कबीरः प्रेम, रहस्यवाद और वैकल्पिक विश्व दृष्टि
काशी स्वर्ग का प्रवेश द्वार और मगहर नरक का। कबीर ने इस अंधविश्वास को तोड़ा
गत 28 जून, 2018 को इस रहस्यवादी कवि, समाज सुधारक और संत की 500वीं पुण्यतिथि मनाई गई। उत्तर भारत में सभी समुदायों में कबीर के अनुयायियों की बड़ी संख्या है। आम लोगों से लेकर विद्वतजनों तक सभी उन्हें उद्धत करते आए हैं और देश के प्रधानमंत्री इसका अपवाद नहीं हैं। अपनी सरकार के ‘‘सबका साथ, सबका विकास‘‘ के नारे का जिक्र करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कबीर के सुप्रसिद्ध दोहे का उल्लेख कियाः ‘‘कबीरा खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर; न काहू से दोस्ती न काहू से बैर‘‘।
यह दिलचस्प है कि प्रधानमंत्री इस महान चिंतक को साम्प्रदायिक सद्भाव के संदेशवाहक के रूप में उस समय याद कर रहे हैं जब 2019 का आमचुनाव नजदीक है। हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि किस हद तक वर्तमान सरकार ने कबीर के संदेश और शिक्षाओं को अपनी नीतियों और कार्यक्रमों का हिस्सा बनाया है।
संत-कवि कबीर, भक्ति आंदोलन के महान प्रवर्तकों में से एक थे। यद्यपि उनकी जन्मतिथि के बारे में विवाद है पर ऐसा माना जाता है कि वे सिकंदर लोधी के समकालीन थे। यह भी बताया जाता है कि उनका जन्म एक हिन्दू परिवार में हुआ था पर उनका लालन-पालन एक मुस्लिम परिवार ने किया। जन्म के कुछ समय बाद, वाराणसी उनका कार्यक्षेत्र बना जहां एक रहस्यवादी कवि के रूप में उन्होंने हिन्दू दर्शन में व्याप्त सामाजिक असमानताओं और इस्लाम की दकियानूसी प्रवृत्तियों की तीखे शब्दों में आलोचना की। अपने जीवन और अपने प्रभावशाली दोहों के माध्यम से कबीर ने सभी को यह संदेश दिया कि वे समाज में व्याप्त असमानता के बारे में आलोचनात्मक चिंतन करें और प्रेम, दया और करूणा को अपनाएं। कबीर का सबसे प्रमुख संदेश प्रेम है। उनका प्रसिद्ध दोहा हैः ‘‘पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़े तो पंडित होय‘‘।
वैसे तो प्रेम का संदेश अत्यधिक साधारण प्रतीत होता है परंतु एक ऐसे समय में, जब समाज टकराव, पहचान की राजनीति और असमानता से बुरी तरह से विभाजित और पीड़ित है, प्रेम के संदेश की भूमिका महत्वपूर्ण बन जाती है। कबीर के युग में ब्राम्हणों के वर्चस्व, धार्मिक कट्टरता, कर्मकांडों और सामंती मूल्यों का बोलबाला था। ऐसे समय में कबीर ने प्रेम, दया और करूणा का जो संदेश दिया, वह न केवल स्थापित परंपराओं के विरूद्ध था बल्कि उसके स्वर नितांत विद्रोही थे। कबीर ने ऐसे समाज की परिकल्पना की जिसमें प्रेम और दया का प्रमुख स्थान हो और जहां लोग ईमानदारी से आत्मचिंतन करें और भौतिकवाद से ऊपर उठें। उन्होंने अपनी इस परिकल्पना को निम्न दोहे में प्रगट कियाः कबीरा गर्व न कीजिए, ऊँचा देख आवास, काल परौ भुई लेटना ऊपर जमसी घास‘‘ (अपने ऊँचे मकान पर गर्व न करो, कल तुम जमीन के अंदर होगे और तुम्हारे ऊपर उगी घांस को जानवर खाएंगे)।
कबीर केवल संत-कवि नहीं थे। वे एक सुधारक भी थे। वे अन्याय और सामाजिक विषमता के विरोधी थे। यही कारण है कि आज भी उनके समर्थकों में बड़ी संख्या में दलित शामिल हैं। हिन्दुओं के दर्शन में व्याप्त अंधविश्वासों व रूढ़ियों के वे आलोचक थे। उन्होंने कट्टरता और परंपराओं को चुनौती दी। इसके चलते वे बनारस को छोड़कर मगहर में बस गए थे। उस समय यह आस्था थी कि काशी स्वर्ग का प्रवेश द्वार है और मगहर नरक का। कबीर इस अंधविश्वास को दूर करना चाहते थे। अपने इस निर्णय के बारे में उन्होंने कहा है ‘‘क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम ह्दय बस मोरा‘‘ (क्या काशी और क्या सूखा मगहर, जब मेरे ह्दय में राम बसते हैं)।
इसी तरह उन्होंने इस्लाम की कट्टरता को भी नहीं बख्शा । उन्होनें कहाः ‘‘कांकड़-पाथर जोड़कर मस्जिद लई बनाय, ता चढ़ मुल्ला बांग दे, क्या बहरा भयो खुदाय‘‘।
उनकी मान्यता थी कि ईश्वर एक है। ईश्वर की अनुभूति केवल सच्चे भक्तों को हो सकती है। इसके लिए न तो पंडित की आवश्यकता है और ना ही मुल्ला की। वे संगठित धर्म के विरोधी थे और धर्म के मानवीय रवैये के समर्थक थे।
आज के समय में कबीर की प्रासंगिकता
आज के पूरी तरह से विभाजित समाज में कबीर के संदेश का काफी महत्व है। कबीर आज भी प्रासंगिक हैं। आज के समय में धर्म और जाति के नाम पर समाज ध्रुवीकृत हो चुका है। जाति और धर्म के नाम पर निर्मित पहचानों ने समाज की समरसता और सामाजिक न्याय को बुरी तरह से प्रभावित किया है। राज्य सत्ता, समता, बंधुत्व और आजादी के मूल्यों की रक्षा करने में पूरी तरह से असफल रही है। कबीर की शिक्षा के संदर्भ में जिन समस्याओं पर चिंतन अवश्यक है उनमें से एक है जातिप्रथा। कबीर कहते हैं: ‘‘जो तू ब्राम्हण ब्राम्हणी का जाया, आन बाट काहे नहीं आया‘‘ (अगर तू ब्राम्हण और ब्राम्हणी का पुत्र है तो तू दूसरे रास्ते से क्यों नहीं आया अर्थात उसी रास्ते से क्यों आया जिससे हम सब आए हैं)।
आज भी समस्त संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद दलितों को उनके मूल मानवीय अधिकारों और अवसरों से हिंसा के जरिए वंचित रखा जा रहा है। हिन्दुत्व की राजनीति, जो सत्ताधारी दल की नीतियों का आधार है, जातिप्रथा और सामाजिक पदक्रम को मान्यता देती है। लगभग हर दिन समाचारपत्रों में दलितों के विरूद्ध हिंसा की खबरें छपती रहती हैं। यहां तक कि अगर वे मूंछ रखते हैं तो यह भी ऊँची जातियों को सहन नहीं होता।
क्या सत्ताधारी दल वास्तव में कबीर के दिखाए रास्ते पर चल रहा है? दलितों के खिलाफ हिंसा, केवल व्यक्तियों एक समूह द्वारा दूसरे समूह पर हमला नहीं है। यह लोगों की मानसिकता में व्याप्त नफरत और जन्मआधारित ऊँच-नीच में आस्था का प्रकटीकरण है। दक्षिणपंथी अतिवादी ऐसे राष्ट्रवाद के पैरोकार हैं जो दलित के प्राणों से अधिक महत्वपूर्ण गाय के जीवन को मानता है। इस तरह के लोगों के लिए कबीर ने कहा था ‘‘बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिल्या कोय, जो मन खोजा आपना, तो मुझसे बुरा न कोय‘‘।
कबीर एक मूर्तिभंजक कवि थे और भारत की मिली-जुली संस्कृति के प्रतीक थे। वे स्वयं को न हिन्दुओं से जोड़ते थे और न मुसलमानों से। वे दोनों धर्मों के कट्टरवाद के आलोचक थेः ‘‘चाहे गीता बांचिए, या पढ़िए कुरान, तेरा मेरा प्रेम है हर पुस्तक का ज्ञान‘‘।
कबीर के लिए प्रेम और करूणा सबसे महत्वपूर्ण थे। क्या हम कबीर की इस विरासत को सहेज पाए हैं? साम्प्रदायिक हिंसा, परस्पर अविश्वास, घृणा और धार्मिक आधार पर विशेष समुदायों को निशाना बनाने की प्रवृत्ति के चलते भारत का सामाजिक ताना-बाना बिखरने की कगार पर है। घृणा का बोलबाला इस हद तक हो गया है कि इंडिय स्पेंड रिपोर्ट के अनुसार सन् 2010 से 2017 के बीच भीड़ द्वारा लोगो को पीट-पीटकर मार डालने की 60 घटनाएं हुईं। इनमें से अधिकांश घटनाएं भाजपा शासित प्रदेशों में हुईं। क्या यह विडंबनापूर्ण नहीं है कि दादरी में मोहम्मद अखलाक की जान लेने के लिए लोगों को इकट्ठा करने का काम एक मंदिर के प्रांगण से किया गया था। आज धार्मिक सीमाएं राजनैतिक दलों की सीमाएं भी बन रही हैं। हिन्दुत्ववादी विचारधारा कहती है कि हिन्दू इस देश के मूल निवासी और असली नागरिक हैं। उसने देशभक्ति और राष्ट्रवाद के टेस्ट निर्धारित कर दिए हैं। इसके विपरीत, कबीर बहुवाद और समावेश के हामी थे। हिन्दू श्रेष्ठतावादी, समाज को एकसार बनाना चाहते हैं। एक ओर मुसलमानों को भीड़ द्वारा निशाना बनाया जा रहा है तो दूसरी ओर मुसलमानों के भारतीय संस्कृति में योगदान को घटाकर बताया जा रहा है। मुस्लिम शासकों के नाम पर जो सड़कें और इमारतें हैं उनके नाम बदले जा रहे हैं।
अगर यह सरकार सचमुच कबीर की शिक्षाओं को गंभीरता से ले रही होती तो वह विभिन्न स्तरों पर समुदाय विशेष के विरूद्ध हो रही हिंसा को रोकने के लिए कदम उठाती। वह यह सुनिश्चित करती कि अपराधियों को सजा मिले, देश में प्रेम और सद्भाव का वातावरण स्थापित हो और सभी धर्मों को बराबर सम्मान मिले। इसके विपरीत हम देख रहे हैं कि राज्य परोक्ष और अपरोक्ष रूप से हमलावरों और अत्याचार करने वालों का साथ दे रहा है। वह पीड़ितों और वंचितों के साथ खड़ा नहीं दिखता। क्या यही सबका साथ सबका विकास है?
यह दुर्भाग्यजनक तो है, परंतु आश्चर्यजनक नहीं, कि भाजपा कबीर पर कब्जा करना चाहती है। वह यह जानती है कि वंचित वर्गों में कबीर का गहरा प्रभाव है। इसी तरह का प्रयास अंबेडकर के मामले में भी किया गया था। हम केवल यह आशा कर सकते हैं कि कबीर के विचारों और शिक्षाओं का उपयोग केवल चुनाव में लाभ प्राप्त करने के लिए नहीं किया जाएगा। कबीर का आध्यात्म, जो आत्मचिंतन और प्रेम पर आधारित था, आज धर्म और जाति के नाम पर फैलाई जा रही हिंसा और कट्टरवादिता को रोकने में सक्षम है। कबीर ने कभी रूढ़ियों और परंपराओं का आंख मूंदकर पालन करने की सलाह नहीं दी। उन्होंने बात की एक ऐसे समाज के निर्माण की जो प्रेम, भक्ति और विनम्रता पर आधारित हो और जिसमें किसी के प्रति घृणा के लिए कोई स्थान न हो। सच को स्वीकार करने के लिए साहस चाहिए और दूसरों को वे जैसे हैं उसी रूप में अंगीकार करने के लिए उदारता। मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाकर ही हम अपने समाज को अधिक मानवीय और सामंजस्यपूर्ण बना सकेंगे। कबीर ने कहा था ‘‘भला हुआ मेरी मटकी फूट गई, मैं तो पनियन भरन से छूट गई‘‘।
(अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)