‘नो नेशन फॉर वीमेन’
भारत के रेप कल्चर परएक किताब
भारत में फैले रेप कल्चर पर पत्रकार प्रियंका दुबे की किताब ‘नो नेशन फॉर वीमेन’ आई है. यह किताब उत्तरी-पूर्वी भारत से लेकर पश्चिमी भारत के राज्यों के रेप, गैंग रेप और तस्करी पर लिखी गईं रिपोर्ट्सका हृदय विदारक चित्रण है. इस किताब में कई कहानियां नेशनल टेलीविज़न का हिस्सा नहीं बन सकीं और अगर बनीं भी तो कुछ दिन बाद दूसरी सनसनी खबरों के तले दब गईं. जबकि गैंग रेप भारत में अब महामारी का रूप ले चुका है. निर्भया केस के बाद ऐसे अपराधों में कमी आने के बजाय तेजी से वृद्धि हुई है.
किताब पढ़कर एहसास होने लगेगा कि ऐसा ही आपके किसी जानने वाले की बहू या बेटी के साथ भी हुआ है. हरियाणा के सोनीपत के गोहाना में दलित परिवार की नवविवाहिता बहू के साथ हुए गैंग रेप की घटना पढ़कर दिल बैठ जाता है जब गैंग रेप पीड़िता रोशनी पत्रकार से कहती है कि मैं अब सिर्फ मरना चाहती हूं लेकिन ये लोग मुझे मरने भी नहीं दे रहे हैं.
ये सिर्फ रोशनी की कहानी नहीं है, देश में तमाम रोशनियों को आग लगा दी गई है
साल 2012 में हरियाणा में लगातार 20 से अधिक रेप की घटनाओं ने नेशनल हेडलाइन्स बनाई थीं. 2012 में ही रोशनी की शादी हुई थी. शादी के बाद वह पहली बार मायके आई थी. पड़ोस की किसी औरत ने झूठ कह दिया कि उसका पति रेलवे फाटक के पास उससे मिलने आया है लेकिन जब वह फाटक के पास गई तो उसके पति की बजाय कुछ बदमाश मिले, जिन्होंने उसका अपहरण कर लिया. उसे हरियाणा के कई छोटे कस्बों और शहरों में ले जाया गया. पांच रातों तक लगातार उसका गैंग रेप होता रहा.
वो रेपिस्टों ( बलात्कारियों) से तो जान बचाकर आ तो गई लेकिन उसके बाद उसके साथ ससुराल पक्ष और गांव वालों ने जो किया, वह भयावह था. कोर्ट में उससे बयान बदलवाए गए. आरोपियों को छोड़ दिया गया और रोशनी की ज़िंदगी नर्क बना दी गई. ये सब रेप कल्चर की मानसिकता के तहत घटा. इस गैंग रेप के बाद रोशनी के ऊपर कड़ा पहरा बैठा दिया गया. वो बाहर अकेले बाथरूम भी नहीं जा सकती क्योंकि घर में बाथरूम नहीं है और बाहर जाने के लिए उस पर दो लड़कियों की पहरेदारी है.
रोशनी कहती है कि अगर ये पहरा हट जाए तो वो खुद की जान ले ले. जितनी पीड़ा उसे गैंग रेप ने नहीं दी उससे ज़्यादा यातना गांव, घर-परिवार ने उसे दी. यहां तक कि उसके पति ने भी उसे शक की निगाहों से देखा.
इतना ही नहीं कोर्ट में जजों ने उसे झूठे बयान देने जुर्म में 10 दिन की जेल और 500 रूपये का फाइन लगा दिया. जबकि सब जानते थे कि उसके साथ गैंग रेप हुआ है लेकिन आरोपियों ने उसके ससुरालपक्ष पर इतना दबाव बनाया कि उसे अपने बयान बदलने पड़े.
यह किताब देश के अलग-अलग हिस्सों के खास केसों को उठाती है . बलात्कार के पीछे सिर्फ पितृसत्तात्मक सोच ही नहीं होती. उसके पीछे राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं भी होतीहैं. किताब के कई अध्यायों में बंटी रेप घटनाओं की कहानियां हमारे समाज में औरतों की स्थिति को कई तरीके से बयान करती हैं और ये साबित करती हैं कि हर जगह औरतें उतनी ही कमजोर हैं. यहां तक कि एक रेप घटना की रिपोर्ट करने जाते वक्त ट्रेन में प्रियंका के साथ ही छेड़खानी कर दी गई थी. प्रियंका की किताब पढ़ते वक्त अपने जीवन में सुनी-देखी घटनाएं याद आती हैं और प्रतीत होता है कि हर जगह ऐसी कहानियां मिल जाएंगी जहां औरतें असहाय हैं.
एक महिला पत्रकार के तौर पर क्या महसूस होता है?
मैंने मुज़्ज़फरपुर के बालिका गृह मामले पर रिपोर्टिंग करने के लिए जब बिहार का दौरा किया तो जाना कि महिलाओं पर हो रहे इन अत्याचारों से आम जनता को कोई खास मतलब नहीं रहा है. बालिका गृह में आई बच्चियां ज़्यादातर हाशिए पर खड़े वर्ग से ताल्लुक रखती थीं. उनके माता-पिता के बारे किसी को मालूम नहीं था. उन्हें रेलवे स्टेशनों से उठाया गया था. उन्हें जानवरों से भी बदतर हालातों में रखा गया.उनसे ना ही महिलाओं और ना ही पुरुषों से अच्छा व्यवहार किया. बालिका गृह की उन बच्चियों ने कोर्ट में बताया कि किस तरह उन्हें गर्म पानी फेंककर डराया जाता था, उनके गर्भाशय पर लात मारी जाती थी, उन्हें दांतों से काटा जाता था. जब सुबह वो सोकर उठती तो वो चलने तक की हालत में नहीं होती थीं. उस बालिका गृह में अबॉर्शन करने के औज़ार तक बरामद हुए. पुलिस जांच में बृजेश ठाकुर के दफ्तर से कार्टन भर कंडोम मिले. कुछ लड़कियों को मारकर दफनाया भी जा चुका है. जिनके कंकाल बाद में सीबीआई जांच के दौरान मिले.
रिपोर्टिंग के दौरान मैंने पाया कि मुज़्ज़फरपुर के जिस बालिका गृह में यह सब घटित हुआ उससे मात्र 500 मीटर दूर चाय बेचने वालों से लेकर बड़े दुकानदारों या रोज आकर काम करने वालों या उधर रहने वालों को, किसी को इससे कुछ मतलब नहीं था. बृजेश ठाकुर के घर के पीछे एक सब इंस्पेक्टर का घर भी है, लेकिन उसे भी इस मामले से कोई लेना देना रहा. बाहर एक पड़ोसी महिला से पूछा तो उन्होंने कुछ भी बताने से मना कर दिया. अख़बारों में छपा कि पड़ोसियों को चीखने की आवाज़ें आती रहीं लेकिन उन्होंने पुलिस को इससे अवगत कराना ज़रूरी नहीं समझा.
ऐसा ही कुछ मुझे रेवाड़ी गैंग रेप की रिपोर्टिंग के दौरान देखने को मिला. गांव के सभी लोग पीड़िता पर ही दोष मढ़ रहे थे, जबकि पुलिस के सामने आरोपियों ने खुद स्वीकारा था कि वो उस कोटड़ी (जहां गैंगरेप किया गया) में कई गैंग रेप की वारदातों को अंजाम दे चुके हैं. लेकिन कभी किसी महिला या लड़की ने कोई पुलिस कंप्लेंट नहीं करवाई तो उनकी और हिम्मत बढ़ गई. अगर सरकारी आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि हरियाणा में हर रोज़ तीन गैंग रेप होते हैं.
निर्भया केस के बाद गैंग रेप इतने ज़्यादा बढ़ गए थे कि सरकार को इसके लिए अलग से एक कैटेगरी बनानी पड़ी. क्योंकि गैंग रेप, रेप से अलग होते हैं. ये एक खास पैटर्न में किए जाते हैं.
भारत के रेप कल्चर को समझने के लिए क्या उपकरण हैं हमारे पास?
निर्भया केस को एक मील का पत्थर माना जा सकता है. इसके बाद ही देश में औरतों ने खुल के बोलना शुरू किया. इसके पहले ये मामले इज्जत के नाम पर दबा दिये जाते थे. बहुत कम मामले ही कोर्ट तक ले जाये गये. जैसा कि प्रियंका की किताब से पता चलता है कि कोर्ट तक जाने में क्या क्या सहना पड़ता है. पर हमारे पास रेप कल्चर को समझने के लिए किताबों की कमी थी. भारत के मणिपुर और कश्मीर के कुनन पाशपोरा में हुई रेप की घटनाओं पर तो किताबें लिखी गई हैं. डू यू रिमेम्बर कुनन पाशपोरा और द मदर्स ऑफ मणिपुर. ये दोनों ही किताबें जुबान पब्लिकेशन से आईं. पर ये किताबें आर्मी पर लगे रेप के आरोपों पर हैं. ऐसे अरुणा शानबाग के रेप पर एक किताब आई थी. Aruna’s Story के नाम से. अरुणा रेप के बाद कोमा में चली गईं और मरते दम तक कोमा में ही रहीं. अरुणा एक अस्पताल में नर्स थीं और उसी अस्पताल की नर्सों ने जीवनपर्यंत अरुणा की सेवा की. इन घटनाओं में जनता के मन में क्रोध तो आया पर ये क्रोध विशेष घटा तक ही सीमित रहा. यही हाल कानूनों का भी रहा.
मथुरा रेप कांड और भंवरी देवी रेप कांड के बाद देश में नये कानून बने. वैसे ही निर्भया रेप के बाद नया कानून बना. पर ये कानून समाज को रेप कल्चर के बारे में आगाह नहीं करा पा रहे थे. ऐसा लगता थाकि ये कभी-कभी होनेवाले अपराध हैं. रेप कल्चर को समझने के लिए हमारे पास उपयुक्त किताबें नहीं थीं. प्रियंका की किताब ये बताती है कि ये अपराध सिर्फ एक बार घटित होनेवाले नहीं हैं, बल्कि ये पूरी तरह से सामाजिक-राजनीतिक संरक्षण में होनेवाले अपराध हैं. जहां कानून इन अपराधों को गलत मानता है, वहीं सामाजिक-राजनीतिक तानाबाना इन अपराधों को गलती मानता है और दोषियों को बचा लेजाता है. यही नहीं, ये तानाबाना औरतों और लड़कियों को चरित्रहीन साबित कर अपना पीछा छुड़ा लेता है, साथ ही औरतों का मुंह भी बंद कर देता है. और फिर से इन अपराधों की पुनरावृत्ति होती है. इसीवजह से कई मामलों में लड़कियां बोलती ही नहीं हैं.
अगर किताबों की बात करें तो अमेरिका की लेखिका सूसन ब्राउनमिलर की Against our Will सत्तर के दशक में आई पहली किताब थी, जिसने समाज में फैले रेप कल्चर को समझाने की कोशिश की थी.इसी तरह केट हार्डिंग की Asking for it ने सामाजिक तानेबाने का उपहास उड़ाते हुए इसे समझाने का प्रयास किया था कि कैसे समाज लड़की पर ही दोष डाल देता है कि लड़की ने ‘ऐसे काम किये जिसकी वजह से उसका रेप हुआ’. जेसिका वैलेंटी की किताब The Purity Myth ने रेप कल्चर की जड़ में जाने की कोशिश की थी, जहां औरतों का ‘कौमार्य’ भंग करने को उनकी ‘इज्जत लूटने’ से जोड़ा जाता है. समाज की नजर में लड़की अपनी मर्जी से भी संबंध बनाये तो वो भी गलत है और अगर किसी ने बलात्कार कर दिया तो लड़की की ही गलती है. बलात्कारी हर तरह से मजबूत स्थिति में रहता है.
प्रियंका की किताब को इस दिशा में एक अच्छा प्रयास माना जाए. इसके बाद भारत के रेप कल्चर पर कई किताबें आने की संभावना है. हर जगह से ऐसी किताबें आनी चाहिए, जिनसे इस महामारी सेनिपटने का उपाय मिल सके.