मरे चाहे कोई भी, शिकार सिर्फ औरतें ही होती हैं
मरे चाहे कोई भी, शिकार सिर्फ औरतें ही होती हैं
मामला चाहे हदिया का हो, जो उस बेचारे अंकित के मुक़ाबले किस्मत वाली निकली जिसे उसकी महिला मित्र के परिवार वालों ने बर्बरता से मार डाला, मुद्दा सिर्फ धर्म का नहीं है. बल्कि उससे कहीं ज्यादा लड़कियों के अधिकारों के प्रति पितृसत्तात्मक और असहिष्णु रवैये का है. हदिया के पिता ने उसे घर में कैद करने की कोशिश की और उसपर अपने पति को आतंकवादी घोषित करने के लिए दबाव बनाने की असफल चेष्टा की. अंकित के पास मौका नहीं था और वह अपनी महिला मित्र के परिवार वालों के हाथो मारा गया. अब उसकी महिला मित्र इस बात से डरी हुई है कि उसका भी यही हश्र होने वाला है. और उसके प्रेमी को मार डालने वाला उसका परिवार उसे मारने से भी नहीं हिचकिचाएगा.
राजनीतिक लक्ष्यों और मीडिया के लिए सनसनी के लिहाज से, हदिया एक “हिन्दू” है जिसकी शादी एक “मुसलमान” हुई है और उसका परिवार नहीं चाहता कि वो एक “आतंकवादी” के साथ रहे. इसके उलट अंकित की महिला मित्र एक “मुसलमान” थी जिसके परिवार ने यह रिश्ता पसंद नहीं होने के कारण उस नौजवान को मार दिया. इस युवा जोड़े के शादी करने के फैसले पर अडिग रहने पर लड़की के अभिभावक उस हिन्दू लड़के के घर गए और लड़की से दूर रहने की उनकी चेतावनी अनसुनी कर देने पर उसे मार डाला.
यह न तो अपनी तरह की कोई पहली घटना है और न ही यह आखिरी होगी. युवा जोड़ों को आपस में शादी करने से रोकने के लिए परिवार, समाज, राजनीतिक गुंडों द्वारा धमकाने का सिलसिला अंतहीन है. वजह? लड़की अपने परिवार की संपत्ति होती है और उसे अपनी चाहत रखने का कोई अधिकार नहीं होता. इसलिए वह या तो घर में कैद की जाती है या आत्महत्या की ओर धकेली जाती है या पिटती है. और इन सबके नाकाम होने पर उसके द्वारा चुने हुए युवक पर हमला किया जाता है और उसे मार दिया जाता है. ऐसा करके यही साबित किया जाता है कि वो परिवार की इज्जत नीलाम कर रही है और उसे अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करने व पसंद चुनने का अधिकार नहीं है.
इस विरोध की तह में महिला के प्रति सम्मान का कोई भाव नहीं होता. महिला को अपनी पसंद जाहिर करने का कोई हक़ नहीं होता. उसे हदिया की तरह अपने ही माता – पिता द्वारा कोर्ट में घसीटा जा सकता है. अंकित की महिला मित्र की भांति उसे आतंकित करने के लिए उसके प्रेमी की हत्या उसके अपने ही अभिभावकों द्वारा की जा सकती है. प्रेमी की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किये जा चुकने के बावजूद उसे अपने अभिभावकों और शायद परिवार के अन्य सदस्यों की ओर से जान का खतरा सता सकता है.
हद है कि एक लड़की द्वारा अपने फैसले खुद लिये जाने भर से परिवार की प्रतिष्ठा पर आंच आ जाती है . और इसे धूमिल होने से बचाने के लिए लोग हत्या जैसा जघन्य अपराध करने को तैयार होते हैं. मसला सिर्फ हिन्दू – मुसलमान, दलित – ब्राह्मण होने भर का नहीं, क्योंकि इस किस्म के प्रत्येक मामले के बरक्स कई अन्य ऐसे मामलों का उदहारण दिया जा सकता है जहां लड़की को अपने समुदाय या जाति के लड़के से शादी करने की इजाज़त नहीं दी गयी. बल्कि मसला लैंगिक समानता से जुड़ा है. बिल्कुल उसी तरह जैसे एक महिला को अपने पति की चिता पर सती होने के लिए मजबूर किया जाता रहा जबतक कि इसे कानून द्वारा प्रतिबंधित नहीं कर दिया गया; जैसे आक्रमणकारी सेना से बचने के लिए एक महिला को कुआँ में कूद जाना होता था; जैसे दो राजाओं के बीच युद्ध की स्थिति में एक महिला को विजेता के हाथो अगवा होना होता था. आज महिलाओं की अपने किस्म की गहरी तकलीफें और दुःख हैं.
आज हमलावर उसका अपना परिवार और समाज है. आज उसे पैदा होने से पहले ही अपने होने वाले माता – पिता द्वारा मार दिया जाता है. अगर किस्मत अच्छी हुई तो उसे शिक्षा पाने का अवसर मिल सकता है, लेकिन उसका स्कूल उसके भाईयों के स्कूलों के मुकाबले काफी कम सुविधाओं से लैस होगा. उसे कामकाजी बनने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जायेगा. और अगर इसके लिए अनुमति मिल भी गयी, तो उसे अपनी पूरी तनख्वाह अपने माता – पिता को और शादी हो जाने के बाद पति को सौंपनी होगी. वह उतने ही बच्चों को जन्म देगी जितना उसका पति चाहेगा, लेकिन उनकी पढाई और बाहर की जिन्दगी के बारे में फैसला करने में उसकी कोई राय नहीं होगी. पैदा होने के दिन से उसे यह सिखाया जायेगा कि घर में उसका स्थान पुरुषों से नीचे है. उसे यह भी बताया जायेगा कि उसका जन्म पुरुषों की सेवा और देखभाल के लिए हुआ है. उसे यह अहसास दिलाया जायेगा कि परिवार की इज्जत की रक्षा करना उसकी जिम्मेदारी है. उसे अपने घर या जिस घर में वो ब्याही जायेगी, जिसे आज भी मां – बाप द्वारा उसके “असली घर” के रूप में निरुपित किया जाता है, में जैसा कहा जायेगा वैसा करना होगा.
एक बच्ची को अपनी पूरी जिन्दगी में दो सबसे बड़े खतरे से गुजरना होता है. पहला खतरा उसके पैदा होने से पहले सामने आता है, जब उसके मां – बाप गैरकानूनी होने के बावजूद गर्भ में ही उसकी हत्या कर देते हैं. उसे इस दुनिया में सिर्फ इसलिए नहीं आने दिया जाता कि वो एक लड़की है.
और दूसरे खतरे से वो अपना जीवनसाथी चुनते वक़्त रूबरू होती है. उसे ऐसा करने से रोकने की शुरुआत भावनात्मक ब्लैकमेल से होती है जो आगे चलकर हिंसक रूप लेते हुए लड़की को कैदी बनाने तक जाती है. इतना ही नहीं, ऊपर बतायी गयी घटना के माफिक बात हत्या तक पहुंच जाती है जहां एक अच्छा – भला परिवार भी किसी की जान लेने पर उतारू हो जाता है. इस किस्म के हमले का शिकार खुद लड़की हो सकती है और उस बेचारा युवा फोटोग्राफर की भांति लड़की को खुश रखने की क्षमता और योग्यता वाला लड़का भी. हर हाल में कारण सिर्फ एक होता है : लड़की की इतनी हिम्मत? हर उस कारक को मिटा दो जिसकी वजह से वो ऐसी जुर्रत करती है.
ये सिर्फ सांप्रदायिक हत्याएं भर नहीं है. बल्कि लैंगिक हत्याएं हैं. ये औरतों को “हमारी संपत्ति”, “हमारी इज्जत” के तौर पर अधीन बनाने के लिए की गयी हत्याएं हैं. एक बच्ची को स्वीकार करने का एकमात्र तरीका यही है कि उसे परिवार की इज्जत से जोड़ दो, उसपर परिवार की प्रतिष्ठा बचाने और नाक सलामत रखने की जिम्मेदारी आयद कर दो. दूसरे शब्दों में, जैसा कहा जाये वैसा करो वरना... ये “तमाम वरना” क्या शक्ल अख्तियार करेंगे, यह परिवार विशेष पर निर्भर करता है. यह लड़की की हत्या की शक्ल ले सकता है या कई मामलों में बात लड़के की हत्या तक जा सकती है, जैसाकि नीतीश कटारा मामले में हुआ क्योंकि उसने विकास यादव की बहन से प्रेम करने की हिमाकत की थी. कटारा की मां का जीवन न्याय पाने की जद्दोजहद में बीता. वो 2002 से 2016 तक संघर्ष करती रहीं जब सुप्रीम कोर्ट ने अंतिम रूप से उनके बेटे के हत्यारों विकास और विशाल यादव और सुखदेव पहलवान नाम के तीसरे आरोपी को 25 साल कैद की सजा सुनायी.
यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि इन अहम मुद्दों पर ध्यान देने के बजाय राजनीतिज्ञ इन अपराधों का इस्तेमाल जातीय या सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए करते हैं. जबकि मसला लड़की, उसके अधिकारों, उसकी स्थिति, उसके सशक्तिकरण से जुड़ा है जिससे उसका परिवार, समाज, राजनीतिक व्यवस्था और सरकारें सब मिलकर उसे महरूम कर रहे हैं. अंकित इसलिए नहीं मारा गया कि वो एक हिन्दू था. बल्कि इसलिए मारा गया क्योंकि उसके हत्यारों की बेटी अपनी मर्जी से उससे शादी करना चाहती थी.