कश्मीरी पत्रकार : कुआं और खाई के बीच
अभिव्यक्ति और असहमति के अधिकार पर आतंक का दबदबा
कश्मीरी पत्रकारों को जान से मारने की मिल रही धमकियों के बारे में कई पत्रकार सोशल मीडिया पर रोष जता रहे हैं और विभिन्न पत्रकार संगठन इस संबंध में बयान जारी करने के साथ - साथ केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह समेत कई अन्य लोगों को लिख रहे हैं. लेकिन हैरत की बात है कि इस दिशा में कोई ठोस प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है. शुजात बुखारी की चौंकाने वाली एवं दुखद हत्या के बाद, जम्मू – कश्मीर के सभी स्वतंत्र एवं निर्भीक पत्रकारों के माथे पर बंदूक तान दी गयी है. और स्थिति थोड़ी ज्यादा नाजुक इसलिए हो गयी है क्योंकि यह कोई नहीं जानता कि आखिर बंदूक तानने वाले हैं कौन और बंदूक तानने वाले आखिर कितने हाथ हैं? घाटी और देश के अन्य हिस्सों में इस मसले पर राय स्पष्ट रूप से बंटी हुई है कि विभिन्न एजेंसियों, निहित स्वार्थों और अंदरूनी एवं बाहरी सत्ता – संतुलन के जटिल खेल से प्रभावित इस राज्य में शुजात बुखारी को आखिर किसने मारा. इसलिए, ठोस एवं पूर्ण सबूतों के साथ इस हत्या की जल्द – से – जल्द जांच जरूरी है.
इस बीच, संबंधित अधिकारियों की ओर से अपेक्षित प्रतिक्रिया नदारद है. कश्मीरी पत्रकारों को सीधा निशाना बनाने वाली धमकियों की गूंज दो स्तरों पर सुनायी दी है. पहला, एक वेबसाइट पर एक कथित ब्लॉगर द्वारा चलाये गये गालियों के अभियान में, जिसका पहला निशाना शुजात बुखारी को बनाया गया, जो आख़िरकार मारे गये. उसके बाद से उस ब्लॉगर ने दो और नामचीन पत्रकारों – इफ्तिखार गिलानी और अहमद फ़य्याज़ – का नाम लिया है. उसने साहसी एवं बेख़ौफ़ आवाज़ रखने वाले शख्सियतों की एक पूरी सूची भी प्रकाशित की है. शुजात की हत्या के बाद से इस वेबसाइट को खासी शोहरत मिली है. साफ़ है कि इसका इस्तेमाल उन लोगों द्वारा किया जा रहा है जिनके हाथो में शक्ति हैं. यह अलग बात है कि दुनिया में न्याय की थोड़ी सी भी गुंजाइश अगर बाकी है, तो उस सबों को सलाखों के पीछे होना चाहिए था. हालांकि, सबसे अचरज की बात यह है कि इस वेबसाइट की असलियत का पता लगाने के लिए सरकार की ओर से प्रयास नदारद है. ऐसा तब है जब तमाम पत्रकार संगठनों ने बयान जारी कर इस मसले पर एक विस्तृत जांच की मांग की है ताकि दोषियों को पहचाना जा सके और उनके खिलाफ कार्रवाई की जा सके. यह वेबसाइट पाकिस्तान द्वारा संचालित मालूम पड़ता है जिसमें भारत विरोधी दुष्प्रचारों की भरमार है.
दूसरे किस्म की धमकी भाजपा नेता लाल सिंह की ओर से आई है. श्री सिंह ने एक प्रेस कांफ्रेंस करके कश्मीरी पत्रकारों को सीमा में रहने, अन्यथा शुजात बुखारी जैसा हश्र भुगतने की चेतावनी दी थी. उनकी इस हरकत का देशभर के पत्रकारों ने विरोध किया और भाजपा से उन्हें निकाल बाहर करने की मांग की. हालांकि, ‘कठुआ मार्च’ से सुर्ख़ियों में आने वाले लाल सिंह अभी भी भाजपा के साथ बने हुए हैं. दिल्ली में किसी भी वरिष्ठ भाजपा नेता उनके खिलाफ एक शब्द भी नहीं कहा है. वरिष्ठ भाजपा नेताओं की चुप्पी एक तरह से उनका समर्थन ही है.
वर्तमान हालात 1990 के दशक की पुनरावृति है जब निर्दोष कश्मीरियों को राज्य और दहशतगर्दों के बीच पिसना पड़ा था. दोनों ने उनके सिर पर बंदूकें तान रखी थी.कई लोगों को अपनी जान गवांनी पड़ी थी या गिरफ्तार होना पड़ा था या फिर दूसरे खेमे के समर्थक होने के शक में अपहरण का शिकार होना पड़ा था.आज वह वेबसाइट दहशतगर्दों की ओर से बोलने का दावा कर रही है, तो भाजपाई विधायक राज्य के प्रवक्ता बने हुए हैं. पत्रकार आज एक जबरदस्त शिकंजे में फंसे हुए हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और असहमति के स्वर, दोनों, आज गंभीर खतरे में है. ऐसी परिस्थिति में, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा जम्मू – कश्मीर के मुख्य सचिव को नोटिस भेजा जाना, छोटा ही सही, लेकिन एक बेहतर कदम है. और कश्मीर की ओर दुनिया भर की उठी निगाहों को देखते हुए यह शायद जरुरी भी था.
दहशतगर्द या उस वेबसाइट के ओट में छिपकर खतरनाक धमकी जारी करने वाले लोग कश्मीरी पत्रकारों एवं अन्य लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकते. हकीकत तो यह है कि उनकी विचारधारा हिंसा की है. लेकिन भारत सरकार चुप्पी नहीं ओढ़ सकती. उसे बोलना होगा और जान की धमकी झेल रहे पत्रकारों को यह आश्वस्त कराना होगा कि उनकी सुरक्षा और सलामती के लिए ठोस और निश्चित कदम जरुर उठाये जायेंगे.