लोकतंत्र में बच्चों की जगह की फिक्र
सिर्फ बड़ों का “खेल” नहीं है लोकतंत्र
लोकतंत्र का मतलब केवल चुनाव, सरकार के गठन या शासन से नहीं है. लोकतंत्र की परिभाषा इससे व्यापक है. इसमें राज्य, समाज और परिवार सहित हर प्रकार के समूह पर सामूहिक निर्णय का सिद्धांत लागू होता है. केवल राज्य के स्तर पर लोकतंत्र के लागू होने से हम लोकतान्त्रिक नहीं हो जायेंगे. इसे सामाज के अन्य संगठनों पर लागू करना भी उतना ही जरूरी है. इस सम्बन्ध में डॉ भीमराव अंबेडकर ने भी चेताया था कि “भारत सिर्फ राजनीतिक लोकतंत्र न रहे, बल्कि यह सामाजिक लोकतंत्र का भी विकास करे.”
सहभागिता लोकतंत्र का मूल तत्त्व है. लेकिन हमारे यहां इसे मतदान तक ही सीमित कर दिया गया है. चुनाव के दौरान हम अपने प्रतिनिधियों को चुनते तो हैं, लेकिन इसके बाद अपना नियंत्रण खो देते हैं. हमारे यहां चुनाव और मतदान का आधार भी लोगों के वास्तविक जीवन से जुड़े मुद्दे नहीं होते हैं. बल्कि यहां मुख्य रूप से ऐसे भावनात्मक और प्रतिगामी मुद्दे हावी होते हैं, जिनका लोकतान्त्रिक मूल्यों से कोई मेल नहीं होता. अलबत्ता कई मामलों में तो ये न्याय, समानता और बंधुत्व जैसे हमारे संविधान के बुनियादी मूल्यों के धजियाँ उड़ाते दिखाई पड़ते हैं. शायद लोकतंत्र की अपनी इसी समझ के कारण हम इसे बच्चों का “खेल” नहीं समझते हैं.
भारतीय संविधान सभी बच्चों को कुछ खास अधिकार प्रदान करता है. इसके तहत बच्चों को सही ढंग से पालन- पोषण, आजादी, इज्जत के साथ बराबरी अवसर व सुविधाएँ पाने का अधिकार है. यो तो वे 18 साल की उम्र से पहले वोट नहीं डाल सकते हैं, लेकिन इससे एक नागरिक के तौर पर उनकी महत्वता कम नहीं हो जाती है. हमारा संविधान बच्चों को वे सारे अधिकार भी देता है, जो भारत का नागरिक होने के नाते किसी भी बालिग़ स्त्री-पुरुष को दिया गया है.
एक समाज और तौर पर, यह समझ जरूरी है कि हम बच्चों को भी एक ऐसे स्वंतंत्र इकाई के तौर पर स्वीकार करें जिनकी खुद की सोच हो सकती है, अपनी एक राय हो सकती है, वे निर्णय भी ले सकते हैं और किसी भी विषय पर अपनी उम्र के हिसाब से उनका अपना स्वतंत्र मूल्यांकन भी हो सकता है. संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार कनवेंशन (सीआरसी) में भी बच्चे की सोच का सम्मान करने और उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देने कि बात की गयी है.
दुर्भाग्य से हम बच्चों के सोचने विचारने और उनकी खुद को अभिव्यक्त करने कि उनकी क्षमता को लेकर हम जागरूक नहीं हैं. इसके बदले हम इस बात पर यकीन करते हैं कि बच्चों में इतनी क्षमता नहीं होती है कि वे अपने बारे में सोच सकें या खुद की राय बना सकें. हम चाहते हैं कि बच्चे हमारे द्वारा निर्धारित किये गये साँचे के अनुसार ढल जायें. परिवार और समाज में उनकी अभियक्ति को लेकर हम निरंशुक हैं और कभी-कभी इससे असुरक्षित भी महसूस करते हैं.
जबकि हकीकत ये है कि हर बच्चे का अपना एक खास व्यक्तित्व होता है और कई बार उनकी मौलिकता हमें एक नयी दिशा दे सकती है. यदि हम बच्चों के विचारों, नजरिये और मैलिकता पर यकीन करेंगे, तो इससे हमारी दुनिया ज्यादा बेहतर होगी. बच्चे को हमेशा से ही बड़ों का आदर करने की सीख दी जाती है. लेकिन इस सीख को रिवर्स करके बड़ों को इसे खुद पर भी लागू करने कि जरूरत है. बड़ो को भी बच्चों के साथ उतने ही आदर सम्मानपूर्ण व्यवहार करना चाहिये, जितना की वे खुद के लिये बच्चों से उम्मीद करते हैं.
बाल सहभागिता का अर्थ है बच्चों से सम्बंधित मसलों और निर्णयों में बच्चों को शामिल करना. यह एक प्रक्रिया है जिसमें बच्चों को जरूरी जानकारी देना, उनके विचारों को अहमियत देना, उन्हें इसे व्यक्त करने का मौका देना, उनके विचारों को ध्यानपूर्वक सुनना, और उन्हें प्रभावित करने वाले निर्णयों में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करना शामिल है. बच्चों की इस सहभागिता को सुनिश्चित करने का काम अकेले संयुक्त राष्ट्र संघ या सरकारों का नहीं है. बल्कि इसमें अभिभावकों, परिवार, स्कूलों और समाज के अन्य संगठनों की भूमिका की ज्यादा बुनियादी और बड़ी है.
बाल सहभागिता को सुनिश्चित करने के लिये जरूरी है कि हम अपने जीवन से जुड़े हर क्षेत्र में ऐसा तंत्र विकसित करें, जहाँ बच्चे बिना किसी डर के अपनी बात रख सकें. नीतिगत रूप से भी यह जरूरी है कि बच्चों से संबंधित संस्थानों जैसे विद्यालय, छात्रावास आदि में ऐसे मंच की स्थापना सुनिश्चत हो सके, जहाँ बच्चे अपने विचारों को रख सकें.
दुर्भाग्य से हमारे समाज में बच्चों की सोच के लिए कोई मूल्य नहीं है. इसलिए हमारे जैसे देशों में बाल सहभागिता को लेकर लोगों की सोच में बदलाव से करने कि जरूरत है ताकि यह कवायद महज महज दिखावटी और कागजी बनकर ना रह जाये. हमें यह समझना होगा कि अगर बच्चों को मौका मिले तो वे खुद को अपनी पूरी स्वाभाविकता और सरलता के साथ अभिव्यक्त करते हैं. उनकी यह मौलाकिता बहुमूल्य है, जो हमारी इस दुनिया को और खूबसरत बना सकती है. बच्चे भले ही मतदाता ना हों, लेकिन वे इस मुल्क के बाशिंदे जरूर हैं. और उन्हें इसी नजरिये से देखने की जरूरत है. लोकतंत्र को लेकर हम बड़ों की समझ भले ही सीमित हो, लेकिन वास्तव में इसका दायरा बहुत व्यापक है और इसमें परिवार, विद्यालय, बच्चे और समाज के सभी संगठन शामिल है.