चुनाव से पहले भारत में विदेशी पूंजी निवेश का बढ़ना और मतदाताओं का रुख
चुनाव से पहले भारत में विदेशी पूंजी निवेश का बढ़ना और मतदाताओं का रुख
बाजार में बैठे लोगों का यह विश्वास कि नरेन्द्र मोदी चुनाव दोबारा जीतकर सत्ता में आयंगे इससे मुद्रा बाजार और शेयर बाजार में तेज़ी आ गई है . लेकिन जनता से बात करके यह बात उतने विश्वास से नहीं कही जा सकती है. कम से कम उत्तर प्रदेश में तो यह होता दिखाई नहीं दे रहा है .
कुछ समय पूर्व रूपया , एशिया की सबसे खराब मुद्रा मानी जा रही थी. इसका मूल्य निरन्तर गिर रहा था. लेकिन समय ने ऐसा पलटा खाया कि आज यही सबसे बेहतर मुद्रा है और इसके मूल्य बढ़ते जा रहे हैं . इसका कारण है कि विदेशी पूंजी निवेश शेयर बाजारों में अधिकाधिक हो रहा है. जितना पैसा इस पूरे वर्ष में लगा था उतना पैसा गत एक महीने में लग गया है . इस भरपूर विदेशी पूंजी के निवेश से रुपये के मूल्यों में उछाल आ गया है. रुपये की मांग बढ़ती जा रही है और यहाँ तक डॉलर बेच कर रूपया प्राप्त किया जा रहा है. इस अन होनी के पीछे यह समझ है कि नरेन्द्र मोदी वापस आ रहे हैं और पूंजीवादी पक्ष की नीतियाँ जारी रहेंगी .
मतदाताओं के विभिन्न हिस्सों में बात चीत करके यह साफ होता है कि अभी तस्वीर बहुत साफ नहीं है और अभी यह नहीं कहा जा सकता है कि नतीजा किधर जायगा. सवाल है कि कौन से विषय पर जनता अपने वोट का फैसला करेगी . वह क्या याथास्तिथी अर्थात जाति अथवा मिलते जुलते आधारों के आधार पर करेगी अथवा नीतियों पर. वे नीतियाँ जिन्होनें उन्हें प्रभावित किया है.
यदि किसानों की बात करे तो यह किसान आज भयंकर तौर पर पिस रहा है . उसका शोषण चरम पर है. आत्महत्याएं जारी हैं .सरकार ऐसी नीतियाँ बना रही है जिससे निर्धनों का पैसा और सरकार का करों द्वारा एकत्रित पैसा , अलग अलग स्कीमों से पूंजीपतियों और उनकी कंपनियों में जा रहा है . यह ऐसा पैसा है जो मुनाफे से नहीं कमाया गया है बल्कि सरकारी नीतियाँ इस प्रकार से बनाई गई हैं कि बिना किसी विशेष परिश्रम या बुद्धिमानी के यह पैसा संबन्धित वर्गों के खजाने में पहुँच जाए;जैसे फसल बीमा योजना , जिसके तहत किसान और केंद्र और राज्य सरकारें बीमा के प्रीमियम को बीमा कंपनियों में जमा कराती हैं. ये १४ कम्पनियां हैं . इनमें से कुल १३ निजी –विदेशी पूंजी की संयुक्त कम्पनियां हैं और गत वर्ष इन्होनें कुल प्रीमियम की मात्र आधी राशि ही किसानों को क्षतिपूर्ती के रूप में दी थी .बाकी सब हजम कर गए थे. तमाम किसानों के दावे इस या उस बहाने निरस्त कर दिए गए थे , यह पैसा किसानों तक पहुंचा बल्कि केंद्र , राज्य और र्किसानों द्वारा दी गयी प्रीमियम राशि का आधा हिस्सा सीधे लाभ के रूप में इन कंपनियों के खाते में चला गया है. इसी प्रकार बाकी स्कीमों के साथ भी है/ शेयर बाज़ार इन नीतियों से खुश है . पूंजीपतियों की जेब में सीधा पैसा आ रहा हैं. उसकी सूचीबद्ध कम्पनियां अधिक लाभ दिखा रही हैं.लेकिन किसान रसातल में जा रहा है .ऐसी ही अन्य नीतियाँ भी हैं.
मजदूरों की हालत तो और भी गयी बीती है. साधारण मजदूर की मांगें जैसे यूनियन बनाने का अधिकार , वेतन वृधि की मांग रखना , अपने बंदी साथियों की रिहाई का प्रयास करना, अब साधारण ट्रेड यूनियन लडाइयां नहीं रह गई हैं . अब श्रम क़ानून सेवायोजकों और मजदूर में सौदेबाजी नहीं रह गया है जो सभी पूंजीवादी देशों में एक सामान्य प्रक्रिया है, यह एक आपराधिक कार्यवाही घोषित कर दी गई है और प्राय: देश विरोधी काम करार दिया गया है. लम्बे समय से मजदूरों के न्यूनतम वेतन में वृधि नहीं हुई है. काम के घंटे भी बढ़कर १२ हो चुके हैं,दोहरा ओवर टाइम किसी प्राचीन युग की बात लगती है.किसी भी समय किसी भी मजदूर को बाहर निकाला सकता है. और कई स्थानों पर मजदूरों से मार कर काम लिया जाता है. उनसे मार पीट की जाती है . यह लम्बे समय की प्रतिगामी प्रक्रिया का नतीजा है. अधिकांश मजदूर यूनियनों को छोड़ चुका है.संगठन के नाम पर वह कांपता है .निश्चित अवधि रोज़गार ने सभी स्वरूपों के रोज़गार का स्थान ले लिया है . इस दशा का विरोध करने वाले तमाम मजदूर भारत की विभिन्न जेलों में आज सजा काट रहे हैं .
क्या मजदूर –किसान की मांगे चुनावी मुद्दा बनेंगी ?
सवाल यह है की क्या कोई पार्टी इन विषयों को उठायगी? इनमें से ज्यादातर पार्टियां नरेन्द्र मोदी और उसके पहले की सरकारों के किसान और मजदूर विरोधी नीतियों से सहमत हैं. वे इस विषय में कुछ नहीं बोलेंगी . वे इस जनता को इन मुद्दों पर वोट नहीं मांगेंगी . वे दुसरे मुद्दे उभार कर सामने लायेंगी जिससे ये मुद्दे पीछे छूट जायंगे. ऐसा सभी चुनावों में देखने में मिला है. इसकी सम्भावना है कि इस बार सी पी आई, सी पी आई ( एम् एल) और सी पी आई (एम्) इन मुद्दों को उठायेगी क्योंकि जनता का दबाव बहुत अधिक हो गया है. लेकिन यह कोई आवश्यक नहीं है कि वह ऐसा करेंगी ; प्राय: संयुक्त मोर्चा के नाम पर मजदूर और किसान की मांगों को छोड़ दिया जाता है.लेकिन यदि वह इन मांगों को मुद्दा बनाती हैं तो अवश्य ही उन्हें जनता का समर्थन मिलेगा.
लेकिन प्रमुख पार्टियां जैसे कांग्रेस और सभी प्रदेशों की अपनी पार्टियां , दो द्रविड़ पार्टियां, जनता दल (एस), सपा , बसपा, बीजद, इत्यादि ये सब मोदी सरकार और उससे पहले की कांग्रेस सरकार के किसान संबंधी और मजदूर संबंधी क़ानून से सार तत्व में सहमत है. वे यह मुद्दे नहीं उठायेंगे बल्कि इसके विपरीत इन मुद्दों को आगे नहीं आयें इसका उनका पूरा प्रयास होगा. इस प्रकार हर ऐसे मौके पर जब बड़े राजनैतिक परिवर्तन की संभावना होती है, तभी उसकी धार को कमज़ोर कर दिया जाता है और समूची लड़ाई शासक वर्गों की दायरे में ही रह जाती है.इस बार भी इसी की प्रबल संभावना है.अभी तक जो विषय उठाये जा रहे हैं और जिन में बहस हो रही है उनके इनसे कोई सम्बन्ध नहीं है. प्रियंका गांधी की सलाह है की लोग खूब सोच समझ कर वोट डाले .किसान आत्म हत्याओं के बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं है.बाकियों के साथ भी कुछ ऐसा ही है. राहुल गाँधी कहते हैं कि मोदी सरकार ने संस्थाओं का सत्यनाश किया है उनकी स्वायतत्ता ख़त्म की है. बिलकुल ठीक; लेकिन वह क्या करेंगे इस बारे में खामोश है,किसान बीमा योजना से किसान को कोई लाभ नहीं है ; ठीक लेकिन वैकल्पिक योजना क्या है ?
किन मुद्दे पर चुनाव ?
तो यदि मुद्दों पर चुनाव नहीं लड़ा जाना है तो किस पर लड़ा जाना है .पार्टियां परम्परागत सामाजिक दूरियों का लाभ उठाने के लिए जातीय दरारों को खाइयों में बदलने का काम करेंगी अथवा जातिगत समीकारणों को साधने का. ये पार्टियां इसी अवधारण की शिकार हैं कि विकास इत्यादि और नीतिया का कोई चुनावों पर असर नहीं होता है इसलिए ये हर दशा में जातिगत समीकरणों को साधने में लगी रहती हैं.यह इस बात के संकेत है कि विरोध पक्ष के पार्टियां किसी मुद्दे विशेष पर केन्द्रित करके चुनाव नही लड़ना चाहती हैं. इसके कुछ उदाहरण देखे . उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी ने अपना दल के छोटे तबके के लिये दो सीटें छोड़ दी हैं .इस दल में अधिकाँश तौर पर कुर्मी लोग एकत्रित हैं.इसी प्रकार बाबू सिंह कुशवाहा एक काछी नेता हैं जिनका अपनी जाति पर आज भी प्रभाव बना हुआ है . वे जेल में इन कई वर्षों से हैं इससे उनके हैसियत में उनकी जाति वालों के सामने कोई फरक नहीं पड़ा है. उनका प्रभाव ज्यों का त्यों है.कांग्रेस ने उनके लिए ७ सीटें छोड़ दी हैं . बाकी पार्टियां भी इसी प्रकार से समीकरण साधने का प्रयास कर रही हैं.
सपा -बसपा रालोद गठबंधन
सपा –बसपा और् रालोद का साथ आना और बिना किसी विवाद के सीटों पर तालमेलबिठा लेने से अपने आप में एक बड़ा मोर्चा तैयार हो जाता है. अजीत सिंह को व्यापक किसान समर्थन प्राप्त है . मुज़फ्फरनगर दंगों के बाद से जाट -मुसलमान एकता फिर से स्थापित होने की और चल पडी है. नतीजा यह है कि बसपा का दलितों पर असर ,सपा का यादवों पर असर, और किसान समर्थन से इस मोर्चे की पश्चिम में स्तिथि को बहुत मजबूत कर देता है . जहाँ पर भी दलित जातियां बसपा के अधीन संगठित नहीं हैं, जैसे कानपुर नगर, वहां बाकी पार्टियों के लिए मौका है. समस्त पिछड़ी जातियां कभी भी सपा या मुलायम सिंह के साथ नहीं रही हैं. केवल यादवों का प्रमुख हिस्सा ही उनके साथ रहा है. कुर्मी अधिकाँश तौर पर भाजपा के साथ रहा है .चौधरी चरण सिंह ने ही इन सभी किसान जातियों को किसानी के आधार पर जोड़ रखा था .लेकिन मंडल आयोग के बाद जहां आशा थी की समस्त पिछड़ी जातियां साथ साथ आयेंगी और एक ठोस पिछड़ा-दलित मोर्चा बन जायगा , सन १९९३ के चुनाव में तो दिखाई दिया, लेकिन शीघ्र ही पिछड़ी जातियों में विभाजन शुरू हो गया और तीन बड़ी ओ बी सी जतिया अलग अलग पार्टियों के साथ सम्बद्ध हो गई . यह स्तिथि आज तक चली आ रही है .अन्य पिछ्दी जातियों में भाजपा ने अपना प्रभाव बढाया है.
इसके बावजूद सपा और बसपा और् रालोद के खाते में बहुत वोट है. मुसलमानों का अधिकाँश वोट इसी गठबंधन को मिलने की आशा है . राजनैतिक विश्लेषको के अनुसार जहाँ कांग्रेस भाजपा को हरा रही हैं वहाँ समस्त वोट कांग्रेस को और जहाँ सपा – बसपा हरा रही हैं वहां वह इस गठबंधन को. यह कुल वोट बहुताधिक हो जायगा. यह स्थिति काफी दिनों से बनी हुई है , कम से कम वर्ष १९९३ से यही स्तिथी है . इसे पार पाने के लिये के लिए भाजपा ने पहले सपा – बसपा की एकता सफलतापूर्वक तोडी थी और इसी कारण वह इतने वर्षों तक राज करने में प्रमुख पार्टी के रूप में उभरने में सफल रही. लेकिन आज विह २० सालों से अधिक की नीति की हार हो गयी है क्योंकि सपा और बसपा दोनों एक साथ आ चुके हैं .ये दोनों पार्टियां ५-५ साल अकेले राज कर चुकी हैं . इनका सामाजिक आधार काफी व्यापक हो चुका हैं.इसे समझते हुए भाजपा नेता चुनाव में दलित आबादी को अपने साथ लेने का भरसक प्रयास किया था और दलितों में अपनी पैठ भी जमा ली थी . कई बड़े दलित नेता भाजपा में शामिल हो गए थे . रिपब्लिकन पार्टी को साथ में ले लिया था . लेकिन गत पांच वर्षों में भाजपा कार्यकर्ताओं ने दलितों के प्रति नफरत को स्थान स्थान पर उजागर किया और उत्तर प्रदेश में तो दलितों का आम यह धारण है कि आरक्षण को समाप्त सा कर दिया गया है.ये बातें सभी दालितों ने नोट कर ली है. भाजपा को स्वयं ही विश्लेषण करना होगा कि उन्होंने एक और तो दलित राजनेताओं को साथ लेने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाया और सफल भी हुए लेकिन गत चार वर्षों इसके ठीक विपरीत आचरण क्यों किया ?जिससे पहले की नीति अपने आप ही ध्वस्त हो गई! इसलिए आज भाजपा को वोट काफी कम पड़ रहे हैं
पुलवामा और हिंदुत्व
लेकिन भाजपा के पास पुलवामा और हिंदुत्व है . इनका क्या असर होगा ?पुलवामा ने सरकार और भाजपा की हैसियत में वृधि की है . नरेन्द्र मोदी की कानपुर में संपन्न जन सभा में एक भाजपा कार्यकता ने यह स्वीकार किया कि यदि पुलवामा न होता तो पार्टी की दशा बहुत बुरी होती . लेकिन पुलवामा के बाद इसमें काफी सुधार हुआ है . इसी प्रकार हिंदुत्व का किस हद तक असर हुआ है और ऐसा जिसने भाजपा को नये समर्थक दिये हो और ये वोट में परिवर्तित हो जाय? इसका कोई आंकलन करना आज संभव नहीं है.लेकिन इतना ज़रूर लगता है कि इसका अधिक प्रभाव नहीं पड़ा है क्योंकि उत्तर प्रदेश में संपन्न अधिकाँश उप चुनावों में भाजपा की हार हुई है.लेकिन फिर भी यह एक ऐसा कारक है जिसक आंकलन अभी सम्भव् नहीं है .
लेकिन सबसे महत्वपूर्ण कारक है किसान और मजदुर का रुख
इतना स्पष्ट है की कोई भी पार्टी , कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा, इनके मुद्दों को सीधे तौर पर नहीं उठायेगी.पहले भी ऐसा होता आया है.इसके बावजूद इन वर्गों ने उस समय की सत्तारुढ पार्टी के विरोध में ही वोट दिया है. इस बार भी ऐसा ही होने की आशा है. ऐसा होने से दोनों बसपा-सपा गठबंधन और कांग्रेस दोनों को ही इसका लाभ मिलेगा .यह वर्गीय वोट है. यह अधिकाँश तौर पर जाति और धर्म को तोड़कर ही जायगा .इन तबकों में गहरी निराशा हैं.यह निराशा विपक्ष को लाभ देगी .