केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह और नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजन्स (एनआरसी) के अधिकारियों ने यह भरोसा दिलाया है कि कोई भी भारतीय नागरिक नहीं छूटेगा और उन्हें अपनी नागरिकता साबित करने का पर्याप्त मौका दिया जायेगा.
लेकिन उनका यह आश्वासन बेमतलब साबित हो रहा है क्योंकि नागरिकता सूची से छूटे 40 लाख लोगों के जेहन में एक डर बैठ गया है. आशंका एवं असुरक्षा से ग्रसित इन लोगों से भले ही नये सिरे से आवेदन मांगे गये हों, लेकिन अंतिम नतीजे को लेकर वे बेहद घबराये हुए हैं.
कुल 3.29 करोड़ आवेदकों में से 2.89 करोड़ को 30 जुलाई को घोषित अंतिम मसौदे में योग्य पाया गया. और इस प्रकार, कुल 40 लाख लोग नागरिकता सूची से बाहर हो गये.
31 दिसम्बर 2017 को प्रकाशित पहले मसौदे में 1.9 करोड़ लोगों को स्थान दिया गया था.
एनआरसी, जोकि असम राज्य के लिए अनूठा माना जाता है, को पहली बार 1951 में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से आये अवैध आप्रवासियों से भारतीय नागरिकों को अलग करने के लिए जारी किया गया था. सूची को अद्यतन करने की ताज़ा प्रक्रिया 2015 में शुरू हुई थी.
अद्यतन किये गये नये एनआरसी में उनलोगों या उनके वंशजों के नाम शामिल किये गये हैं जिनके नाम 1951 के एनआरसी में शामिल थे या 25 मार्च 1971 तक की मतदाता सूची में दर्ज थे या इसी तिथि की मध्य रात्रि तक के किसी अन्य मान्य दस्तावेजों, जिससे असम में उनकी उपस्थिति साबित होती हो, मे मौजूद थे.
नागरिकता सूची से बाहर हुए 25 वर्षीय छात्र मुज़म्मिल हक को अपना भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा है.
दारांग जिले के सिपाझार का निवासी मुज़म्मिल ने द सिटिज़न को बताया, “मुझे कुछ भी नहीं सूझ रहा कि अब क्या किया जाये. मेरे माता – पिता बेहद चिंतित हैं. सारे दस्तावेज जमा करने के बाद हमारे साथ ऐसा बिल्कुल नहीं होना चाहिए था.”
एनआरसी के अधिकारी और सरकार भले ही यह कह रहे हों कि सूची में छूटे लोगों को अपना नाम शामिल कराने के लिए पर्याप्त अवसर दिए जायेंगे, लेकिन जमीनी स्तर पर लोगों के लिए यह एक बेहद चिंता और परेशानी का सबब बन गया है.
मुज़म्मिल ने कहा, “इस पूरी प्रक्रिया में अधिकारियों की गलतियों की वजह से कई वास्तविक भारतीय नागरिकों छूटे हैं. लिहाजा अब हमें बहुत चिंता हो रही है.”
भूटान सीमा से सटे उदालगुरी जिले के निचिलामारी गांव की निवासी 55 वर्षीय जयमती दास और उनके दो बेटों के नाम नागरिकता सूची से गायब हैं. द सिटिज़न ने पिछले दिनों एक ख़बर में यह जानकारी दी थी कि नागरिकता साबित करने संबंधी नोटिस मिलने के बाद जयमती के 65 वर्षीय पति, गोपाल दास, ने कथित रूप से आत्महत्या कर ली थी.
जयमती ने द सिटिज़न से कहा, “हमने अपना सबकुछ खो दिया. मेरे पति नहीं रहे. और अब हमारा नाम भी नागरिकता सूची से गायब है. हम बेहद दुखी और चिंतित हैं.”
एनआरसी के अधिकारियों के मुताबिक, नागरिकता सूची के अंतिम मसौदे से हटाये गये 40 लाख नामों में चुनाव आयोग द्वारा चिन्हित 2.48 लाख संदिग्ध मतदाता शामिल हैं. इस सूची में उनलोगों के नाम भी शामिल हैं जिन्हें फोरेनर्स ट्रिब्यूनल से नागरिकता साबित करने संबंधी नोटिस मिली है.
राज्यभर में स्थापित कुल 100 फोरेनर्स ट्रिब्यूनल में इस समय कुल 2.5 लाख मामले लंबित हैं. मामलों की इतनी बड़ी तादाद खुद ही एक हकीकत बयां करती है. अधिकारियों ने बताया कि अंतिम सूची से हटाये जाने वाले लोग फोरेनर्स ट्रिब्यूनल से संपर्क कर अपना दावा जता सकते हैं. लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में मामलों का त्वरित गति से निपटारा करना संभव हो पायेगा?
असम के कई लोगों को यह महसूस हो रहा है कि एनआरसी वैसा नहीं है जैसा उसे असम के बाहर, खासकर सोशल मीडिया में, दर्शाया जा रहा है. संसद या सोशल मीडिया में, इस कवायद को मुसलमान और बंगाली विरोधी कदम के तौर पर उछाला जा रहा है.
गुवाहाटी स्थित खेल पत्रकार सृजोन चौधुरी ने कहा, “बाहर के लोगों को बेसिरपैर का टिप्पणी करते देखना बहुत बुरा लगता है. एनआरसी राज्य से किसी निश्चित समूह या समुदाय को हटाने का माध्यम नहीं बल्कि सामूहिक रूप से अवैध घुसपैठ के खिलाफ लड़ने का एक उपाय है. अवैध घुसपैठ की प्रक्रिया ने राज्य में विभिन्न समस्याओं को जन्म दिया है.”
श्री चौधुरी ने अपने फेसबुक पोस्ट में खुद को असम में रहने वाला का एक बंगाली बताया है.
गुवाहाटी स्थित एक वकील नेकीबुर ज़मान ने कहा कि एनआरसी की कवायद राज्य को अवैध घुसपैठ से मुक्त कराने के लोगों की बहुप्रतीक्षित मांग का नतीजा है.
श्री ज़मान ने कहा, “हम चाहे हिन्दू हो या मुसलमान, राज्य को अवैध घुसपैठियों से मुक्त देखना चाहते हैं. हमने 1971 को अंतिम सीमा माना है और इस तिथि के बाद किसी भी अवैध व्यक्ति का, चाहे वो किसी भी धर्म, जाति और संप्रदाय का हो, यहां स्वागत नहीं है.”