असम में नागरिकता संशोधन विधेयक ने दिया उल्फा को नया जीवन
पुलिस के मुताबिक उल्फा में तेजी से शामिल हो रहे असम के युवा
यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ़ असम (उल्फा) असम में लगभग मरणासन्न स्थिति में था. लेकिन एक संप्रभु असम की स्थापना के लिए सशस्त्र संघर्ष छेड़ने वाले इस संगठन को पिछले कुछ महीनों में नया जीवनदान मिला है. राज्य भर से इस संगठन में शामिल होने वाले युवकों की तादाद में बढ़ोतरी हुई है.
कई लोगों का मानना है कि विवादास्पद नागरिकता संशोधन विधेयक, 2016 की वजह से ऐसा हुआ है. इस विवादास्पद विधेयक में 31 दिसम्बर, 2014 से पहले अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान से असम में आये गैर – मुसलमानों को नागरिकता प्रदान करने का प्रावधान है.
वर्ष 2015 से भारत सरकार के साथ वार्ता में संलग्न रहे उल्फा के महासचिव अनूप चेतिया का भी यही मानना है. श्री चेतिया ने कहा, “सरकार ने इस राज्य के लोगों की भावनाओं एवं मांगों का सम्मान नहीं किया. इस विधेयक को नहीं लाया जाना चाहिए था. हम धर्म के आधार पर बंटवारा नहीं चाहते.”
राज्य पुलिस ने इस बात की पुष्टि की है कि राज्य भर से छात्र नेताओं से लेकर प्रशिक्षित इंजीनियर तक इस संगठन में शामिल हुए हैं.
वर्ष 2016 में संसद के पटल पर रखे जाने के बाद से इस विधेयक के खिलाफ पूरे राज्य, खासकर ब्रह्मपुत्र घाटी में जनता का जबरदस्त विरोध देखा जा रहा है.
आल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) एवं कृषक मुक्ति संग्राम समिति जैसे प्रभावी संगठन सैकड़ों अन्य संगठनों के साथ मिलकर इस बिल के विरोध में सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं. इन संगठनों का मानना है कि धर्म के आधार पर नागरिकता नहीं तय की जा सकती. ये सभी संगठन इस बात के समर्थक हैं कि नागरिकता प्रदान करने के लिए 25 मार्च, 1971, जिस पर छह वर्ष के लंबे संघर्ष के बाद हुए असम समझौते में एकमत से सहमति बनी थी, को आधार तिथि मानी जाये.
राज्य पुलिस का कहना है कि इस नागरिकता संशोधन विधेयक के अस्तित्व में आने के बाद से यहां के युवकों में उल्फा के प्रति आकर्षण जबरदस्त रूप से बढ़ा है और वे तेजी से इस संगठन में शामिल हो रहे हैं.
राज्य के पुलिस महानिदेशक (स्पेशल ब्रांच) पल्लव भट्टाचार्य ने द सिटिज़न को बताया, “हाँ, निश्चित रूप से उस तरफ जाने वाले युवकों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है. और नागरिकता विधेयक इसका एक मुख्य कारण है. मैं आपको इस बढ़ोतरी की प्रतिशतता के बारे में सही आंकड़ा नहीं दे पाऊंगा. लेकिन 1 सितम्बर से, राज्य के विभिन्न इलाकों से कुल 11 युवा उस संगठन में शामिल हुए हैं. अगर हम पूरे साल की गणना करें, तो यह संख्या और भी ज्यादा होगी. और यह पिछले साल के मुकाबले ज्यादा है.”
हालांकि, श्री भट्टाचार्य ने इस पूरे मामले को तूल देने के लिए मीडिया को दोषी ठहराया. उनका मानना है कि मीडिया में छपी खबरों ने युवाओं को शह दिया है. उन्होंने बताया, “हमलोगों ने सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर युवाओं के व्यवहार पर निगरानी रखने के लिए अपने साइबर सेल को सक्रिय कर दिया है.”
दोबारा उभरी उल्फा की चुनौतियों के बारे में उन्होंने कहा कि अरुणाचल प्रदेश के तीन सीमावर्ती पड़ोसी जिलों – तिरप, चांगलांग और लोंग्डिंग – के कठिन भौगोलिक इलाकों की वजह से असम में पुलिस का कम थोड़ा चुनौतीपूर्ण हो जाता है.
इस बीच, पुलिस ने उल्फा प्रमुख परेश बरुआ के भतीजे मुन्ना बरुआ के संगठन, जोकि फ़िलहाल उल्फा (इंडिपेंडेंस) के नाम से जाना जाता है, में शामिल होने की पुष्टि की है. 24 वर्षीय मुन्ना डिगबोई रिफाइनरी में एक प्रशिक्षु के तौर पर काम कर रहा था.
असम के सुदूर पूर्वी भाग में स्थित तिनसुकिया जिले के जागुन इलाके के दसवीं कक्षा का छात्र करिश्मा मेच इस महीने के शुरुआत में उक्त संगठन में शामिल हो गया.
असम के भूतपूर्व पुलिस महानिदेशक जी एम श्रीवास्तव के मुताबिक, कुछ असामान्य एवं चिंताजनक प्रवृतियों को देखा जा सकता है. श्री श्रीवास्तव ने द सिटिज़न को बताया, “ ऊपरी असम के जिलों में युवाओं का एक वर्ग परेश बरुआ को अपना नायक मानता है. लेकिन निचले एवं मध्य असम के युवाओं ने भी पिछले कुछ महीनों में उस संगठन को अपनाया है. ऐसे युवाओं में एक छात्र – नेता भी था. मुझे यह जानकारी मिली है कि बरुआ के करीबी साथियों ने उसके नक्शेकदम को अपना लिया है. इससे संकेत मिलता है कि नागरिकता विधेयक एक मुद्दा है.”
हालांकि, उन्होंने आगे जोड़ा कि युवाओं की बेरोजगारी जैसे अन्य कारणों ने भी सशस्त्र संघर्ष में उनके शामिल होने को प्रोत्साहित किया है. उन्होंने कहा, “बेरोजगारी ने युवाओं में निराशा की भावना बढ़ाया है. सरकारी योजनाएं भी उनकी अपेक्षाओं पर खड़ी उतरीं. अगले छह – सात महीनों तक हमें घटनाक्रमों पर नजर रखनी होगी. यो तो हालात खतरनाक नहीं है, लेकिन हमें सतर्क रहना होगा.”
श्री श्रीवास्तव के मुताबिक, उस संगठन में अबतक इस साल कम से कम 45 युवक शामिल हो चुके हैं.