ख़ारिज होते संवैधानिक हकों के बीच वंचित तबके
ख़ारिज होते संवैधानिक हकों के बीच वंचित तबके
हाल ही में मध्यप्रदेश में एक घटना सामने आई कि पुलिस कांस्टेबल की भर्ती के दौरान अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अभ्यर्थियों की छाती पर एससी-एसटी लिखकर उन्हें जातिगत आधार पर चिन्हित कर अपमानित किया गया। बीते दिनों ही एक दूल्हे को सवर्ण समुदाय के लोगों द्वारा घोड़ी पर बारात सिर्फ़ इसलिए नहीं ले जाने दी गई क्योंकि वो दलित समुदाय से आता था। यहाँ तक कि मध्यप्रदेश पुलिस प्रशासन को उज्जैन जिले में बाकयदा सर्कुलर जारी करना पड़ गया कि दलित दूल्हों को घोड़ी पर बारात निकालने के तीन दिन पहले स्थानीय थाने में नोटिस देना होगा। उत्तरप्रदेश के हमीरपुर के भौरा गाँव में सवर्णों ने दो मासूम बच्चों पर चोरी का इल्ज़ाम लगाकर उन्हें कुँए में उल्टा लटकाया उन पर पेट्रोल डाला और उनके प्राइवेट पार्ट्स ब्लेड से काट कर दिये। चंद्रशेखर रावण पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून की अवधि 3 महीने और बढ़ाई गई। एक बार भी बेल पर कोई सुनवाई नहीं की गई। शाहजहांपुर के पिलखाना गांव में 15 वर्षीय दलित किशोरी को छेड़छाड़ का विरोध करने पर छत से फेंक दिया गया। उत्तरप्रदेश के बदायूं में ठाकुरों ने एक दलित बुजुर्ग व्यक्ति को मजदूरी करने से मना करने पर यह कहते हुए गांव की चौपाल पर बांधकर बेरहमी से मारपीट की,मूँछे ऊखाड़ी और पेशाब पिलाई कि "इनका है कौन, सरकार हमारी है"। 1 जनवरी 2018 को भीमाकोरेगाँव में हिंदू संगठनों द्वारा किये गए दंगों की मुख्य गवाह पूजा सकट की हत्या कर दी गई साथ ही उसके भाई और पिता को झूठे मुकदमों में जेल भेज दिया गया।
ऐसी एक-दो घटनाएं नहीं बल्कि हज़ारों घटनाएं हैं जिनमें कुछ रिपोर्ट की गई तो कुछ पर रिपोर्ट दर्ज ही नहीं की गई। 20 जनवरी 2018 के बाद सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद से तो ऐसी घटनाएँ और भी ज्यादा तेज़ी से बढ़ी हैं। ज़ाहिर है सवर्ण वर्ग को यह विश्वास है कि ऐसे कुकृत्य करने पर भी उन्हें कोई नुकसान या क़ानूनी डंडे का सामना नहीं करना है। जब एकतरफा तौर पर विधायिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों ही वंचित तबकों के हकों को मारने पर आ जाएं तो न्याय की उम्मीद आख़िर किससे हो?
जहाँ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को न्यूनतम मानवाधिकारों से भी वंचित किया जाता हो, जहाँ जातिगत आधार पर प्रताड़ित किया जाना सामाजिक गौरव का विषय हो, जहाँ वंचित वर्ग बुनियादी अधिकारों और सुविधाओं से भी महरुम हो वहाँ उनकी सुरक्षा और संरक्षण करने की बजाय उनके संरक्षण के लिए बनाए गए कानूनों को कमज़ोर किया जाना संदेहास्पद है। यह निर्णय उनके संवैधानिक अधिकारों का हनन है। कानून बनाने की जिम्मेदारी संसद की है जबकि यह भूमिका अब सुप्रीम कोर्ट निभा रहा है। न्याययिक अतिसक्रियता से एक कदम आगे बढ़कर कोर्ट लोक अधिकारों के निर्णय भी लेने लगा है। इसलिए केवल 4 महीनों के बेहद कम समय में व्यापक जनसमूह को प्रभावित करने वाला निर्णय ले लिया गया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति ( अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989,2015 का दुरुपयोग होने की दलील पर इस संरक्षण कानून को कमज़ोर कर देना न्यायिक व्यवस्था और सरकार की नीयत पर सवाल उठाता है। सुप्रीम कोर्ट को सिर्फ़ 4 महीने लगे यह निर्धारित करने में कई इस एक्ट का दुरूपयोग हो रहा है। जबकि इस मामले में कोई नोटिस नहीं लिया गया कि कितने मामलों में इस एक्ट के तहत सज़ा मुक़र्रर हुई है? इस कानून में तब्दीली का कोई ठोस आधार ना ही सुप्रीम कोर्ट के पास है और ना ही सरकारी वकीलों ने एक्ट के पक्ष में कोई दलील पेश की।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो 2016 की रिपोर्ट में भी यह तथ्य स्वीकार किया गया था कि पिछले 4 वर्षों में दलितों-आदिवासियों के ख़िलाफ़ अपराधों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। वहीं इस रिपोर्ट में इस तथ्य को भी स्वीकार किया गया कि ऐसे मामलों में सज़ा होने की दर बेहद कम है। अनुसूचित जाति आयोग, अनुसूचित जनजाति आयोग और मानव अधिकार आयोग तथा गैर सरकारी सर्वेक्षणों की तमाम रिपोर्ट्स में इस स्वीकार्य तथ्य कि दलितों-आदिवासियों के ख़िलाफ़ अपराध बढ़ें हैं फिर भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा ऐसा निर्णय लिया जाना वंचित तबकों को हाशिये पर धकेल देने की मंशा से लिया गया लगता है। रिपोर्ट्स से कम से कम एक बात साफ है कि एससी-एसटी एक्ट का अब तक सही से उपयोग ही नहीं हो सका है इसलिए ऐसे अपराध कम होने की बजाय बढ़ें हैं।
20 जनवरी को हुए सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुरूप नई व्यवस्था के अनुसार अपराध होने पर भी एससी-एसटी एक्ट के तहत पिछले तीन महीने में मामले दर्ज नहीं हुए, क्योंकि जाँच अधिकारी सहित सबूतों को तोड़ने-मरोड़ने के साथ जाँच प्रभावित करने की शक्ति शोषिक वर्ग/सवर्ण वर्ग के पास ही आ गई। इसी शक्ति के चलते 2 अप्रैल को हुए भारत बंद के बाद हज़ारों दलितों पर झूठे आरोप लगाकर उन्हें जेल में ठूँस दिया गया। बंद के दौरान मारे जाने वाले वर्गों की जान-माल को हुई नुकसान की भरपाई पर कोई संज्ञान नहीं लिया गया। इस नए परिदृश्य में जातिगत विद्वेष को कानून का जामा पहनाकर दलितों-आदिवासियों के ख़िलाफ़ प्रयोग करने की नई परम्परा विकसित हो गई है।
वंचितों के ख़िलाफ़ खड़ी सरकार को न ही उनके हकों की चिंता है और ना ही उन पर बढ़ रहे अत्याचारों की। सरकार केवल दिखा रही है कि वो वंचित तबकों की हितैषी है, इसके उलट वो लगातार ऐसे निर्णय ले रही है जो इन तबकों को कदम-दर-कदम पीछे धकेल रही है। इसलिए अध्यादेश, संसद विशेष सत्र और पुनर्विचार याचिका जैसे औजारों के बाद भी इस पूरे मामले में सरकार की चुप्पी और सुप्रीम कोर्ट की हीलाहवाली मिलीभगत से जारी है। जब सरकार ही शोषण संरचना में बदल गई है तो संविधान और उसके होने के मायने वंचित तबकों के लिए स्याह अँधेरे के समान है।