उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री ने धर्मनिरपेक्षता को बताया सबसे बड़ा झूठ
योगी का विघटनकारी एजेंडा
धर्म के नाम पर राजनीति के उदय के साथ, कई ‘पवित्र और आध्यात्मिक’ साधु और साध्वियां - जिन्हें इस मायावी दुनिया का त्याग कर आध्यात्म की दुनिया में मगन रहना चाहिए - दुनियावी मसलों में फंस गए हैं। इनमें से प्रमुख हैं साध्वी निरंजन ज्योति, साक्षी महाराज, साध्वी उमा भारती और योगी आदित्यनाथ। यद्यपि इन सबको आध्यात्मिक व्यक्तित्व माना जाता है परंतु असल में वे आध्यात्म से मीलों दूर हैं। वे न केवल राजनीति में खुलकर भाग ले रहे हैं वरन प्रेम की भाषा से उनका कोसों तक नाता नहीं है। ऐसा लगता है कि घृणा फैलाना उनका पसंदीदा काम है। यह मात्र संयोग नहीं है कि ‘दूसरे’ समुदायों के बारे में नफरत फैलाने वालों में साधु-साध्वियां अग्रिम पंक्ति में हैं।
गोरखनाथ मठ के महंत योगी आदित्यनाथ, जो इस समय उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री हैं, के ताज़ा वक्तव्य को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। उन्होंने कहाः ‘‘मेरा यह मानना है कि स्वाधीनता के बाद, धर्मनिरपेक्ष शब्द भारत का सबसे बड़ा झूठ है...कोई भी व्यवस्था धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकती। राजनीतिक व्यवस्थाएं विभिन्न पंथों के प्रति तटस्थ हो सकती हैं परंतु धर्मनिरपेक्ष नहीं।’’ योगी ने यह भी कहा कि कोई भी राजनीतिक व्यवस्था पंथनिरपेक्ष तो हो सकती है परंतु धर्म के प्रति तटस्थ नहीं। उन्होंने धर्मनिरपेक्षता को अल्पसख्ंयकों का तुष्टीकरण बताया। योगी आदित्यनाथ अपने भड़काऊ और विघटनकारी बयानों के लिए जाने जाते हैं। मुख्यमंत्री बनने के पूर्व भी वे मुसलमानों के खिलाफ विषवमन करते रहे हैं। उनके विरूद्ध कई आपराधिक मामले दर्ज हैं परंतु उनमें आगे कार्यवाही तब तक नहीं की जा सकती जब तक कि मुख्यमंत्री की हैसियत से वे स्वयं इसकी इजाजत न दें!
मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद उन्होंने मुस्लिम समुदाय की आर्थिक रीढ़ तोड़ने के मकसद से मांस की दुकानों को निशाना बनाया। उन्होंने दीपावली पर अयोध्या में एक भव्य कार्यक्रम आयोजित किया। ऐसा लग रहा था मानो सरकार दिवाली मना रही हो। वहां आयोजित रामलीला में राम, लक्ष्मण और सीता का किरदार निभाने वाले कलाकार हैलिकाप्टर से पहुंचे और योगी ने उनका स्वागत किया। उन्होंने यह भी कहा कि सरयू नदी के किनारे राम की एक विशाल प्रतिमा का निर्माण किया जाएगा। यह सब योगी के साम्प्रदायिक एजेंडे का हिस्सा है और हमारे संविधान के सिद्धांतों का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन है। एक संवैधानिक पद पर आसीन होने के बावजूद, योगी खुलेआम संवैधानिक मूल्यों का मखौल बना रहे हैं।
योगी, संघ परिवार से जुड़े हुए हैं। यद्यपि वे संघ या उससे संबंधित किसी संस्था के सदस्य नहीं हैं तथापि राजनीतिक दृष्टि से वे हिन्दू महासभा का हिस्सा हैं, जो हिन्दुत्व चिंतक सावरकर से प्रेरित संस्था है। हिन्दुत्व की विचारधारा, जिसे भाजपा, आरएसएस और हिन्दू महासभा तीनों ही अपना मानते हैं, भारत को एक हिन्दू राष्ट्र निरूपित करती है और मानती है कि धर्मनिरपेक्षता एक पश्चिमी अवधारणा है जो देश पर लाद दी गई है। हिन्दुत्ववादी शक्तियों ने स्वाधीनता संग्राम का विरोध किया था और हिन्दुओं का यह आह्वान किया था कि वे अंग्रेज़ शासकों का साथ दें ताकि मुस्लिम राष्ट्रवाद का विरोध किया जा सके।
मुस्लिम और हिन्दू राष्ट्रवाद एक-दूसरे को निशाना बनाते रहे। दोनों ने नीची जातियों/वर्गों और महिलाओं का दमन करने का अपना असली एजेंडा छुपाए रखा। जब भारतीय संविधान का निर्माण हो रहा था उस समय हिन्दू राष्ट्रवादियों ने यह कहा कि हमें नए संविधान की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि भारत के पास पहले ही उसके महान ग्रंथों के रूप में संविधान उपलब्ध है। इन ग्रंथों में मनुस्मृति को भी शामिल किया गया था । मनुस्मृति वही पुस्तक है जिसे भारतीय संविधान के निर्माता अंबेडकर ने सार्वजनिक रूप से जलाया था।
स्वतंत्रता के बाद भारत को उसके बहुवादी चरित्र और यहां व्याप्त आर्थिक और सामाजिक असमानताओं के कारण धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप में लागू करने में कई समस्याएं आईं। गांधी और नेहरू के मार्गदर्शन में धर्म और धार्मिक आचरण से जुड़ी कई जटिल समस्याओं को सुलझाया गया। गांधी और नेहरू दोनों ही गोहत्या या बीफ पर राज्य द्वारा प्रतिबंध लगाए जाने के विरूद्ध थे। सोमनाथ मंदिर के पुनर्निमाण के मुद्दे पर भी धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के इन दोनों प्रतिबद्ध पैरोकारों ने ज़ोर देकर कहा कि राज्य को किसी धार्मिक स्थल के निर्माण या मरम्मत पर धन खर्च नहीं करना चाहिए। किसी भी धार्मिक स्थल को बनाने या उसके रखरखाव में होने वाला खर्च, संबंधित समुदाय को वहन करना चाहिए। सरकारी खजाने से इसके लिए कोई धन नहीं दिया जा सकता।
धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों को लागू करने की राह में जो चुनौतियां आईं और उनसे जिस प्रकार मुकाबला किया गया, उसको लेकर आज साम्प्रदायिक तत्व नेहरू-गांधी की आलोचना करते हैं। धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्ध लोगों का मज़ाक बनाने के लिए ‘छद्म धर्मनिरपेक्षता’ और ‘सिक्यूलर’ जैसे शब्द गढ़े गए। एक मुद्दा मंदिरों में आने वाले चढ़ावे और उनकी सम्पत्ति के प्रबंधन का था। सरकार ने यह तय किया कि मंदिरों के ट्रस्टों में आईएएस अधिकारियों की नियुक्तियां की जाएं ताकि मंदिरों की संपदा के दुरूपयोग पर नियंत्रण लगाया जा सके। इस तरह की व्यवस्था चर्चों और मस्जिदों के लिए नहीं की गई। इस निर्णय को अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण बताया जाता है। परंतु इसके पीछे असली कारण यह था कि मस्जिदों और चर्चों की तुलना में मंदिरों को दान के रूप में मिलने वाली धनराशि बहुत अधिक थी। देश की किसी भी मस्जिद या चर्च के पास उतनी संपदा नहीं है जितनी कि इस देश के बड़े मंदिरों के पास है।
इसी तरह, हज के लिए दिए जाने वाले अनुदान को भी मुसलमानों का तुष्टीकरण बताया जाता है। यह अनुदान एयर इंडिया को दिया जाता था जो कि सरकारी विमानन कंपनी है। इस प्रकार एक तरह से सरकार का पैसा सरकार के पास ही रहता था। सरकारें कुंभ मेलों के आयोजन के लिए अधोसंरचना का विकास करने में धन खर्च करती हैं। इसका कारण यह नहीं है कि वह एक धार्मिक आयोजन है, वरन यह है कि वहां बड़ी संख्या में लोग इकट्ठा होते हैं और उनकी सुरक्षा व स्वास्थ्य का ख्याल रखना सरकार का कर्तव्य है।
पारिवारिक कानूनों के मुद्दों पर भी जमकर बवाल मचाया जाता है। हिन्दू कोड बिल का उद्देश्य सामाजिक सुधार की प्रक्रिया को शुरू करना था। ऐसा सोचा गया था कि हिन्दुओं के बाद इसी तरह के कानून अन्य समुदायों के लिए भी बनाए जाएंगे। परंतु हिन्दू कोड बिल का जबरदस्त विरोध हुआ और विरोध करने वालों के अगुआ हिन्दू साम्प्रदायिक तत्व थे। इस विरोध के बाद बिल से कई महत्वपूर्ण प्रावधानों को हटा दिया गया, जिससे कुपित हो अंबेडकर ने केन्द्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। इससे अन्य समुदायों के पारिवारिक कानूनों में सुधार की प्रक्रिया बाधित हो गई।
जैसे-जैसे देश में साम्प्रदायिक हिंसा बढ़ने लगी, अल्पसंख्यक समुदायों के लिए उनकी सुरक्षा सबसे महत्वपूर्ण बन गई और समाज सुधार का मुद्दा पृष्ठभूमि में चला गया। निश्चित रूप से इससे अल्पसंख्यक समुदायों की महिलाओं को नुकसान हुआ। इन समुदायों की महिलाओं की ओर से पारिवारिक कानूनों में बदलाव लाने की मांग उठ रही है, जो स्वागत योग्य है। अल्पसंख्यक समुदायों के पुरूष इन सुधारों के विरोधी हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उससे उनके हित प्रभावित होंगे। इस तरह इन समुदायों की महिलाओं को अपने समुदाय के पुरूषों और हिन्दू साम्प्रदायिक तत्वों - दोनों की ओर से विरोध और दमन का सामना करना पड़ रहा है। साम्प्रदायिक हिंसा के कारण अल्पसंख्यक समुदायों में लैंगिक न्याय का मुद्दा पीछे छूट गया है। इसके बाद भी इन समुदायों की कुछ महिलाएं सुधारों के लिए संघर्ष कर रही हैं। हिन्दू राष्ट्रवाद के रंग में रंगे योगी जैसे लोग अल्पसंख्यकों में सुरक्षा का भाव जगाने की ज़रूरत को नज़रअंदाज़ करते हुए इस दिशा में उठाए जाने वाले कदमों को तुष्टीकरण बता रहे हैं और धर्मनिरपेक्षता को झूठ।
(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक -राम पुनियानी, आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)