“हमारे समय का समाज और विकल्प”
कहीं हम उत्पीड़न की संस्कृति की ओर तो नही जा रहे?
प्रत्येक समाज चाहे वो अफ्रीका का हो, यूरोप या एशिया का हो सभी की एक सामूहिक चेतना होती हैं जहां उसके आदर्श, सपने, कल्पनाएँ जीवित रहते हैं हर समाज अपने सदस्यों को आत्मविश्वास देता है कुछ बड़े सपने देखने का, हौसला देता है लीक से हटकर सोचने का, साहस देता है अपनी नियति को स्वयं से लिखने का, एक लाइन में कहे तो आत्मबल देता ताकि उसके सदस्य जीवन के अहम प्रश्नों और कर्म युद्ध मे कमजोर न पड़े लेकिन आज के समय में हमारे समाज मे चारों तरफ हताशा और निराशा पसरी हुई।
सामाजिक संबंध तो समाज के आधार स्तंभ होते हैं जो व्यक्ति को ताजग़ी देते हैं उसे जीवंत बनाते हैं लेकिन वो महज अवसर , सुविधा और जरूरत का आधार बनकर रह गए जिनका आधार प्रेम और सम्मान होता था वो उस दौड़ के महज एक सहयोगी बनकर रह गए है, सब लोग भाग रहे हैं कहीं पहुँचने की जल्दी ओर हड़बड़ाहट में लेकिन कहा जा रहे हैं ? कुछ पता नही है ,कहाँ पहुचना है? क्या यही पहुँचना था? किसी को साथ लेकर भी जाना है या अकेले ही चले जाना है ? यह सब प्रश्न अब अप्रासंगिक हो गए हैं, सभी को एक हड़बड़ी ओर जल्दबाजी है , किसी को अपने आत्म मूल्यांकन का वक्त ही नही है, संस्थाओं को कहां लेकर जाना है ?नीतियों में कितनी दूरदर्शिता है ? देश- समाज के लिए कोई दिशा नही है , एक दिशाहीनता की स्थिति व्याप्त है।
प्रकृति ओर कला से रिश्ता टूटता जा रहा है ।व्यक्ति का प्रकृति से क्या संबंध हो ? आज यह प्रश्न ही अप्रासंगिक हो गया है , कला महज आनंद और मनोरंजन , सुख का माध्यम बनकर रह गई है जब व्यक्ति का प्रकृति से, कला से कोई नाता ही नही रहा तो उस व्यक्ति में संवेदना कहाँ से मिलेगी ? प्रकृति और कला की यात्रा तो जीवन की तलाश की यात्रा होती है, वो जीवन को नए नजरिए से देखने का साहस देती हैं , व्यक्ति को गिरकर उठाती हैं, जंगल, नदी, पहाड़ , झरने तो व्यक्ति को जीवन के करीब लेकर जाते हैं, कला हर दिन व्यक्ति में नए रंग भरती है , लेकिन हमने प्रकृति को केवल उपभोग की ओर कला को मनोरंजन की वस्तु मान लिया और खुशहाली का पैमाना जीडीपी को बना दिया जिससे संवेदनहीनता की स्थिति पैदा हो गई है।
किसी भी समाज की सबसे बड़ी ताकत या खूबी इस बात से तय नही होती कि वो कितनी बड़ी अर्थव्यवस्था है? वहां प्रति व्यक्ति ऊर्जा की खपत कितनी है? वहां प्रति व्यक्ति आय कितनी है? बल्कि इस बात से तय होती है कि वहां लोगों की स्मृति कितनी तेज है? उनका द्रष्टिकोण कितना साफ है? उनको अपनी समृद्ध परंपराओं का कितना ज्ञान है? उसको जीवन शैली ओर सभ्यता की कितनी परख है ?उनको अपने समाज में तनाव के बिंदुओं ओर सहयोग के बिंदुओं का भली भांति ज्ञान है या नही ?
वो अपनी खूबियों ओर कमजोरियों से वाकिफ हैं या नही? लेकिन आज के दौर में व्यक्ति स्मृतिविहीन हो गया है वो केवल अपने तक सिमट गया है , उसने सामूहिकता से एक अलगाव पैदा कर लिया है, स्मृति विहीन होने पर न साहित्य की रचना संभव है और न ही समाज की, न इतिहास का ज्ञान होता है और न भविष्य की चाप को सुन पाते हैं इससे अपने समाज से एक अलगाव की स्थिति पैदा हो जाती है।
किसी भी समाज की बुनियाद वहां की शिक्षा व्यवस्था होती है जो व्यक्ति को समाज के करीब लाती है उसे इंसान बनाती है लेकिन हम दोनों ही अर्थों में फेल हो रहे है । आज शिक्षा व्यक्ति ओर समाज में एक खाई का निर्माण कर रही है नौकरी पाना आजीविका का लक्ष्य हो सकता है जीवन का लक्ष्य कतई नही । शिक्षा तो समाज के विमर्श को बनाने में, उसे एक निश्चित दिशा देने में उन परंपराओं ,विचारों, नीतियों को तर्क की कसौटी पर कसने में ,समाज को उसके दोषो, कमियों से अवगत करवाने में एवं उनका विकल्प तलाशने में अहम भूमिका निभाती है ।
समाज में सुशाशन कितना है यह इस बात से तय होगा कि वहां राजीनीतिक विमर्श कैसा है? और किसी समाज मे राजनीतिक विमर्श कैसा है यह इस बात से तय होगा की वहां विमर्श के विषय कौनसे हैं और उसका दायरा कैसा है? और इस विमर्श को बनाने में उसे एक दिशा देने में वहां के सिविल समाज का सबसे अहम योगदान होता है लेकिन आज सिविल समाज ने डर और तठस्थता की चादर ओढ़ ली है विमर्श के अहम सवाल गायब है विमर्श अत्यंत संकीर्ण मुद्दों पर सिमट गया है, उससे तो संवादहीनता की स्थिति पैदा होना तय है।
जब- जब समाज पर अंधकार के बादल मंडराते है तब तब उनको हटाने के लिए कुछ ऐसे किरण पुंज सामने आते हैं जो उस समय को सकारात्मकता से भरते हैं भले ही वो हंसी के पात्र बनते हो, बेवकूफ कहलाते हों, पागल समझे जाते हो लेकिन वो समाज की सामूहिक चेतना का प्रतिनिधित्व करते हैं, समाज का नैतिक आधार तैयार करते हैं। भले ही ऐसे लोग गिने चुने ही रहे हैं लेकिन आज ऐसे लोगों का अकाल पड़ गया है। नैतिक तौर पर समाज कंगाल हो चुका है। ऐसे लोगों का समाज मे सम्मान हो रहा है जो बहिष्कार के लायक हैं।
किसी भी समाज की खूबसूरती और उसकी ताकत वहां पर मौजूद जीवन मे विविधता और संस्कृतियों का आपस मे समायोजन होता है । किसी भी सभ्यता का स्वास्थ्य भी इसी आधार से तय होता है कि वहां मौजूद संस्कृतियों में कितना अन्तरसंवाद है, आज के समय मे उतर पूर्व का समाज बिल्कुल अलग कटा हुआ है, दक्षिण भारत को दूसरे हिस्से में रहने वाले हम अपना मानना नही चाहते, धर्मों ओर जातियों को लेकर उसी स्थिति में पहुंच गए जहां से स्वतंत्रता संग्राम शुरु किया था। लोकतंत्र केवल आंकड़ों का खेल नही हैं बल्कि यह मूल्य व्यवस्था,सिद्धांतो, संस्थाओं और प्रक्रियाओं से तय होता है।
जब समाज आशाहीन, संवेदनहीन, विचारशून्य, संवादहीन, स्मृतिविहिन और दिशाहीन हो ,यही स्थिति तो अंधकार काल है, त्रासदी की बात यह है कि हर कोई इससे निकलने के लिए राजनीतिक जीत की बात कर रहा है। लेकिन कोई भी समाज के दिल- दिमाग को नही जीतना चाहता तो केवल राजनीतिक जीत से क्या हासिल होगा?
हमें कुछ प्रश्नो का जवाब तलाशना होगा, हम किस तरहं का समाज का ताना- बाना बून रहें हैं जबकि समाज का ताना बाना कैसा होना चाहिए? कहीं हम उत्पीड़न की संस्कृति की ओर तो नही जा रहे? अपने विचार को प्रखर रखने का यह मतलब तो नही है कि हम दुसरे की बात को दबा दें? आखिर नई व्यवस्था कैसी होनी चाहिए? ओर उस व्यवस्था में हमारी भूमिका कितनी होनी चाहिए ?आज राजनीति छुट्टा साँड हो गई है। विकल्प ऐसा होना चाहिए जो न केवल उसके ऊपर नकेल कस सके बल्कि उसे एक दिशा भी दे सके।विकल्प ऐसा होना चाहिए जो विमर्श को तय कर पाए, उन मुद्दों को केंद्र में रख पाए। विकल्प ऐसा होना चाहिए जो संवादहीनता को तोडे, कुछ उम्मीद की किरण दिखा सके।
दुनिया उन लोगों ने बदली है जो अलग रास्ते पर चले ओर अकेले पड़ने पर कभी घबराएं नही, जो आराम की जिंदगियां होती हैं वो बीत जाती हैं फिर उनकी कोई याद भी नही रहती लेकिन जो अनसेटल जीवन होते है वो ही आगे चलकर हमारे नज़रियों को ठीक करते हैं और ऐसा पूरी दुनिया मे हुआ है ,अनसेटल जीवन ने ही हमे यह बताया है कि हम अपने जीवन मे सेटल कैसे होंगे ।
संयोजक- नई दिशाएँ।