सहमे हुए लोकतंत्र में

युवाओं की एक पीढ़ी पहली बार सांप्रदायिकता को इतने क़रीब से देख रही है

Update: 2019-05-01 14:16 GMT

वर्ष 2002 में जब गुजरात जल रहा था, तो हम इतने छोटे थे कि हमें धुंधला-सा भी याद नहीं पड़ता कि हमारे देश में दो हज़ार से ज़्यादा लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था। तब हमने स्कूल जाना शुरू ही किया होगा। अक्षर बोध होना शुरू ही हुआ था। 'सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां‌ हमारा' ज़बान पर चढ़ ही पाया था। उस वक़्त नहीं पता था कि यह शिक्षा हमें एक दिन इस मुक़ाम पर लाकर खड़ा कर देगी कि हमें यह बोध भी होगा कि किताबों की दुनिया और वास्तविक दुनिया एक-दूसरे के बरक्स हैं।

वर्ष 2002 के बाद भी मुल्क में सांप्रदायिक दंगे हुए, लेकिन हमें ख़बर न हुई। शायद जानबूझकर हमें उससे दूर रखा गया क्योंकि बालमन पर पड़ने वाली स्मृतियां गहरी होती हैं। पहली बार अपने आस-पास सांप्रदायिक तनाव जो हमने महसूस किया, वो बाबरी मस्जिद पर 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले का दिन था। उस वक़्त तक घर में टेलीविज़न आ चुका था और विवादित ढांचा टीवी पर तीन हिस्सों में बांटा जा रहा था। शहर में मुर्दा ख़ामोशी थी। पहली बार अपने आस-पास सांप्रदायिक तनाव महसूस हो रहा था। पहली बार अपने आपको असुरक्षित और असहज महसूस कर रहा था। उसके बाद 2013 का मुज़फ्फरनगर दंगा याद आता है। टीवी ने यहां भी पूरी मुस्तैदी के साथ नफ़रत, डर और ज़हर परोसा था। यह दूसरा मौक़ा था जब ख़ौफ़ ने ज़हन में घर किया।

साल 2014 आया। केंद्र में भारतीय जनता पार्टी ने सरकार बनाई और इसका एहसास हमें तब हुआ, जब स्कूल में हमें 'मन की बात' सुनाई गई। मैं उस विद्यालय में दो साल गुज़ार चुका था, लेकिन ऐसा वातावरण मैंने पहली बार देखा था। शिक्षकों और विद्यार्थियों में ऐसा उत्साह राष्ट्रीय पर्वों पर भी नहीं देखने को मिलता था। हम विद्यालय में भी 'अल्पसंख्यक' थे और यह हमें तब मालूम हुआ जब दो सालों में पहली बार हमें जुमा की नमाज़ के लिए छुट्टी देने से इन्कार कर दिया गया।

यह अलग प्रकार का‌ वातावरण था, जो बन रहा था। यहां दंगे नहीं थे, आगज़नी, लूटमार और हत्याएं नहीं थीं। यहां बातें थीं, नारे थे और नज़रें थीं जो पहले कभी इस तरह हमारी ओर नहीं उठीं थीं। राष्ट्रीय पर्वों पर ध्वजारोहण कार्यक्रम विद्यालय से बाहर भी ले जाया जा चुका था। पाकिस्तान को गालियां कुछ अधिक मात्रा में पड़ने लगीं थीं। रात में की गई फ़ेसबुक पोस्ट पर, अब पहले के विपरीत, उत्साहवर्धन के बजाए धमकियां, गालियां और फब्तियां मिलनी शुरू हो गईं थीं। यह पहली बार था, जब हम सांप्रदायिकता को इतने क़रीब से देख रहे थे।

रोहित वेमुला की 'सांस्थानिक हत्या' हो चुकी थी। टीवी अगरचे ख़ामोश था, लेकिन ख़बरें पहुंचाने में सोशल मीडिया उस समय छोटे शहरों में रहने वालों के लिए कारगर साबित हो रहा था। मैंने रोहित का अंतिम पत्र फ़ेसबुक पर शेयर किया था। अगले दिन पिताजी को स्कूल में तलब किया गया। उनसे कहा गया कि ये सब राजनीति हो रही है। बच्चे को कहिए पढ़ाई-लिखाई में मन लगाए। मैं हैरान था। हमारे विद्यालय में पेशावर स्कूल हमले के लिए पाकिस्तान को ख़ूब कोसा गया था, लेकिन हम अपने देश में छात्र की हत्या पर ख़ामोश थे।

विद्यालय वार्षिकोत्सव के मौक़े पर वाद-विवाद प्रतियोगिता होती थी। शीर्षक दिया गया - धर्म से पहले राष्ट्र क्यों? मैं विपक्ष में बोला। कार्यक्रम के बाद निर्णायक मंडल के कुछ सदस्य मुझसे मिले और मुझे बधाई देते हुए कहा कि तुम प्रथम स्थान पर रहे हो। किसी को आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि पक्ष में रखे गए मत कमज़ोर थे। अगली सुबह निर्णय घोषित किया गया। मुझे दूसरा स्थान मिला था। इस मर्तबा मुझे आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि पक्ष में बोलने वाले को पहला स्थान दिया गया था।

वर्ष 2016 में स्नातक के लिए अलीगढ़ आ गया। यहां आकर सांप्रदायिकता और नफ़रत का नियोजित रूप देखा। देखा कि अगर एक छात्र की गुमशुदगी पर विरोध किया जाता है, तो लाठियां बरसाई जाती हैं। देखा कि कितनी आसानी से 150 साल पुरानी ऐतिहासिक धरोहर 'अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय' को आतंक का अड्डा कह दिया जाता है। देखा कि एक तस्वीर के बहाने किस तरह पूरे विश्विद्यालय को कलंकित करने के नियोजित प्रयास किए जाते हैं, हमले किए जाते हैं और विरोध करने पर किस तरह दर्जनों छात्रों के सिर फोड़ दिए जाते हैं। यह सुनियोजित साम्प्रदायिकता थी जो फैलाई जा रही थी।

पहली बार देखा कि 'राज्य' का रवैया एक खास तरह का हो गया है। लिंचिंग करने वालों का माल्यार्पण राज्य द्वारा किया जा रहा है, उन्हें सम्मानित किया जा रहा है। एनकाउंटर करने पर 'राज्य' गर्व महसूस कर रहा है। राज्य का मुख्यमंत्री गर्व से बताता है कि हमने बारह सौ एनकाउंटर किए हैं और आगे भी करेंगे। राज्य कह रहा है कि एनआरसी पूरे देश में लाएंगे और हिन्दुओं, सिखों और बौद्धों के अतिरिक्त सबको निकाल बाहर कर देंगे। हिंसा, नफ़रत, साम्प्रदायिकता और यहां तक कि क़त्ल को सामान्य बना दिया गया है।

यह है एक सामान्य छात्र का अनुभव, जो इस लोकसभा चुनाव में पहली बार मतदान करने जा रहा है। जो अपने नागरिक होने का पहला और शायद अंतिम अधिकार इस्तेमाल करने जा रहा है। यह भारत जो हम देख रहे हैं, शायद वह भारत नहीं है जो संविधान के अनुरूप बनना चाहिए था। यह यक़ीनन "नया भारत" है, जिसका नारा प्रधानमंत्री जी ने दिया था। लेकिन इस नए भारत की बुनियादें भी नई बन रही हैं। यह मुहब्बत, अमन, भाईचारा और धर्मनिरपेक्षता की बुनियादों वाला नया भारत नहीं है। इस भारत में हिंसा, नफ़रत, साम्प्रदायिकता और झूठ ने अपने पैर जमाए हैं, पुरानी बुनियादों को जर्जर कर दिया है।

यह चुनाव सभी अमन पसंद नागरिकों के लिए यक़ीनन अलग क़िस्म का है। हमारे सामने फ़ैसले की घड़ी है कि हम कैसा भारत चाहते हैं - गांधी, गौतम और आज़ाद का भारत या सावरकर, मूंजे और गोलवलकर का भारत।
 

Similar News

What Now Netanyahu?

A Long Way To Go

The Voice Of Gaza

Foreign Policy Roulette

Takeover Tycoons in Trump-Land

Not So Accidental!

Diamonds Are Not Forever

Mukesh Chandrakar Silenced!

Another George Soros Story