‘अच्छे दिनों’ के थोथे वादे
रोजगार के सरकारी आंकड़ों की जुबानी
आम आदमी के लिये अच्छे दिन रोजगार और नियमित आमदनी की सौगात लेकर आते हैं। साथ में इन अच्छे दिनों की मिठास बढ़ जाती है जब सरकारें स्वास्थ्य (दवा, इलाजआदि), शिक्षा (स्कूल) और सामाजिक सुरक्षा (बुढ़ापे, बेकारी, हादसों आदि के शिकार होने पर पर्याप्त नगदी सहायता आदि) का इन्तजाम कर देती है या इन पर निजी खर्च का बोझ घटा कर उन्हें बेहतर कर देती है। यदि जान-माल तथा इज्जत-आबरू की सुरक्षा बेहतर होती है, तब ही समाज में सुख - शांति बढ़ती है। जब समाज-विरोधी हिंसक लोगों पर कानून-व्यवस्था की नकेल कसी जाती है, इन अपराधियों को जेलों में बन्दी बना दिया जाता है, तो लोग अपने आसपास दैनिक जीवन में पसरे आतंक से भी निजात पाते हैं। पुलिसिया ज्यादती और जुर्म से छुटकारा भी अक्सर अच्छे दिनों वाली जिन्दगी देने में सहायक होते हैं।
पिछले चार-पांच सालों में आम आदमी अपनी नित-प्रतिदिन की जिन्दगी में ऐसे अच्छे दिनों की आस लगाये बैठा रहा है।तरह-तरह की खबरों की रेलपेल के बीच में आम आदमी अपनी हर दिन जी गई, भोगी गई जिन्दगी को टटोले, तो उसे क्या नजर आता है। भारत की यह एक विषेशता रही है कि काफी अरसे से वक्त-वक्त पर (ज्यादातर हर पांच साल बाद) केन्द्रीय सरकार सारे देश में एक समान तथ्य एकत्रित करती है। इनसे हमारी व्यापक राष्ट्रीय परिस्थितियों का एक अच्छा-खासा चित्र मिल जाता है। इन्हें नेशनल साम्पल सर्वे के नाम से जाना जाता है। इनके द्वारा आज के हालात के साथ-साथ इनमें समय के साथ आगे के बदलावों का रूप-रंग भी सामने आ जाता है। सन् 2017-18 के ऐसे सर्वेक्षण से मिले आंकड़े सरकार द्वारा जारी नहीं किये जाने के बावजूद देश के प्रमुख समाचार-पत्रों ने इन आंकड़ों को सारे देश के सामने पेश किया है। ये राष्ट्रव्यापी आंकड़े हमारी आंखें खोलने वाले ही नहीं हैं, ये आम आदमी की उम्मीदों पर पानी भी फेर देते हैं। इनकी एक झलक यहाँ पेश है।
इन आंकड़ों से नजर आता है कि सन् 2011-12 में रोजगार में लगे 30.4 करोड़ पुरुषों की संख्या घट कर अब 28.6 करोड़ ही रह गई। इस दौरान जाहिर है कि काम करने की उम्र वाले लोगों की तादाद बढ़ी है। हर साल रोजगार खोजने वालों की संख्या एक करोड़ से ज्यादा बढ़ जाती है। पुराने और नये रोजगार तलाशने में असफल लोगों की तादाद तो और ज्यादा भयावह स्तर तक बढ़ गई है। देश की राष्ट्रीय आय में वृद्धि के साथ रोजगार देने के नाम पर कई कार्यक्रम भी सरकारों ने चलाये हैं। किन्तु सन् 1993-94 से सन् 20111-12 तक लगातार रोजगार कमोबेश बढ़ने का यह सिलसिला इन पांच सालों में उलट गया और पिछले सालों में एक उलटी गंगा बह चली।
बेरोजगारी का प्रभाव गांवों में ज्यादा देखा गया। गांवों में अनेक महिलायें भी रोजगार में सक्रिय भागीदारी करती हैं। वे परिवार की आमदनी में योगदान करती हैं। उनकी रोजगार से बेदखली तो और ज्यादा नजर आई। क्या इस नतीजे के पीछे नोटबन्दी का भी हाथ नजर आता है?
इस दौरान राष्ट्रीय आय की बढ़त भी कुछ गिरावट और उलट-फेर के बावजूद बदस्तूर जारी रही। सीना तान कर कहा जाता है कि अब हम संसार की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में सिरमौर है। किन्तु इस वृद्धि में आम आदमी का हिस्सा घट गया। सरकारी समर्थन और सांठगांठ से बढ़ रहे अरबपति राज में विशालकारीय संख्या में गरीबों की दिहाड़ी तक छिन गई। निराशा का ऐसा आलम है कि अब मजदूरी के लिये तैयार लोगों की तादाद भी घट गई है। शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा पर सरकार द्वारा देश की बढ़ी आय और राजस्व का घटता हिस्सा लगाया जा रहा है। अच्छे दिन महज थोथा वादा भर रह गया है, बस एक और जुमला।
कुछ और तथ्यों पर नजर डालिये। सन् 2004-05 के बाद करीब 5 करोड़ ग्रामीण महिलायें दिहाड़ी या वित्तीय प्रतिफल के लिये आगे तक नहीं आती हैं। सन् 2011-12 के बाद काम या रोजगार की खोज से दूर हटी महिलाओं की संख्या 2.8 करोड़ हो गई है। कार्यशील उम्र यानी 15 से 59 वर्ष तक की स्त्रियों में से लगभग आधी संख्या रोजगार के लिये सन् 2004-05 में तैयार रहा करती थी, किन्तु ऐसे तबकों का आकार घट गया है। अब लगभग दो-तिहाई कार्यक्षम उम्र की महिलायें ऐसे काम के अवसरों की तलाश से भी मुँह मोड़ चुकी हैं। इस समूह का आकार सिमट कर अब सन् 2017-18 तक तकरीबन एक-चैथाई, (24.6 प्रतिशत) रह गया है। यह है महिला सशक्तिकरण के दावों की पोल खोलती सच्चाई।
यह भी जानी-मानी बात है कि महिलायें बड़ी तादाद में असंगठित, छोटे-मोटे, अनियमित, गंवई, कस्बीय तथा शहरी तंग मलिन बस्तियों में चल रहे रोजगारों में अपनी आजीविका का एक सहारा प्राप्त करती हैं। शिक्षा, सुरक्षा, बच्चों की संस्थानिक देखभाल आदि के अभाव तथा बड़े संगठित व्यवसायों में रोजगार के अवसरों की कमी के चलते हमारे देश में महिलाओं के लिये नियमित, पक्के और अच्छी आमदनी देने वाले रोजगारों का टोटा पैदा होता है। इसलिए उन्हें अनौपचारिक कामकाज के दरवाजे खटखटाने पड़ते हैं। किन्तु किसानी की दुर्दशा, आय और सम्पत्ति का चन्द हाथों में लगातार सिमटते रहना, आयातित माल की बाढ़ तथा आम जिन्सों की मांग में दीर्घकाल से रची-बस्ती मंदी जैसे नकारात्मक रूझान हानिकारक नतीजे उत्पन्न करते हैं। साथ ही छोटे, पारम्परिक, कस्बई, ग्रामीण तथा लघुस्तरीय व्यवसायियों द्वारा श्रमिकों की मांग के सिकुड़ने की प्रवृत्ति असंगठित क्षेत्र के आमदनी के साधनों-स्त्रोतों को घटा रही है।
बाजार की विशाल ताकतवर हस्तियों का बढ़ता दबादबा और उन्हें प्राप्त राजकीय वरदहस्त आम महिला के हितों पर चोट पहुँचा रहे हैं। व्यवहार में इन सबका मिलाजुला नतीजा नजर आया है। सन् 2011-12 में अनौपचारिक क्षेत्र के 63.6 प्रतिशत हिस्से का सिमट कर 51 प्रतिशत हो जाना। इस स्थिति में परिवारों के लिये अच्छे दिन दूर के ढोल हो जाते हैं। खैर, इन हालात में भी शिक्षा, शहरीकरण, डिजिटल व्यवसायों का बढ़ता चलन कम से कम शिक्षित महिलाओं के लिये संगठित क्षेत्र के रोजगार के कुछ अवसर बढ़ाते हैं। नतीजन गांवों में कम और शहरों में कुछ ज्यादा संगठित रोजगार बढ़ा है पिछले पांच-छः सालों में। किन्तु कुल मिलाकर, ग्रामीण स्त्रियों और पुरुषों दोनों के रोजगार में चिन्ताजनक गिरावट नजर आई है।काले धन, भ्रष्टाचार, विषमताओं और देश में विदेशी माल के बढ़ते उपभोग के दुष्प्रचार भाव और इन सबको सीधे और घुमावदार रास्तों से राजकीय नीतियों, कार्यक्रमों और रूझानों के कारण आम स्त्री-पुरूष पर दुर्दिनों का साया गहरा रहा है।अनैतिक धन का कम्पनियों और राजनीतिक पार्टियों के शीर्षकवाले लोगों के हाथों मिला जुला अकूत जखीरा जनता के सामने अपने हितों को बढ़ाना टेढ़ी खीर बनती चुनौती पेश कर रहा है। यह स्थिति इतनी खुल कर सामने आयी है कि पूंजीवादी देशों के एक प्रमुख पत्र फाईनेन्शयल टाईम्स (लन्दन) के भारत में नियुक्त प्रमुख पत्रकार ने इस उपरोक्त स्थिति का प्रामाणिक खुलासा अपनी किताब ‘भारत में अरबपति राज’ में किया है। जाहिर है हमें भी अपनी आंखें खोलनी पड़ेगी।