिर्फ गोरैया दिखाई देती थी.
रावलपिंडी से मुझे दर्गैन के किले में ले जाया गया जहां अन्य भारतीय युद्धबंदियों को रखा गया था. वहां 37 भारतीय युद्धबंदी थे.
दो दिनों के बाद, मुझे बगल के परिसर में ले जाया गया जहां भारतीय वायुसेना के छह अन्य पायलट बंदी थे. वहां 11 -12 सिख अफसर भी थे, जिन्हें अलग रखा गया था और पाकिस्तानी उनके साथ खास तरह का व्यवहार करते थे. शायद वे उन्हें प्रभावित करने का प्रयास कर रहे थे. निश्चित रूप से, यह सब खालिस्तान आंदोलन के वर्षों पहले की बात है.
आश्चर्यजनक रूप से, मुझे फिर से अकेली कोठरी में भेज दिया गया. चार महीनों में मैंने कुल 10 सप्ताह अकेली कोठरी में बिताये.
रेड क्रॉस की ओर से एक पैकेट हमारे पास आया. यह इस बात का संकेत था कि हमें युद्धबंदी मान लिया गया है और हम पर जिनेवा कन्वेंशन लागू होगा. हमें प्रति माह 65 रूपए दिए गये, जिसका इस्तेमाल हमने अंडे, कुछ खाने का सामान आदि खरीदने में किया. हमें सुबह के नाश्ते में में दो पूडियां और एक मग में चाय मिलती थी. दोपहर के खाने में उबला चावल, रोटियां और भिन्डी और शलजम की सब्जी मिलती थी. यही खाना रात में भी परोसा जाता था. हमने उसी पैसे से रजाई भी खरीदा.
एक पार्सल में हमें महाभारत और रामायण भी दिया गया. हमारा एक साथी अच्छी हिंदी जानता था और हर रात उनका पाठ कर हमें सुनाता था. (एयर मार्शल) वी एस सिकंद हमें लतीफे सुनाकर हंसाया करता था. रेड क्रॉस ने हमारे लिए चॉकलेट भेजे.
जनवरी महीने के पहले सप्ताह में हमें इस बात के संकेत मिले कि संभवतः हमें वापस अपने देश लौटा दिया जायेगा. यह सूचना हमें स्क्वाड्रन लीडर सिकंद के जरिए मिली थी, जो जेल के हिन्दू सफाई कर्मचारी से बात किया करता था.
हमें एक जोड़ी जर्सी और पतलून दी गयी. लेकिन कुछ नहीं हुआ. 22 जनवरी को हमलोगों को आंखों पर पट्टी बांधकर एक वायुसेना के एक विमान में ले जाया गया और जल्द ही हम अपने घरों में थे.
हमने कोई यातना तो नहीं दी गयी, जबकि इसका खतरा था. क्योंकि हमें कहा जाता था “यह कोई नहीं जानता कि तुम जिंदा हो, हम तुम्हारे साथ जो चाहें कर सकते हैं.”