उत्तर प्रदेश इस समय ‘किलिंग फिल्ड’ में तब्दील हो चुका है। अखबारों के स्थानीय संस्करण या तो अपराधियों द्वारा की जा रही बेखौफ हत्याओं की खबरों से भरे रह रहे हैं या फिर पुलिस द्वारा कथित मुठभेड़ों से, जिस पर खुद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने सरकार को नोटिस दिया है। हिंसा और अपराध का अप्रत्याशित उभार योगी आदित्यनाथ सरकार की एक मात्र उपलब्धि के बतौर प्रदेश के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में बहस का मुख्य मुद्दा बनता जा रहा है। योगी सरकार में डकैती जैसे अपराधों की भी, और वह भी राजधानी लखनऊ और उसके आप-पास के इलाकों में, वापसी हुई है जिसे अब बीते दिनों की बात मानी जाती थी। एक अपराध के बतौर डकैतियों की वापसी का सीधा मतलब है कि अपराधियों के हौसले इतने बुलंद हैं कि वे असलहों के साथ गिरोह बनाकर कहीं पर भी धावा बोलने और घंटों लूटपाट करने का साहस कर ले रहे हैं। 100 नम्बर पर फोन करने से पुलिस के आने का डर भी उन्हें नहीं है जबकि ग्रामीण इलाकों में भी पुलिस की गश्ती पहले के मुकाबले हर जगह देखी जा सकती है।

राजनीतिक हत्याएं भी उभार पर

हत्या और अपराधों की इस वृद्धि में एक दूसरा पहलू भी है जो घटनाक्रम को राजनीतिक रूप दे देता है। मसलन, करीब एक साल पूरे करने के करीब पहुंची सरकार में ऐसे कई सियासी लोगों की हत्याएं हुई हैं जो विपक्षी पार्टियों से जुड़े थे। ज्ञानपुर विधानसभा सीट से बसपा के प्रत्याशी रहे राजेश यादव, आजमगढ़ के अतरौलिया के सपा नेता राज बहादुर यादव जिनके शरीर के कई टुकड़े कर के खेत में फेक दिए गए। इसी तरह बलिया में स्थानीय सपा नेता समर सिंह की भी नृशंस हत्या हुई। वहीं सपा से जुड़े सुखराम सिंह की आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस वे पर हत्या कर दी गई। इन सभी मामलों में अभी तक हत्यारोपी नहीं पकड़े जा सके हैं जिसकी एक वजह उनको प्राप्त सरकारी संरक्षण बताया जा रहा है। वहीं हत्याओं और अपराध का एक दूसरा राजनीतिक पक्ष भी है जिसकी रौशनी में चीजें और साफ हो जाती हैं। मसलन, बलिया के रसड़ा थाना क्षेत्र में दो दलित युवाओं- सोनू और उमा को गाय चोरी के नाम पर स्थानीय दबंग सवर्णों ने पकड़ा और आरोप है कि स्थानीय मठिया (मठ) के मुखिया और योगी कौशलेंद्र गिरी, के कहने पर बुरी तरह पीटा और बाल छील कर गले में ‘गाय चोर हूं’ की तख्ती लगा कर घुमाया गया। गिरी योगी आदित्यनाथ के पुराने सहयोगी हैं और उनकी योगी आदित्यनाथ के साथ तस्वीरों वाले होंर्डिंग उस पूरे इलाके में लगे हैं। इस मामले में पीड़ितों की तरफ से तहरीर और वीडियो फुटेज होने के बावजूद दलितों को पीटने वाले हिंदू युवा वाहिनी के नेताओं सत्या सिंह, प्रिंस सिंह और राजेश जायसवाल को पुलिस ने गिरफ्तार तक नहीं किया और उल्टे पीड़ित दलितों को ही जेल भेज दिया।

पुलिस की प्राथमिकता में तब्दीली

इस निष्कर्ष तक पहुंचाना जल्दीबाजी होगी कि पुलिस की पेशेवर कार्यक्षमता में अचानक कमी आ गई है या अपराधियों को रोक पाने में वह बिल्कुल अक्षम हो गई है। यह योगी सरकार में उसकी प्राथमिकताओं के बदल जाने का मामला ज्यादा लगता है। अगर ऐसा नहीं होता तो क्या वजह थी कि दलितों को पीटने वाले नामजद अपराधी बाहर होते और पीड़ित अंदर। या फिर इसकी क्या वजह हो सकती है दलितों के सवाल पर प्रदर्शन करने वाले चंद्रशेखर रावण रासुका के तहत जेल में रहें और हिंदुत्ववादी झंडे लगाकर घूमने वाले गुंडे बाहर अराजकता फैलाएं?

दरअसल, पुलिस पूरे देश की तरह ही अब यूपी में भाजपा की सरकार आ जाने के बाद अपराधों के प्रति राजनीतिक रूप से सेलेक्टिव नजरिया अपनाने की रणनीति पर चल रही है। उसे मालूम है किस अपराध और किस अपराधी के खिलाफ हमें चुप रहना है और किसके खिलाफ कानून का इस्तेमाल करना है। पुलिस के लिए यह मजबूरी तब और बढ़ जाती है जब मुख्यमंत्री खुद अपने और अपनी पार्टी और विचारधारा से जुड़े अपराधियों पर से मुकदमे हटाने की घोषणा करते हैं।

पुलिस के राजनीतिक इस्तेमाल की ही एक नई अवस्था

यह लम्बे समय से चले आ रहे पुलिस के राजनीतिक इस्तेमाल की ही एक नई अवस्था है। यह इसलिए आसानी से संज्ञान में आ रही है कि लम्बे समय बाद एक स्पष्ट और ठोस राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक एजेंडा वाली भाजपा अपने बल पर सत्ता में आई है। पुलिस बल को पता है कि भाजपा की राजनीति में हिंसा और प्रतिहिंसा एक नियामक पक्ष है, इसलिए उसे सरकार के साथ खड़ा होना ही होगा। अगर हम भाजपा की पिछली सरकारों का मूल्यांकन करें तो साफ हो जाता है कि यह सब कुछ पहली बार नहीं हो रहा है। कल्याण सिंह की सरकार में पहली बार अपराधियों को ‘लिक्विडेट’ करने की संगठित और नीतिगत रणनीति बनाई गई थी जिसके लिए एसटीएफ का गठन किया गया। उस दौर में पुलिस पर ऐसे कई संगीन आरोप लगे कि वो प्रमोशन और आउट ऑफ टर्न प्रमोशन के लिए बेगुनाह और राजनीतिक संरक्षण से वंचित अपराधियों को फर्जी मुठभेड़ों में मार रही है। कल्याण सिंह के बाद राजनाथ सिहं सरकार में भी भाजपा की यह नही जारी रही। जिसका सबसे चर्चित उदाहरण भवानीपुर नरसंहार कांड था जिसमें पुलिस ने 9 मार्च 2001 को होली के दिन नक्सली बता कर दलित और आदिवासी समाज से आने वाले 16 लोगों को मिर्जापुर के इस गांव में मार डाला था, जिसमें एक 8 वर्ष का बच्चा भी था।

यहां गौरतलब है भाजपा के सत्ता में आने की एक बड़ी वजह सपा और बसपा राज में अपराधियों के संरक्षण का मुद्दा होता है। जिसके कारण सत्ता में पहुंचते ही वो अपराधियों के खिलाफ सख्त अभियान चलाने का माहौल बनाती है जिसमें फर्जी मुठभेड़ एक अहम हथियार बनता जाता है। चूंकि सपा और बसपा जैसी पिछड़ी और दलित वर्ग के जनाधार वाली पार्टियों पर सवर्ण-सामंती तबका अपराधियों के संरक्षण का आरोप लगाते हुए उनके शासन को ‘जंगल राज’ प्रचारित करता है इसलिए भाजपा सरकारों में होने वाले ‘मुठभेड़ों’ में सबसे ज्यादा पिछड़ी और दलित जातियों के अपराधियों की ही हत्याएं भी होती रही हैं, जैसा कि इस बार भी हो रहा है। जिससे भाजपा और मीडिया के एक बड़े हिस्से का समर्थन भी उसे मिलता है। इसतरह, ‘मुठभेड़’ एक स्थाई रणनीति का रूप ले लेती है और सपा और बसपा जैसी कथित सामाजिक न्याय की धारा वाली सरकारों पर भी इसे बनाए रखने का दबाव बना रहता है। कई बार ऐसा मीडिया को संतुष्ट करने के लिए तो कई बार सवर्णों को भाजपा के पाले में जाने से रोकने की नीयत से भी इसे जारी रखा जाता है। एनएचआरसी के मुताबिक 2002 से 2013 के बीच देश में हुए कुल 1788 मुठभेड़ हत्याओं में से 743 अकेले उत्तर प्रदेश में हुई हैं। जिसमें मुलायम सिंह के खाते में 431 और मायावती के खाते में 261 मुठभेड़ हत्याएं हैं। इसमें से भी सिर्फ 2006 में ही मुलायम सिंह सरकार में 201 और 2007 से 2012 के मायावती शासनकाल में 87 लोग मारे गए। आपराधिक घटनाओं की पृष्ठभूमि से आए मुख्यमंत्री के कारण पुलिस की यह मजबूरी और भी खतरनाक रूप में सामने आनी स्वाभाविक है और इसीलिए हम पाते हैं कि उनके शासन के शुरूआती 6 महीनों में (मार्च से सितम्बर) ही 420 मुठभेड़ हो चुके हैं जिसमें 15 लोग मारे जा चुके हैं।

स्थाई हिंसक मन का निमार्ण

इस समय यूपी में व्याप्त हिंसा के माहौल को सिर्फ कानून व्यवस्था के संकट के बतौर नहीं देखा जा सकता। उसका स्पष्ट राजनीतिक और सामाजिक पहलू है। महिलाओं, मुसलमानों और दलितों के संदर्भ में जिसकी जड़ें हम बहुत आसानी से हिंदुत्ववादी राजनीति की मनोवृत्ति में ढूंढ सकते हैं जिसका विस्तार सोशल मीडिया के जरिया तेजी से हो रहा है। बलिया के बहुचर्चित रागिनी हत्याकांड में जिस आरोपी प्रिसं तिवारी ने 12 वीं की छात्रा रागिनी की हत्या की वह अपनी फेसबुक वॉल पर योगी आदित्यनाथ के साथ ही अपने हाथ में तलवार लिए फोटो लगाता था। उसके पोस्ट मुसलमानों के नरसंहार और रक्तपात करने के आह्वान से भरे रहते थे। उसने रागिनी को सरे आम चाकूओं से गोद कर मार डालने में उसी नृशंसता को प्रदर्शित किया जिसका वो सामूहिक आह्वान करता था। जो ‘पोलिटिकल के पर्सनल’ में परिवर्तित हो जाने की एक खतरनाक नजीर है। यह परिवर्तन अपराधी को अपराध के प्रति एक सामंती नजरिया अख्तियार करने को प्रेरित करता है। इस प्रवृत्ति को हिंदुत्ववादी गिरोहों द्वारा दलितों के खिलाफ सोशल मीडिया में फैलाए जा रहे नफरत में भी देखा सकता है जिसके कारण दलितों के खिलाफ हिंसा को एक अनिवार्य और वैध अपराध मानने की प्रवृत्ति जगह बना रही है, ठीक जिस तरह मुसलमानों के खिलाफ हिंसा को वैध माना जाता है। जाहिर है, इस स्थिति को सिर्फ कानून-व्यवस्था पर सवाल उठा कर दुरूस्त नहीं किया जा सकता। यह एक राजनीतिक और विचारधारात्मक संकट है जिसका समाधान भी राजनीतिक और विचारधारात्मक स्तर पर ही हो सकता है।