मोदी इजराइल-फिलीस्तीन की तरह भारत व पाकिस्तान के बीच बातचीत की पहल क्यों नहीं करते?

संदीप पाण्डेय

Update: 2018-02-18 11:40 GMT

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत का कहना है कि उनका संगठन चाहे तो तीन दिनों में सेना खड़ी कर सकता है जबकि भारतीय सेना को यह करने में छह से सात माह लगेंगे। यह तो बड़ी अच्छी बात है। रा.स्वं.सं. को सैनिकों की आपूर्ति का काम दे देना चाहिए। रा.स्वं.सं. के कार्यकर्ता तो देशभक्ति की भावना से सेना की सेवा करेंगे। मोहन भागवत उनके अनुशासन व सेवानिष्ठा की तारीफ कर ही चुके हैं। इससे कम से कम सेना का तनख्वाह का पैसा तो बचेगा। अब तो उन्हीं की सरकार है। वे सरकार से ऐसा करने को क्यों नहीं कहते?

देश भक्ति का इतिहास

ऐसा हमें सुनने को मिलता है कि रा.स्वं.सं. के लोग देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत होते हैं और देश के लिए कुर्बानी देने को तैयार रहते हैं। सेना उनको सुपुर्द करने से पहले जरा उनकी बहादुरी का प्रमाण देख लेना चाहिए। देश की आजादी की लड़ाई में तो कोई प्रमाण है नहीं क्योंकि रा.स्वं.सं. उसमें शामिल ही नहीं हुआ। कुल मिलाकर उनकी विचारधारा को मानने वाले विनायक दामोदर सावरकर जेल गए और वह भी माफी मांग कर निकल आए। रा.स्वं.सं. की विचारधारा को मानने वाले एक दूसरे व्यक्ति नाथूराम गोडसे ने दुनिया में जिस व्यक्ति से आज भी भारत की पहचान होती है महात्मा गांधी उसे ही मार डाला। फिर 1992 में जब उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी, जो रा.स्वं.सं. की राजनीतिक इकाई है, की सरकार थी तो उनके लोगों की भीड़ ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढाह दी। देश में पांच बम विस्फोट की घटनाएं ऐसी हुई हैं जिनमें रा.स्वं.सं. की विचारधारा से प्रेरित लोगों का हाथ होने का आरोप है। इन घटनाओं में सेना से जुड़े लोग जैसे लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत पुरोहित व सेवा निवृत मेजर रमेश अपाध्याय भी शामिल थे। अतः सेना में तो रा.स्वं.सं. पहले से ही सेंध लगा चुकी है। अब जब भा.ज.पा. की पूर्ण बहुमत वाली सरकार केन्द्र में कायम है तो रा.स्वं.सं. के विचार से प्रेरित लोग गौ-हत्या अथवा गौ-मांस का सेवन करने या लव जेहाद के आरोप में अकेले में पाकर किसी भी मुस्लिम या दालित के साथ मार-पीट से लेकर उसकी जान तक लेने की कार्यवाइयां कर रहे हैं। हिन्दुत्व की विचारधारा पर सवाल खड़े करने वाले लोगो को भी अपनी जान से हाथ धोने का खतरा है। उन्हें भी अकेले में पाकर ही मारा जा रहा है। रा.स्वं.सं. के लोग इसमें अपनी बहादुरी देखते हैं और इसे राष्ट्र की सेवा भी मान रहे होंगे, जैसे मोहम्मद अखलाक को दादरी में मारने वाले एक आरोपी युवा की जब मृत्यु हुई तो उसके शव को तिरंगे में लपेटा गया, किंतु ये घटनाएं ऐसी प्रेरणा तो नहीं देतीं कि रा.स्वं.सं. के लोगों को सेना का काम करने दिया जाए।

उल्टे एक बार नवम्बर 2008 में जब पाकिस्तानी आतंकवादी मुम्बई में तीन दिनों तक ताण्डव करते रहे थे तो रा.स्वं.सं. के लोग कहीं दिखाई नहीं पड़े। यदि रा.स्वं.सं. के कर्तव्यनिष्ठ और शिव सेना के हमेशा आक्रामक तेवर के साथ तैयार कार्यकर्ता बड़ी संख्या में निकल आए होते और ताज होटल में घुस जाते तो ताज होटल के अंदर आतंकवादी एक ही दिन में पकड़ लिऐ जाते। किंतु अपनी असली बहादुरी दिखा पाने का एकमात्र मौका तो इन कार्यकर्ताओं ने गवां दिया। रा.स्वं.सं. का मुख्यालय भी महाराष्ट्र में है। तो जब दुश्मन ने घर में घुस कर कार्यवाही की तो पता नहीं क्यों रा.स्वं.सं. के लोग सिर्फ तमाशबीन बने रहे? जिस सेना को मोहन भागवत बता रहे हैं कि छह-सात महीने तैयारी में लगेंगे उसी ने तीन दिनों में आतंकवादियों पर काबू पाया और एक को जिंदा भी पकड़ा।

राष्ट्रवाद की राजनीति का उद्देश्य

रा.स्वं.सं. राष्ट्रवाद के नाम पर जो राजनीति करता है उससे मात्र आक्रामकता पैदा होती है जिससे हमें नुकसान ही होता है। नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद से पाकिस्तान के साथ हमारे सम्बंध खराब होते गए। इसका नतीजा यह हुआ कि सीमा पार से ज्यादा हमले होने लगे। सरकार द्वारा सर्जिकल स्ट्राइक जैसी खूब प्रचारित निर्णायक कार्यवाही के बावजूद हमारे सैनिक व नागरिक लगातार मारे जा रहे हैं। हम बदले की कार्यवाही करते हैं और पाकिस्तानी सैनिकों को मारते हैं। किंतु इससे किसको लाभ हो रहा है सिवाए हमें हथियार बेचने वाले मुल्कों को। भारत के चीन के साथ सम्बंध भी कोई बहुत दोस्ताना नहीं हैं किंतु चीन के साथ हम इस बात का ध्यान रखते हैं कि सीमा पर कोई मारा न जाए। न तो हमारा सैनिक न उनका सैनिक। ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों देशों की सरकारों का कोई अलिखित समझौता है कि किसी की जान नहीं लेनी है।

अच्छा होता यदि भारत सरकार पाकिस्तान के साथ इसी तरह का कोई समझौता कर ले। इसके लिए जो जम्मू व कश्मीर की मुख्यमंत्री पाकिस्तान से साथ बात करने की बात कह रही हैं वही सही रास्ता है। भारत सरकार इसे प्रतिष्ठा का मुद्दा न बना कर यदि समस्या हल करने की दिशा में कोई बातचीत की पहल करे तो दोनों तरफ के सैनिकों की जानें बच सकती हैं। आखिर जिस दिन नरेन्द्र मोदी ने तय किया वे पाकिस्तान चले ही गए। उनके नवाज शरीफ के साथ सम्बंध देख कर ऐसा तो नहीं लगता कि उनकी नवाज शरीफ से कोई दुश्मनी है। बल्कि वे तो नवाज शरीफ के पारिवारिक कार्यक्रम में शामिल हुए और उनकी मां को एक शॉल तोहफे में दी। यदि नरेन्द्र मोदी खुद नवाज शरीफ के साथ दोस्ताना सम्बंध बनाने की इच्छा रखते हैं तो यह अवसर हमारे सैनिकों को क्यों नहीं मिलना चाहिए? कम से कम एक दूसरे की जान लेने से तो अच्छा है कि एक दूसरे का हाल-चाल लें और तोहफों का आदान-प्रदान करें। यह तो दोनों तरफ के नेताओं पर निर्भर करता है कि वे अपने बीच किस किस्म का रिश्ता चाहते हैं।

नरेन्द्र मोदी ने इधर फिलीस्तीन जाकर आजाद फिलीस्तीन के पक्ष में भूमिका लेकर बड़ा काबिले-तारीफ काम किया है। उन्होंने इजराइल को यह बता दिया कि भले ही भारत इजराइल से हथियार व सैनिक प्रशिक्षण लेगा लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह फिलीस्तीन की आजादी की बात छोड़ देगा। उन्होंने इजराइल व फिलीस्तीन के विवाद को शांतिपूर्ण तरीके से हल करने की आवश्यकता भी रेखांकित की। इजराइल-फिलीस्तीन समस्या काफी कुछ भारत-पाकिस्तान समस्या की ही तरह है। यदि नरेन्द्र मोदी यह मानते हैं कि इजराइल-फिलीस्तीन की समस्या का हल बातचीत से हो सकता है तो वे इसी तरह की पहल भारत व पाकिस्तान के बीच क्यों नहीं करते?
 

Similar News

Justifying The Unjustifiable

How Votes Were Counted

The Damning Of Greta Thunberg