युवाओं को बीमार बनाने वाली कंपनियों पर लगे लगाम

युवाओं को बीमार बनाने वाली कंपनियों पर लगे लगाम

Update: 2018-03-20 16:53 GMT

आखिर हम कोई काम क्यों करते हैं? इसके कई जवाब हो सकते हैं, लेकिन आम सहमति से एक निष्कर्ष पर तो पहुंचा ही जा सकता है कि किसी भी काम का अंतिम लक्ष्य खुशी और संतुष्टि होता है। हम नौकरी भी इसलिए करते हैं कि इससे हमें पैसें मिलेंगे और हम उससे खुशी खरीद सकेंगे। साफ-साफ शब्दों में कहें तो कर्मचारी अपना श्रम बेचता है और बदले में खुशी खरीदने का साधन यानि पैसा पाता है। लेकिन स्थितियां उल्टी दिखती है। खुशी खरीदने के चक्कर में कहीं हम बीमार तो नहीं होते जा रहे हैं?

एसोचैम हेल्थकेयर समिति ने हाल में अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि कंपनियों और मालिकों की ओर से अनुचित और अवास्तविक लक्ष्य देने के कारण कॉरपोरेट कर्मचारियों की नींद उड़ रही है। इससे उन्हें दिन में थकान, शारीरिक परेशानी, मनोवैज्ञानिक तनाव, प्रदर्शन में गिरावट और शरीर में दर्द जैसी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि कर्मचारियों में डायबीटीज और उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियां बढ़ रही हैं और उनका यूरिक एसिड, मोटापा और उच्च कॉलेस्ट्रॉल भी बढ़ रहा है। जा​हिर सी बात है हम बीमार हैं तो दुखी हैं भले ही हमारे आसपास सुख की अनुभूति कराने के बहुत से साधन मौजूद हो। ऐसे में हमें खुश रहने के लिए स्वस्थ्य रहना ही होगा।

दरअसल कर्मचारी भी इंसान होते हैं। वह कोई मशीन नहीं होता, जिससे जितना चाहे उतना उत्पादन करवाया जा सके। मजबूरी और जरूरत के कारण या फिर काम के प्रति अपने जुनून और लगाव के कारण इंसान नौकरी करता है और कंपनी अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के चक्कर में कर्मचारी का शोषण करने में लगी रहती है। ये कंपनियां अपने लाभ के लिए अपने ही कर्मचारियों के स्वास्थ्य की चिंता भी नहीं करतीं बाकि बातों को तो छोड़ ही दिया जाना चाहिए। यह भयावह और अमानवीय नहीं तो और क्या है?

पहले के जमाने में जब सुविधाएं कम थीं तब निरोग रहने के कारण इंसान ज्यादा खुश रहता था, जबकि आज की तारीख में जब हर तरह की सुविधा और संसाधन मौजूद है तब इंसान ज्यादा दुखी और बीमार हो रहा है। व्यक्ति जब बीमार होता है तो उसके सामने बाकी सारी बातें फीकी लगती हैं। बीमार व्यक्ति अगर स्वस्थ रहेगा तभी खुश हो सकता है।

आखिर जिस खुशी की तलाश में कर्मचारी नौकरी करने जाते हैं वही नौकरी उसका स्वास्थ्य लील रहा है। आखिर ये कंपनियां अपनी तरक्की के लिए कर्मचारियों का इतना शोषण करने पर क्यों उतारू हैं कि वह अपने कर्मचारियों को ही मरीज बना रही हैं। वही कर्मचारी जो उसकी तरक्की में भागीदार है। कंपनियों को यह समझना चाहिए कि अगर उसका कर्मचारी बीमार बनेगा तो यह उसके हित में नहीं होगा। लेकिन ये कंपनियां अपने हित को लेकर इतनी अंधी हो चुकी हैं कि यह कुछ सुनने को तैयार नहीं हैं।

वास्तव में एक स्वस्थ्य इंसान के लिए नींद बहुत जरूरी होता है लेकिन शोध के मुताबिक 56 प्रतिशत कर्मचारी 24 घंटों में से 6 घंटे से भी कम नींद ले पाते हैं। ऐसे में उनसे स्वस्थ्य रहने की उम्मीद तो नहीं ही की जा सकती है। इससे उसका स्वाथ्य प्रभावित होगा और उसका स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाएगा।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी हाल में बोर्ड एवं प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी में जुटे छात्रों को संबोधित करते हुये कहा था कि नींद लेना बहुत जरूरी है। प्रधानमंत्री भले ही छात्रों को संबोधित करते हुये पूरी नींद लेने की बात कह रहे हों लेकिन व्यापक तौर पर अगर देखा जाए तो यह सब पर लागू होता है। निश्चित रूप से यह बात कर्मचारियों पर भी लागू होता है।

बड़े-बड़े, आलीशान और कांच के बने शीशमहलों में काम करने वाले कर्मचारियों को आमतौर पर हड्डी से जुड़ी बीमारियों से भी दो-चार होना पड़ता है। ऐसा विटामिन डी नहीं मिलने के कारण होता है। कर्मचारियों को प्राकृतिक रूप से सूरज की रौशनी से मिलने वाला विटामिन डी नहीं मिल पाता है ऐसे में उन्हें सप्लीमेंट पर निर्भर रहना पड़ता है। आखिरकार एक इंसान कब तक और कितना सप्लीमेंट ले और क्यूं लें? क्या ऐसी समस्याओं पर लगाम लगाने के लिए ठोस और व्यापक पहल नहीं होनी चाहिए?

रिपोर्ट के मुताबिक देश में 46 प्रतिशत कर्मचारी तनाव से जूझ रहा है। इस तनाव का स्तर बहुत ज्यादा होता है और कर्मचारी अपने कार्यालय से तनाव लेकर घर भी आता है। निश्चित तौर पर कर्मचारी का तनाव परिवार में घुलता-मिलता होगा और उसकी पत्नी एवं बच्चों पर भी इसका असर पड़ता होगा। एक व्यक्ति से एक परिवार बनता है और परिवार से समाज। हमें ऐसी कंपनियों के जरिए ऐसे समाज के निर्माण करने की छूट नहीं देनी चाहिए जिसमें तनाव हो। ऐसा तनाव कई तरीके से बाहर निकलता है। समाज में तनाव के कारण कई तरह की समस्याएं देखने को मिलती है। ऐसे में जब हमें मर्ज का पता चल गया है तो उसके इलाज में कोई कोताही नहीं बरतनी चाहिए और इस पर लगाम लगाने के लिए आवश्यक और ठोस पहल करनी चाहिए।

कई बार यह देखने को मिलता है कि कर्मचारी आगे बढ़ने के लिए खुद दिन-रात मेहनत करना चाहता है। भूख-प्यास और नींद को छोड़कर खुद की तरक्की के लिए लगा रहना चाहता है लेकिन यह विनाशकारी होता है और आखिरकार कर्मचारी को इसका प्रतिफल भुगतना ही पड़ता है।

हमें ऐसे कर्मचारियों को भी बचाना होगा और उन्हें रोकना होगा। इस समस्या का समाधान है। ऐसी समस्याओं से निपटने के लिए हमें समय-समय पर कर्मचारियों का काउंसलिंग कराना चाहिए ताकि वह अपनी क्षमता को पहचान सकें और तदनुसार मेहनत कर अपनी सफलता की इबारत लिख सके।

भारत का पड़ोसी एक छोटा देश है भूटान। जहां पर सकल राष्ट्रीय हैप्पीनेस आयोग है। छोटा देश होने के बावजूद यहां हैप्पीनेस मंत्रालय है और यह इस बात का सबूत है कि यहां कि सरकार अपने देश के लोगों की खुशी को बहुत अधिक तरजीह देती है। इतना ही नहीं भूटान के जैसे ही वेनेजुएला और संयुक्त अरब अमीरात में भी हैप्पीनेस मंत्रालय है।

ऐसा नहीं लगता कि ऐसी कंपनियां किसी भी तरह से दबाव में आने वाली हैं और ये किसी तरह से अपने कर्मचारियों पर दबाव बनाने से बाज आएंगी। साथ ही अधिक से अधिक लाभ कमाने का अपना लोभ संवरण कर सकेगी। ऐसे में सरकार को चाहिए कि कर्मचारियों के जरिए समाज को बीमार बनाने वाली इस तरह की कंपनियों पर लगाम लगाने के लिए ठोस कानून बनाए और इसका कड़ाई से पालन करें ताकि कर्मचारी भी चैन की नींद ले सके, जिससे एक स्वथ्य और निरोग समाज का निर्माण हो।

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