“अधीनस्थ न्यायपालिका में सुधार” के लिए सुझाव – भाग दो
अश्वनी कबीर
जब देश मे साढ़े छह लाख पंचायतें चल सकती है तो वहां तीन लाख न्यायिक अधिकारी क्यो नही हो सकते ? हर दो गावँ में एक न्यायिक अधिकारी नियुक्त हो , अगर राजस्थान को देखें तो 20000 न्यायिक अधिकारी नियुक्त करने में किसको आपत्ति है ? गावँ के अधिकतर मामलें रेवेन्यू ( राजस्व ) से जुड़े होतें हैं जिनका तत्काल समाधान किया जा सकता है और इसके लिए उस व्यक्ति को कानून की बेसिक समझ हो उसकी रीजनिंग पावर हो और कॉमन सेंस हो , उसका चयन यू पी एस सी बॉडी जैसी कोई संस्था करे, इसके लिए अलग से आधारभूत संरचना भी नही बनानी क्योंकि हर गांव में पंचायत भवन है वहां इंटरनेट की भी सुविधा है। इससे अधिकांश समस्याओं का समाधान हो सकेगा । राजस्थान में वर्तमान व्यवस्था इतनी पेचीदा और सड़ चुकी है जिसमें गांव का किसान घुट – घुट कर ही दम तोड़ देता है ,क्योंकि सबसे पहले उसे एस डी एम कोर्ट जाना होता है जहां एक आर. ए. एस. अधिकारी बैठता है जो अधिकतर अपनी कुर्सी से गायब ही रहता है वहां से व्यक्ति अपील करता है सीनियर अधिकारी आईएएस के पास। उसके बाद रेवेन्यू बोर्ड में जाए फिर न्यायलय में पहुँचे ।इसी में वो सालों घूमता रहता है अगर गाँवों में न्यायिक अधिकारी होंगे तो यह समस्या नही आएगी और यह न्यायिक अधिकारी सेशन जज के अंडर में आए या उच्च न्यायालय के इस बात पर विचार करना सरकार का काम है लेकिन इस प्रावधान से किसको आपत्ति है? राजस्थान सरकार ने एक कार्यक्रम चलाया है न्याय आपके द्वार। यह न्याय आपके द्वार है या अन्याय ,शोषण ओर विपदा आपके द्वार समझ नही आता। अभी एक घटना बहुत वायरल हुई करौली जिले में न्याय मांगने आए एक शख्स को एस डी एम ने लात घूंसों से मारा और यह तब हुआ जब पूरी मीडिया वहां मौजूद है, अन्य अधिकारीगण मौजूद हैं और त्रासदी देखिए उसी व्यक्ति पर मुकदमा बना दिया अगर यही न्याय आपके द्वार है तो फिर अन्याय आपके द्वार क्या है ? ओर यह ऐसी अकेली घटना नही है आप जब गावँ में जाएंगे लोगों से बात करेंगे तो हकीकत। सामने आएगी। वहां जाकर लोगों को बेज्जत किया जाता है इसका उदाहरण जैसलमेर के श्री ख़ूबराम जी से बेहतर और कौन हो सकता है , अधिकारीगण सरपंच निवास पर नास्ता कर लौट आते हैं ।
सरकार ने कंपनियों के रेवेन्यू के आपसी झगड़े सुलझाने के लिए त्वरित प्रक्रिया और निर्णय का प्रावधान कर दिया लेकिन आम आदमी के रेवेन्यू मैटर उसी सिविल दंड प्रक्रिया 1908 से चलेंगे जिसमे उस व्यक्ति की पीढियां उलझी रहेंगी । क्या आम व्यक्ति के हितों की समय की धन की कोई कीमत नही है ? सरकार को व्यापार को बढ़ाना है इसलिए उनके लिए कर दिया और अब सरकार कह रही है कि बिजनेस को ओर अधिक सुगम और सुविधाजनक बनाना है इसलिए और जल्दी फैसले होने चाहिए। क्या न्याय के दो पैमाने बनेंगे ? एक व्यापारियों के लिए और एक आम इंसान के लिए ?लेकिन उस आम व्यक्ति के लिए इस प्रक्रिया को सुधारने से किसको आपत्ति है? और इस प्रक्रिया का सबसे ज्यादा भुगतभोगी आम व्यक्ति ,गावँ का किसान ,मजदूर है। चूंकि वह आम इंसान है इसलिए उसके समय, धन, अधिकार, न्याय का कोई मायने नही हैं ?
कोई भी मुद्दा चाहे वह क्रिमीनल हो या सिविल अगर वह गम्भीर नहीं है तो पहले स्थाई लोक अदालत में जाये ओर उसका वहीं समाधान हो यही पर मध्यस्थता को कड़े से लागू करना चाहिए जैसे अमेरिका में व्यवस्था है ।वहां जज दोनो पार्टियों को अपने -अपने तथ्यों, सबूतों के साथ बुलाता है , ऐसा हमारे यहां भी है लेकिन उसको अधिवक्ता ही नही चलने देना चाहते, जजों की भी इसमें ज्यादा रुचि नही हैं,।ऐसा क्यों नही हो सकता कि उपलब्ध तथ्यों के अध्ययन के आधार पर निर्णय करे और यदि इसमें कोई संबंधित दस्तावेज की जरूरत हो तो कोर्ट स्वयं से उस संबंधित विभाग से वो दस्तावेज मंगवाए जिससे समय और धन की बचत हो और भ्रष्टाचार रुके । आखिर इसको लागू क्यों नही कर रहे ? जब हमारे पास यह व्यवस्था है तो इसको लागू करने में क्या दिक्कत है? जब हर जिले में स्थायी लोक अदालतें हैं जिसमे आम व्यक्ति के जीवन मे आने वाली अधिकांश समस्याओं को रख सकते हैं और जिनका निर्णय भी छह माह में आ सकता है लेकिन वहॉ सुनवाई पर वकील नही आते । ऐसी स्थिति में मामले की सुनवाई जारी रखें ओर पैनल्टी लगाई जाए। अभी जज पेनल्टी क्यों नही लगाते ?
यदि कोई गम्भीर मामला है तो सीधे कोर्ट में लेकर जाया जाए। लेकिन उसमे ट्रायल निश्चित समय मे हों। अगर नही हो सके तो कम से कम स्पीडी तो हो, हर स्टेप एक हियरिंग से ज्यादा समय न लगे और यदि लगे तो जिसने विलंब किया उस पार्टी से पैनल्टी वसूली जाए ,अभी जज क्यों पेनल्टी नही लगाते ,यह गठजोड तो नही हैं? कोर्ट के समन पुलिस कप्तान के नाम इशू हो न कि थाने के , केस का रिकॉर्ड ऑनलाइन उपलब्ध हो, केस ऑनलाइन दर्ज हो ताकि आम व्यक्ति वकीलों, मुंशियों और कोर्ट के बिचौलियों के चक्कर मे न आए, जब सब रिकार्ड्स ऑनलाइन उपलब्ध हैं या कोर्ट स्वयं से उस संबंधित विभाग से मंगवा सकती है इससे समय , धन की भी बचत होगी और न्याय भी त्वरित मिलेगा।
सम्पूर्ण न्यायिक प्रणाली और न्याय व्यवस्था सच्चाई पर टिकी हुई है और उस प्रक्रिया में भी न्याय को स्थापित करने के लिए सच और झूठ का अंतर करते हैं । लेकिन कहीं आज कोर्ट रूम झूठ फैलाने और निर्दोष को प्रताड़ित करने के संगठित केंद्र तो नही बन गए है? नैतिकता की तो बात ही छोड़ दीजिए। कहीं ऐसा होता है कि अधिवक्ता परसेंटेज के आधार पर मुकदमें लड़े, कहीं ऐसा देखा है? और यह तो न्याय का मंदिर है जहां व्यक्ति न्याय की उम्मीद में जाता है, वो क्या न्याय दिलाएगा जिसका कंडक्ट ही प्रोफेशनल चरित्रहीन की कोटि में आता है। यह बात किसी से छिपी हुई नही है कि जितने भी रोड एक्सीडेंट के मुकदमे हैं वहां वकील क्लेम के दस प्रतिशत में वो मुकदमा लड़ता है ओर साथ मे यह भी कहता है कि सरकारी वकील को भी दस प्रतिशत देना है क्योंकि तभी वो क्लेम ज्यादा होने देगा। ऐसे वकील की तुरंत डिग्री कैंसिल होनी चाहिए ओर क्रिमिनल मुकदमा चले , लेकिन आज तक कितने वकीलों की सदस्यता रद्द हुई? कितनों पे मुकदमें दर्ज हुए? कोर्ट में आधे से ज्यादा झूठे शपथपत्र दाखिल किए जाते हैं, झूठे गवाह बनाये जाते है और कोर्ट में यह साबित भी हो जाता है कि गवाह झूठा था लेकिन उसके ऊपर कोई कार्यवाही नही होती अगर किसी ने कोर्ट को गुमराह किया झूठ बोला ,या गलत शपथ पत्र दाखिल किया अगर केस की सुनवाई में जिस समय भी यह पता चलता है कि इस केस में यह झूठा दस्तावेज दिया गया था , उस व्यक्ति को तुरंत जेल भेजना चाहिए , चाहे एक दिन के लिए ही भेजा जाए इससे व्यक्ति कोर्ट में झूठ बोलने से डरेगा, ओर कोर्ट में मामलों की संख्या आधी हो जाएगी।
लोकतंत्र में जब हर कोई जवाबदेह है फिर न्यायपालिका क्यों नही? कोर्ट रूम की वीडीयो रिकॉर्डिंग क्यों नही होनी चाहिए ?जिससे जज ओर उसके कोर्ट रूम्स का इकोसिस्टम दुरुस्त हो, जो न्याय की उम्मीद में आया है वहां वो कम से कम अपने आप को लाचार न महसूस करे और इससे कोर्ट रूम की कार्यवाही ओर निर्णय की गुणवत्ता पर असर पड़ेगा, जजों के निर्णयों का विश्लेषण क्यों न हो आखिर इसमें आपत्ति क्या है? कोंन करे कोई अलग बॉडी हो या रिटायर्ड जज हो यह देखना सरकार का काम है।
न्यायपालिका में प्रवेश स्तर पर ही नियंत्रण एवं संतुलन बना रहना चाहिए , अधिकतर लॉ ग्रेजुएट्स जिनसे कानून के दर्शन की समझ तो दूर की बात रही उनको न बेसिक कानून ,संविधान की समझ हैं ओर न ही समाज की , ऐसे कानून की डिग्री धारी जो अभी तो न्यायिक व्यवस्था के शत्रु हैं लेकिन यही लोग लंबे समय मे समाज के सबसे बड़े दुश्मन बन जाएंगे, आए दिन कोर्ट्स में लड़ाई झगड़े , अभी हाल ही में जोधपुर हाइकोर्ट में इतने बड़े व्यापक स्तर पर भयंकर मारपीट , जयपुर में भी हड़ताल ओर मारपीट, दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट का भी यही हाल है ये न्याय के रखवाले कहाँ से हुए? कहीं ये रजिस्टर्ड बदमाश तो नही हैं? ऐसे लोगों को न्याय के मंदिर से बाहर रखने के लिए लॉ ग्रेजुएट्स का बार मे रजिस्टर होते समय एक लिखिति पेपर होना चाहिए जैसे उच्चतम न्यायालय में पेपर देना होता है यही व्यवस्था अधीनस्थ न्यायपालिका के स्तर पर भी लागू होनी चाहिए।
एक प्रमुख बात जो इन सुधारों का आधार स्तंभ है उसे जस्टिस वर्मा कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा था ओर वोही कालजयी सत्य भी है , हम रोकथाम पर बात ही नही कर रहे बस उपचार को केंद्र में रखा हुआ है ,समाज कानूनों के बल पर नही चल सकता , हम यह भूल जा रहें हैं कि समाज के लिए कानून हैं न कि कानूनों के लिए समाज लेकिन आज हम हर बात के लिए कानून चाहतें हैं और हर बात का फैसला कोर्ट के जरिये करना चाहते हैं। अगर हम ऐसी स्थिति में पहुँच गए हैं तो इसका अर्थ है हमे अपना आत्म मूल्यांकन करना चाहिए कि आखिर हम कहाँ जा रहे हैं? हम जब तक समाज मे ऐसा माहौल तैयार नही करेंगे जो समाज मे रोकथाम को केंद्र में रखे तब तक हम कुछ भी कर लें इन सुधारों से क्राइम करने वाले को दंडित तो भले ही कर सकते हैं लेकिन उसे क्राइम करने से रोक नही सकते। उसको क्राइम करने से रोकने के लिए उसका सामाजिक मनोविज्ञान बदलना होगा और ये होगा सामूहिक चेतना से अगर समाज की सामूहिक चेतना यह कहती है कि जो समाज मे गलत करेगा उसको आलोचना की दृष्टि से, हीन भावना से देखा जाएगा और जो व्यक्ति समाज मे अच्छा कार्य करेगा, न्याय प्रिय होगा उसे सम्मान का पात्र समझा जाएगा तो व्यक्ति का मनोविज्ञान उसी रूप में बनता जाता हैं। और ऐसा मनोविज्ञान तैयार करने में वहां , शिक्षण संस्थान, सिविल समाज ओर मीडिया प्रमुख भूमिका निभातें हैं जो समाज मे विचारों के लिए स्थान देते हैं संवाद करते हैं अधिकतर मामलों को बातचीत से सुलझाते हैं , लेकिन क्या हम यह कर रहें हैं? हम व्यक्ति की पहचान उसके पद से कर रहें हैं न कि उसके पद से जुड़ी उसकी भूमिका के निर्वहन से ,जब तक ऐसा ही रहेगा तब तक हम कुछ भी कर लें समाज मे सकारात्मक , न्याय उन्मुख माहौल नही बना सकते।
इन सुधारों से किसको आपत्ति है? आखिर ये सुधार किसके अहित में हैं? इन सुधारों से न तो रेवेन्यू पर बोझ पड़ रहा बल्कि इससे केस भी कम होंगे उल्टा जो लोग इन मुकदमों में उलझे हुए थे वो अर्थव्यवस्था में कंट्रीब्यूट करेंगे और खुशहाली सूचकांक में बढेगा और न्याय की आत्मा तो कम से कम जीवित रह सकेगी, आम व्यक्ति न्याय तक पहॅंच सकेगा । जब समस्या का समाधान करने वाली संस्था ही समस्या का कारण बन जाए तो वह व्यवस्था ज्यादा समय तक नही चल सकती। आज न्याय तक पहुँच में सबसे बड़ा रोड़ा स्वयं न्यायपालिका और उससे जुड़े लोग हैं, कोई नही चाहता कि यह व्यवस्था सुधरे , अधिकतर रिटायर्ड जज आर्बिट्रेशन करते हैं ओर पैसा बनाते हैं, उनको इस व्यवस्था से कोई मतलब नही हैं। अब प्रश्न यह है कि यह मुद्दा आम व्यक्ति का मुद्दा कैसे बने? न्याय तक पहुँच कैसे सुनिश्चित हो? इस विमर्श को मुख्यधारा का विमर्श बनाना पड़ेगा, ओर यह हमें खुद से सोचना पड़ेगा कि क्या ऐसे उदासीनता या तठस्थता की चादर ओढ़ लेने से समस्या को सुलझा रहे हैं या उसे और उलझा रहे हैं , क्योंकि प्रश्न यह है कि आखिर लोकतंत्र की मूल भावना का क्या होगा? स्वतंत्रता की विरासत ओर हमारे संविधान के आदर्शों का क्या होगा,?क्या हम अपने आप को प्रगतिशील ,उदारवादी मूल्यों का पालन करने वाले कहलाने के अधिकारी होंगे? सामाजिक न्याय के प्रवचक कह पाएंगे? क्या हमारे समाज की विविधता और विरासत बची रह सकेगी ?
लेखक : स्कॉलर एवं सामाजिक कार्यकर्ता , विकास के वैकल्पिक मॉडल पर रिसर्च कर रहें है।