यारबाज पूंजीवाद एक बड़ा चुनावी मुद्दा

कई पूंजीवादी घराने मोदी सरकार से नाखुश लगते हैं

Update: 2018-08-07 13:01 GMT

एक बार फिर भारत में यारबाज पूंजीवाद ( क्रोनि केपिटलइस्म) पर बहस शुरू हो गयी हैं और भारतीय पूंजीवाद की दो बड़ी पार्टियों ने एक दूसरे पर पूंजीवादी घरानों से सांठ- गाँठ का आरोप लगाया है.

प्रधान मंत्री मोदी ने लखनऊ में औद्यगिक शिखर सम्मलेन में यह बयान दिया कि हम वो लोग नहीं हैं जो उद्योगपतियों के बगल में खड़े होने में डरते हो; देश को बनाने में उद्योगपतियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है . यदि हम उन्हें अपमानित करेंगे तो देश का विकास कैसे होगा ? और आगे, “कुछलोग परदे के पीछे सब कुछ करते हैं , लेकिन सामने आने से डरते हैं” ; और इसके जवाब में कांग्रेस ने यह कहा है कि वे उद्योगतियों के विरोध में नहीं हैं, वे केवल यार बाज अथवा सहचर पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म) के विरोध में हैं. इस आदान प्रदान से यह साफ हो गया है की यारबाज पूंजीवाद एक बड़ा चुनावी मुद्दा होने जा रहा है. लेकिन हमारे देश के लिए यह कोई नई बात नहीं है , यह विवाद हर काल में अपने अपने तरीके से सामने आता रहा है . हर पूंजी वादी पार्टी एक दूसरे पर पूंजीपतियों से सांठ गाँठ काआरोप भी लगाती है और सांठ गाँठ में सबसे आगे भी रहती हैं

नरेन्द्र मोदी ने यह सवाल क्यों उठाया

सवाल यह है कि नरेन्द्र मोदी ने यह सवाल क्यों उठाया ? पूंजीपतियों से रिश्ते को लेकर मोदी सरकार पर राहुल गाँधी और कांग्रेस ने पैसे वालों का पक्षधर होने का आरोप लम्बे समय से लगाते रहे हैं . राहुल गाँधी का यह व्यंग

की यह सूट बूट की सरकार है, लगता है भाजपा को चुभ गया है और यह चुनाव में एक बार फिर उठ सकता है और चुनाव इस मुद्दे पर ही लड़ा जा सकता हैं. मेहुल चोकसी के मामले में यह रह्स्योद्घाटन कि भारत सरकार ने कि उसे क्लीन चिट दे दी थी और तभी एंटीगा ने उसे नागरिकता दी है, से यह विषय और अधिक संगीन हो गया है और इसकी सम्भाव्ना बन गयी है की यह आगामी दिनों में एक प्रमुख मुद्दा बन जाए.

वास्तव मे जिस बात पर दोनों लोग एक दुसरे को दोषी ठहरा रहे है वे स्वयं इस बात को करते आ रहे हैं. भारत में एक विचित्र प्रकार का विकास हुआ है जिसकी वजह से जो कहा जाता है वह तथ्यों के विपरीत होता है .यहाँ पूंजीपति वर्गों को एक ऐसे समय में स्थापित करने और उसकी रक्षा करने की ज़रुरत थी जब दुनिया और देश में समाजवादी चिंतन का बोलबाला था.यह समय था 1950 के दाशक का. यह ऐससमय था जब पूंजीपति वर्गों के लाभ या यूं कहे की पूंजीवादी व्यवस्था के लाभ के लिए किये गए राष्ट्रीयकरण को ही समाजवाद का नाम दे दिया गया था. सार्वजनिक क्षेत्र को ही इस और बढाया हुआ कदम माना गया था. यह सोच केवल कांग्रेस जैसी पूंजीवादी पार्टियों ने ही नहीं फैलाई थी, बल्कि कम्युनिस्ट पार्टियां भी इसमें शामिल थी या उनकी इसमें मह्र्त्वपूर्ण भूमिका थी .इसलिए उस समय एक और तो ये सभी पार्टियां समाजवाद की बांग सुबह से शाम तक दिया करती थी और दूसरी और पूंजीवाद के लाभ के लिए उठाये कदमों को भी समाजवादी कदम बताती थी. इस दौर में सभी लोग इस प्रचार के शिकार हुए की सार्वजिक उद्योग समाजवाद जैसा कदम ही है . बैंकों का राष्ट्रीयकरण को भी इसी श्रेणी में रखा गया . तो बात तो समाजवाद की होती थी और समस्त काम पूंजीवाद का . यही राजनैतिक प्रचार की सामान्य पद्धति बन गयी थी .

जनता को जब संबोधित किया जाता था तो पैसे वालों की बुराई और सुधारवादी कदमों की बात होती थी .पूंजीवादी शोषण को ख़तम करने की बात होती थी, व्यवहार में इसके ठीक विपरीत पूंजीवाद को मज़बूत करने के लिए कदम उठाये जाते थे और पूंजीवादी घरानों के साथ आचार और व्यवहार निर्धारित करते थे .

अंबानी से दोस्ती

हर काल में कुछ पूंजीवादी घराने ऐसे रहे हैं जो उससमय की सत्ता के नज़दीक थे . सत्ता विशेष तौर पर उनके लाभ के लिए क़ानून और नियम बनाती रही हैं .बिडला और टाटा पहले के काल में मुख्य रहे हैं . टाटा को प्राम्भ के तीस वर्षों तक मोटर कार बनाने का लाइसेंस नहीं दिया गया इससे बिडला की हिंदुस्तान मोटर्स को प्रतिस्पर्धा से बचा दियागया . उसी प्रकार बिडला को इस्पात बनाने का लाइसेंस नहीं दिया गया ; यह क्षेत्र टाटा स्टील के लिए आरक्षित कर लिया गया था.इसी प्रकार इंदिरागांधी की दूसरी वापसी में अम्बानी सत्ता के बहुत करीब थे. नीतियाँ रिलायंस कंपनी की ज़रुरत को दृष्टिगत रखते हुए बनाई जाती थी .कुछ समय के लिए वी पी सिंह प्रतिरक्षा मंत्री और फिर प्रधान मंत्री के बतौर नस्लीवाडिया समूह के नज़दीक थे. और आज यदि देखे तो अनिल अम्बानी, मुकेश अम्बानी और अडानी जैसे घरानों की वर्तमान सत्ता से दांत काटी रोटी है . इसी कारण रफाले जैसे सौदे अनिल अम्बानी को सौंप दिये गये हैं जिस क्षेत्र में उनकी कोई जानकारी नहीं है; मुकेश अम्बानी समूह के ऐसा विश्वविद्यालय जिसका अस्तित्व ही नहीं है उसें प्रतिष्ठित संस्थान का दर्जा दे दिया गया है. जिन अन्य को मिला है वे सब दसियों साल से अस्तित्व में हैं और अपनी विशिष्टता प्रमाणित कर चुके हैं. अम्बानी को बिना अस्तित्व में आये ही वह विशिष्टता दे दी गई है . अडानी और सत्ता के रिश्ते जग जाहिर हैं .

इससे स्पष्ट है की कई अन्य पूंजीवादी घराने इससे नाखुश होंगे . इसलिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि मीडिया में कांग्रेस और राहुल गाँधी को काफी स्थान मिलने लगा है. पूंजीपति वर्ग इस बार सभी कुछ नरेन्द्र मोदी पर ही दांव नहीं लगाना चाह्ता है .

कांग्रेस की दिक्कत

गत चुनावों से पूर्व देसी और विदेशी पूंजीपतियों के बड़े हिस्से ने नरेन्द्र मोदी को समर्थन देने का निर्णय लिया था . इसलिए उन्होनें कांग्रेस पार्टी को यह साफ कर दिया था की इस चुनाव में वह उनके साथ नहीं हैं. कांग्रेस नेताओं के खुले बयान हैं कि हर बार हमको जहां से पैसा आता था इस बार उन स्त्रोतों से नहीं आया है. यह बात सही है की आज कांग्रेस पार्टी के पास पूंजीपतियों में अपने यार नहीं है लेकिन भविष्य में ऐसा नहीं होगा यह कह्ना नादानी होगी .

पूंजीवादी पार्टियों का चुनावी व्यवस्था में प्रमुख कार्य यह है की वे चुनाव के समय जनता के वोटो को अपनी पार्टियों के पक्ष में पड़वाये.जानता को वोट पाने के लिए यह आवशयक है की लोक लुभावने नारे दिए जाय वह भी इस प्रकार से की जनता को लगने लगे कि ये कार्य वास्तव में यह पार्टी करने जा रही है. लेकिन इन पार्टियों का यह कार्य है कि वे पूंजीपति वर्गों के हितों की साधना करे.इसलिए वे सत्ता में आने पर इन्ही वर्गों की हित साधना करती है. यह कार्य प्रत्येक हर चुनाव के समय ये पार्टियां करती हैं और हर बार इन्हें इसी प्रकार के नारे इजाद करने पड़ते हैं. हाल केदिनों में यह देखने में आया है की समूचे चुनाव में मुद्दों पर बात न होकर व्व्यक्तिगत आक्षेपों में होती है और समूचा अभियान एक दूसरे को चोर बताने में गुज़ार दिया जाता है. इसका मुख्य कारण यह है ये सभी जब से विश्व व्यापार संगठन और उनकी बड़ी और विदेशी पूंजीपति की पक्षधर अर्थ और राजनीति पर सहमति हुई हैं तब से इनके आपसी मतभेद कम हो गए हैं. इसलिए चुनावों में यह परस्पर विरोधी अजेंडा नहीं रख पा रही हैं क्योंकि किसी मुख्य बिंदु पर कोई मतभेद नहीं है . इसलिए मुद्दा ढूँढने में परेशानी हो रही हैं .

जो असली मुद्दे हैं जैसे दमनात्मक , तानाशाही प्रव्रतियाँ इन सब में इन दोनों में कोई खास फर्क नहीं है. इसलिए इसे यह चुनाव का मुददा ये दोनों पार्टियां नहीं बनायंगी.

यारबाज या सांठ गाँठ वाला पूंजीवाद भारत और तमाम देशों की विशेषता है. यह लगभग सभी देशों में कमोबेश प्रचलित है . लेकिन अभी के उठाये विभिन्न कदमों से हो सकता है कि यह आगे चलकर कुछ कम जो जाय. लेकिन आज यह सघन तौर पर लागू है और यह चुनाव में बड़ा मुद्दा बन सकता है. रफाले, एक दूसरा बोफोर्स बन सकता है .

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