जिंदगी की चाह का खत्म हो जाना...
जिंदगी की चाह का खत्म हो जाना...
जन्म का पल्लू पकड़ साथ चली आती हो,
धूप पर जीवन की, बन साया मंडराती हो.
मृत्यु तुम जीवन के साथ ही आती हो,
कभी असमय ही मृत्यु से इच्छामृत्यु का नाम पाती हो.
ऊब कर कष्टों से कभी चाहें भी तुमको बुलाएं भी.
तो संवैधानिक नियमावली की बेड़ियों में जकड़ जाती हो।
अगर किसी व्यक्ति की इच्छा-मृत्यु का सवाल हो तो मेरा मानना है कि हर काम सही होने के लिए जरूरी है उससे जुड़ी हर प्रक्रिया का ठीक से पूरा होना। इसी तरह अपनी इच्छा से मरने के लिए जरूरी है संबंधित व्यक्ति के शरीर का पूरी तरह से अचेत हो जाना। तब ऐसी स्थिति में इच्छा-मृत्यु के प्रस्ताव को स्वीकार किया जाना चाहिए और ऐसा ही हुआ। वर्षों से चली आ रही बहस नौ मार्च 2018 को अंतिम मुकाम पर पहुंच गई सुप्रीम कोर्ट ने निष्क्रिय इच्छामृत्यु की इजाजत दे दी। कोर्ट ने कहा कि मनुष्य को गरिमा के साथ मरने का अधिकार है। आखिर यह फैसला कानून और नैतिकता के बीच कई वर्षों की कश्मकश के बाद आया। लेकिन उन लोगों के लिए यह राहत लेकर आया जो अपनी जिन्दगी से हार कर अचेत अवस्था में या मृत्यु शैय्या पर वर्षों से पड़े थे।
इच्छा-मृत्यु की मांग करना दरअसल जिंदगी की चाह का खत्म हो जाना है। जबकि जिंदगी अपने मूल रूप में मृत्यु का इंतजार ही है, लेकिन अपनी इच्छा से मरना मूल रूप में जिंदगी से हारना ही है। इच्छा-मृत्यु पर हमारे समाज में एक गहरा विवाद उत्पन्न हो चुका था, जब सर्वोच्च न्यायलय ने इस पर खुली बहस का आमंत्रण दिया था। जो लोग इच्छा-मृत्यु के पक्ष में सोचते हैं, उनका कहना है कि जब जीवन जीने लायक न रह जाए तो फिर जीवित रहने का क्या फायदा? कुछ का कहना है कि रोग से पीड़ित व्यक्ति अगर बिल्कुल असहाय हो जाए और उसका जीवन नीरस हो चुका हो तो ऐसे व्यक्ति के इच्छा-मृत्यु के निर्णय को स्वीकार किया जाना चाहिए। लेकिन सवाल है कि यह कौन तय करेगा कि वह व्यक्ति अचेत अवस्था में है? वह खुद या फिर कोई और?
बहुत से ऐसे देश हैं, जिन्होंने अपने यहां इच्छा-मृत्यु को संवैधानिक तौर पर मान्यता दे रखी है। उनमें अमेरिका, स्विट्जरलैंड, नीदरलैंड, बेल्जियम आदि प्रमुख हैं। इन देशों ने इच्छा-मृत्यु को आमतौर पर दो श्रेणियों में बांट रखा है- सक्रिय और निष्क्रिय इच्छामृत्यु। सक्रिय इच्छामृत्यु यानी ऐसी बीमारी से पीड़ित व्यक्ति जो स्वस्थ न हो सकने की स्थिति में हो, उसे उसकी इच्छा से मृत्यु दे दी जाती है। अमेरिका को छोड़ कर स्विट्जरलैंड, नीदरलैंड और बेल्जियम आदि देश इसे मान्यता देते हैं। इच्छामृत्यु की दूसरी श्रेणी यानी निष्क्रिय इच्छामृत्यु में ऐसे व्यक्ति होते हैं, जो केवल जीवन रक्षक प्रणाली द्वारा अचेत अवस्था में जीवित रहते हैं। इच्छा-मृत्यु के इस श्रेणी को अमेरिका ने भी मान्यता दी है।
लेकिन मेरे विचार के अनुसार मनुष्य का अपनी इच्छा से मरना व्यक्तिगत स्वतंत्रता के दायरे में शामिल होना चाहिए। भारत में फिर एक बार इच्छा-मृत्यु की वैधता-अवैधता का प्रश्न खड़ा हुआ था, जब सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्यों को इस पर खुली बहस का आमंत्रण दिया। मनुष्य को अपनी इच्छा से मरने का अधिकार है या नहीं? यह एक संवैधानिक विषय बन गया था।
इसे संवैधानिक विषय के दायरे से निकाल कर धार्मिक विषय के रूप में देखा जाए तो भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है और हर धर्म के अपने-अपने नियम परिचायक ग्रन्थ हैं। मजबूरी और मानवता की दुविधा में उलझी इच्छा-मृत्यु का प्राचीन ग्रंथों में केवल महाभारत में उल्लेख मिलता है। घायल अवस्था में पड़े भीष्म पितामह तभी अपने प्राणों का त्याग करते हैं, जब सूर्य दक्षिण से उत्तरायण में आ जाता है। लेकिन उस कथा के मुताबिक तब उन्हें अपने प्राण त्यागने के लिए किसी संवैधानिक नियमावली, संसद और न्यायालय के अनुमति की जरूरत नहीं थी।
निश्चय ही हमारे देश में भी शांतिपूर्ण मृत्यु का अधिकार ऐसे लोगों को मिलना ही चाहिए जो अपने जीवन से नीरस होकर अचेत अवस्था में जीवित हैं, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के मत के अनुसार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत भारत के प्रत्येक नागरिक को जीवन का अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी है। इसमें किसी भी दशा में मृत्यु के अधिकार को शामिल नहीं किया जा सकता है।