पंजाब का ईशनिंदा कानूनः असहिष्णुता की फिसलन भरी राह
ग्रंथ ईश्वर या किसी अलौकिक शक्ति की इच्छा को व्यक्त करते हैं
अगर कोई व्यक्ति यह कहता है कि धर्म की सत्ता को चुनौती देना गलत है तो मैं इसे ईशनिंदा मानता हूं। दुनिया में कोई ऐसा धर्म नहीं है जिसमें यह नहीं किया गया - जार्ज इलियट
इस उद्धरण से यह समझना आसान है कि कई महान चिंतकों ने ईशनिंदा को अपराध नहीं, बल्कि असहमति व आलोचनात्मक चिंतन और यथास्थिति को चुनौती देना माना है - ऐसी यथास्थिति को जो अन्याय की पोषक हो। इसलिए पंजाब सरकार का नया ईशनिंदा कानून, राज्य को ऐसी शक्तियां प्रदान करने का प्रयास है जिनका प्रयोग कर वह किसी भी असहमति को कुचल सके। यह एकाधिकारवादी और असहिष्णु राज्य के निर्माण की दिशा में कदम है।
हाल में पंजाब विधानसभा ने सर्वसम्मति से एक ऐसे विधेयक को अपनी मंजूरी दे दी, जिसमें गुरूग्रंथ साहब, गीता, कुरान और बाईबल का अपमान करने के दोषी व्यक्तियों के लिए आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान किया गया है। इस विधेयक के जरिए सरकार ने भारतीय दंड संहिता की धारा 295 को संशोधित किया है। मूल धारा में इस तरह के अपराध के लिए दो साल तक के कारावास का प्रावधान है। यद्यपि इस संशोधन विधेयक में चारों पवित्र पुस्तकों का समावेश है तथापि विधानसभा के सदस्यों के एक हिस्से ने यह मांग की थी कि इस कानून में गुरूग्रंथ साहब को विशेष दर्जा दिया जाए क्योंकि इस ग्रंथ को जीवित गुरू माना जाता है। सरकार ने यह संशोधन विधेयक पंजाब में गुरूग्रंथ साहब को अपवित्र करने की कई घटनाओं के प्रकाश में प्रस्तुत किया था।
इस विधेयक का उदारवादियों और अन्यों द्वारा कड़ा विरोध किया गया है। इस लेख में उन सरोकारों और निहितार्थों की चर्चा की गई है जो इस विधेयक से उपजते हैं। पहला मुद्दा तो यह है कि विधेयक यह मानकर चल रहा है कि धर्म केवल उसके पवित्र ग्रंथों तक सीमित है। यद्यपि यह तर्क दिया जा सकता है कि इन ग्रंथों में वह राह दिखाई गई है जिस पर संबंधित धर्म के अनुयायियों को चलना चाहिए। दूसरे शब्दों में, ये ग्रंथ ईश्वर या किसी अलौकिक शक्ति की इच्छा को व्यक्त करते हैं। परंतु धर्म को केवल उसकी पुस्तकों तक सीमित करना, धर्म और ईश्वर दोनों की परिकल्पना की अत्यंत संकीर्ण व्याख्या है। मार्क ट्वेन ने कहा था कि अगर ईश्वर बहुत बड़ा है तो उसकी निंदा से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता और अगर वह बहुत छोटा है तब भी उसकी निंदा से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। यह विधेयक धर्म को इतना कमजोर मानता है कि केवल उसके पवित्र ग्रंथों को अपमानित करने से वह धर्म भी अपमानित हो जाएगा। सभी धर्मों का मूल है प्रेम, करूणा और सत्य और इन मूल्यों को प्रोत्साहन देकर ही हम एक न्यायपूर्ण और सभ्य समाज का निर्माण कर सकते हैं। केवल पवित्र ग्रंथों की रक्षा करने से कुछ होने वाला नहीं है।
इस संशोधन विधेयक में केवल चार पुस्तकों की चर्चा है। क्या यह चयन मनमाना नहीं है? पहला सवाल तो यह है कि क्या ये पुस्तकें सचमुच और पूर्णतः उन धार्मिक आस्थाओं और आचरणों का संकलन हैं, जिन्हें संबंधित धर्म के अनुयायियों द्वारा अपनाया जाना चाहिए। उदाहरणार्थ, विधेयक यह मानता है कि गीता ही हिन्दू धर्म का एकमात्र पवित्र ग्रंथ है। यहूदी धर्म (इस्लाम, ईसाई और यहूदी) यह मानते हैं कि धर्मग्रंथ, परम सत्य का कोष हैं और इस प्रकार वे धर्मों का केन्द्रीय तत्व हैं। परंतु हिन्दू धर्म के बारे में यह बात सही नहीं है। यद्यपि हिन्दुओं का एक हिस्सा गीता को अत्यंत श्रद्धा और सम्मान की दृष्टि से देखता है परंतु निश्चित रूप से गीता हिन्दुओं के लिए वह नहीं है जो बाईबल ईसाईयों के लिए या कुरान मुसलमानों के लिए है। गीता, हिन्दू धर्म का अविभाज्य हिस्सा नहीं है। वह हिन्दू धर्म का स्तंभ नहीं है। हिन्दू धर्म अनेक आस्थाओं और विचारों का संगम है। यही कारण है कि इस धर्म में कई पंथ हैं जो अलग-अलग देवी - देवताओं की आराधना करते हैं और अलग-अलग ग्रंथों पर श्रद्धा रखते हैं। कुछ हिन्दुओं के लिए महाभारत सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है तो अन्य रामायण को यह दर्जा प्रदान करते हैं। रामायण के भी कई संस्करण हैं। इन संस्करणों में रामायण के किरदारों का अलग-अलग ढंग से चित्रण किया गया है और उनमें सत्य और असत्य, पाप और पुण्य, अच्छाई और बुराई की अलग-अलग परिभाषाएं हैं। फिर, वेद, पुराण और उपनिषद भी हैं। हिन्दू धर्म के इतने अधिक पवित्र ग्रंथ हैं कि पूरे धर्म का प्रतिनिधित्व करने वाली किसी एक पुस्तक को चुनना असंभव है और अगर ऐसा किया जाता है तो यह एक तरह से हिन्दू धर्म के बहुवादी चरित्र को नष्ट करने का प्रयास होगा।
दूसरे, समाज का एक तबका इन पुस्तकों को सामाजिक दमन और असमानता का स्त्रोत मानता है। इन पुस्तकों पर आधारित कानून हैं और आचरण व आपसी रिश्तों संबंधित नियम भी। यह भी सही है कि ये ग्रंथ सामाजिक पदक्रम की वकालत करते हैं और एक वर्ग को दूसरे वर्ग से श्रेष्ठ निरूपित करते हैं। उदाहरणार्थ, इन सभी ग्रंथों में महिलाओं को निचला दर्जा दिया गया है। इन धर्मग्रंथों के आधार पर भेदभावपूर्ण लैंगिक भूमिकाएं गढ़ी गई हैं और ये लैंगिक असमानता को बढ़ावा देते हैं। इस तरह के कानून बनाकर राज्य, नागरिकों को उनके इस अधिकार से वंचित कर रहा है कि वे इन ग्रंथों में कही गई बातों को चुनौती दे सकें या उन पर तर्क कर सकें।
सभी धर्म, सत्य को अत्यंत पवित्र मानते हैं। कोई धार्मिक ग्रंथ या सिद्धांत यह दावा नहीं करता कि सत्य केवल एक है। मूलतः, धर्म हमें अन्य मनुष्यों से प्रेम करने और उनके प्रति करूणा भाव रखने की शिक्षा देते हैं। वे हमें यह सिखाते हैं कि हम सत्य की विभिन्न अभिव्यक्तियों और विविधिताओं को स्वीकार करें। सत्य और उसकी अभिव्यक्ति, समय के साथ बदलती रहती है। हर पीढ़ी को यह अधिकार है कि वह समकालीन समाज की ज़रूरतों को देखते हुए इन ग्रंथों की दुबारा व्याख्या करे। इस तरह के कानून दुबारा व्याख्या के रास्ते बंद कर देते हैं। अगर धर्मग्रंथों को चुनौती देना अपराध घोषित कर दिया जाएगा तो गैलिलियो और अंबेडकर कभी जन्म नहीं ले सकेंगे।
इतालवी विद्वान, दार्शनिक और भौतिक विज्ञानी गैलिलियो ने 16वीं शताब्दी में यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि सूर्य इस ब्रम्हांड का केन्द्र है और धरती उसके चारों और चक्कर लगाने वाले अनेक ग्रहों में से एक है। यह सिद्वांत चर्च की तत्कालीन आस्थाओं से मेल नहीं खाता था। इस कारण उन्हें चर्च के कोप का सामना करना पड़ा। उनका उत्पीड़न हुआ और उन्हें अपनी शेष जिंदगी घर में नजरबंद होकर गुजारनी पड़ी। गैलिलियो को ईशनिंदा की सजा दी गई परंतु यह समझना बहुत कठिन नहीं है कि अगर गैलिलियो न हुए होते तो हम आज भी अंधकार के युग में जी रहे होते और यह मानते होते कि धरती ही पूरे ब्रम्हांड का केन्द्र है। दूसरा उदाहरण अंबेडकर का है। भारत में मनुस्मृति को सामाजिक रिश्तों पर लागू होने वाले कानूनों का स्त्रोत माना जाता था। मनुस्मृति, वर्णों के पदक्रम को पवित्र और अनुल्लंघनीय बताती है और शूद्रों के साथ अत्यंत अमानवीय व्यवहार को उचित ठहराती है। अंबेडकर को यह अहसास था कि मनुस्मृति अमानवीय और अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था को वैध और औचित्यपूर्ण ठहराने का एक शक्तिशाली उपकरण है और इसलिए उन्होंने मनुस्मृति का सार्वजनिक रूप से दहन किया। अगर अंबेडकर यथास्थिति को चुनौती नहीं देते और उस पुस्तक पर सवाल नहीं उठाते, जिसे अत्यंत पवित्र समझा जाता था, तो हम आज भी जातिगत भेदभाव को उचित मानते होते।
यद्यपि गैलिलियो और अंबेडकर जैसे चिंतकों को उनके समय में धर्म को चुनौती देने के लिए निंदा का सामना करना पड़ा और कष्ट भी भोगने पड़े तथापि उन्होंने ही वैज्ञानिक प्रगति और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना का मार्ग खोला। कोई भी समाज तभी प्रगति कर सकता है जब वह अमोघ माने जाने वाले विचारों को चुनौती दे। इस तरह के कठोर कानून पारित कर राज्य, मानव जाति के विकास को बाधित करेगा और आने वाली पीढ़ियों को इस बात के लिए बाध्य करेगा कि वे इन धर्मग्रंथों और उनकी शिक्षाओं को जस का तस स्वीकार करें। उन्हें धर्म की पुनर्खोज करने और समाज के समक्ष उपस्थित चुनौतियों और समस्याओं के संदर्भ में धार्मिक सिद्धांतों और शिक्षाओं पर सवाल उठाने के अधिकार से वंचित कर दिया जाएगा। जाहिर है कि इसका सबसे बड़ा खामियाजा महिलाओं और अन्य वंचित और कमजोर वर्गों को भुगतना पड़ेगा।
यह विधेयक धार्मिक बहुवाद को समाप्त करने का प्रयास तो है ही, यह राज्य को नागरिकों के जीवन और स्वतंत्रता के मूल अधिकारों से वंचित करने का हथियार भी उपलब्ध करवाता है। इस तरह के कानून राज्य को निरंकुश बनाते हैं। ये उसे यह अधिकार देते हैं कि वह जब चाहे अपने नागरिकों को जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित कर दे। जाहिर है कि इस तरह के कानूनों को बनाते समय पर्याप्त सावधानी बरती जानी चाहिए। यह किसी से छिपा नहीं है कि पुलिस और न्यायपालिका के अपने पूर्वाग्रह हैं। इस समय देश में ऐसा वातावरण बन गया है जिसमे असहमति के स्वरों को क्रूरता से कुचला जा रहा है और असहिष्णुता का बोलबाला बढ़ता जा रहा है। ऐसे वातावरण में राज्य और अन्यों के लिए भी नागरिकों के मूल अधिकारों पर अतिक्रमण करना आसान हो गया है। आज धर्म का राजनीति में जबरदस्त घालमेल है। ऐसे वातावरण में इस तरह के कानून इस प्रवृत्ति को और बढ़ावा देंगे।
देश में गौमांस और बच्चा चोरी के बहाने हो रही माब लिंचिंग की घटनाओं और हाल में अनेक नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं की गिऱफ्तारी से यह साफ़ है कि राज्य की नीतियों को चुनौती देना एक अत्यंत जोखिम भरा काम बन गया है। यह किसी से छिपा नहीं है कि राज्य सभी धर्मों के साथ समानता का व्यवहार नहीं कर रहा है और भारत में धर्मनिरपेक्षता और प्रजातंत्र दोनों खतरे में हैं। ऐसे में, धर्म को ज़रुरत से ज्यादा वैधता प्रदान करना किसी भी तरह से उचित नहीं कहा जा सकता।
इस सन्दर्भ में यह जानना भी उचित होगा कि क्या इस तरह के कानून की ज़रुरत थी, और क्या धार्मिक ग्रंथों के अपमान के लिए आजीवन कारावास की सजा निर्धारित करने से ऐसी घटनाएं रुकेंगीं। भारतीय दंड संहिता की धारा 295 कहती हैः “जो कोई किसी उपासना के स्थान को या व्यक्तियों के किसी वर्ग द्वारा पवित्र मानी गई किसी वस्तु को इस आशय से नष्ट, नुकसानग्रस्त या अपवित्र करेगा कि किसी वर्ग के धर्म का अपमान किया जाए या यह सम्भाव्य जानते हुए करेगा कि व्यक्तियों का कोई वर्ग ऐसे नाश, नुकसान या अपवित्र किए जाने को अपने धर्म के प्रति अपमान समझेगा, तो उसे दो वर्ष तक के कारावास, या आर्थिक दण्ड, या दोनों से दण्डित किया जाएगा” ।
कोई भी अपराध उसके लिए निर्धारित सजा के कड़े होने से नहीं रुकता, वह सजा की निश्चितता से रुकता है। भारत में सांप्रदायिक हिंसा अक्सर धार्मिक त्योहारों के दौरान होती है और सर्वाधिक मामलों में इसके पीछे होती है धार्मिक जुलूस को किसी विशेष रास्ते से निकालने की जिद्द या किसी आराधना स्थल में इस या उस जानवर का मांस पाया जाना। राजनैतिक नेताओं के नफरत फैलाने वाले भाषण आग में घी का काम करते हैं। परन्तु क्या ऐसे मामलों में धारा 295 का प्रयोग कर अपराधियों को सजा दिलवाने के सजग प्रयास होते हैं? इस प्रश्न का उत्तर हम सब जानते हैं।
इस कानून के मामले में एक खतरा और है। और वह यह कि इसका चुनिन्दा मामलों में उपयोग किया जायेगा। एनडीटीवी की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले पांच वर्षों में नफरत फैलाने वाले भाषणों की संख्या में 500 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। एनडीए शासनकाल में 45 राजनैतिक नेताओं ने सार्वजनिक रूप से नफरत फैलाने वाली बातें कहीं। इनमें से 35 भाजपा से थे और 10 अन्य पार्टियों से। सत्ताधारी दल के नेता खुलेआम नफरत फैला रहे हैं, हिंसा भड़का रहे हैं और साम्प्रदायिक सौहार्द के वातावरण को खराब कर रहे हैं। परंतु क्या इनमें से किसी के भी विरूद्ध धारा 295 के अंतर्गत प्रकरण दर्ज किया गया?
इस प्रवृत्ति के चलते इस बात की बहुत कम संभावना है कि नए कानून के अंतर्गत भी सत्ताधारी दल के शक्तिशाली नेताओं को सजा दिलवाने का प्रयास किया जाएगा। अगर यह कानून शक्तिशाली व्यक्तियों के खिलाफ इस्तेमाल नहीं होगा तो यह अर्थहीन है। संभावना यही है कि इसक प्रयोग उन वर्गों व व्यक्तियों के विरूद्ध होगा जो पहले से ही कमजोर हैं। हमारे कानूनी तंत्र और न्यायपालिका के काम की गति और तरीके को देखते हुए निर्दोष लोग वर्षों तक अदालतों के चक्कर लगाने को मजबूर होंगे।
ऊपर दिए गए तर्कों और विश्लेषण से यह साफ है कि इस कानून का कोई औचित्य नहीं है। यह कानून एकाधिकारवाद को प्रोत्साहन देगा और धर्मनिरपेक्षता व प्रजातंत्र के मूल्यों का क्षरण करेगा। जिस अपराध के लिए सजा का प्रावधान पहले से ही है उसके लिए एक नया कानून बनाना किसी भी तरह से उचित नहीं कहा जा सकता। यह कानून देश में धर्म के नाम पर फैल रही असहिष्णुता को बढ़ावा देगा। यह कानून धर्म की रक्षा करना तो दूर रहा, उसे नुकसान ही पहुंचाएग। जैसा कि इस लेख के प्रारंभ में जार्ज इलियट के उद्वरण में कहा गया है, धर्म की निंदा करना ईशनिंदा नहीं है। ईशनिंदा है अन्याय के विरूद्ध आवाज न उठाना। यही सभी धर्मों का सार है।
(अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)