सबरीमाला में महिलाओं का प्रवेश

सबरीमाला में महिलाओं का प्रवेश

Update: 2018-10-11 12:13 GMT

हम एक प्रजातांत्रिक देश में रहते हैं, जिसमें सभी नागरिकों को समानता का दर्जा हासिल है। औद्योगिक क्रांति के पूर्व के समाज में असमानता का बोलबाला था। भारतीय समाज में असमानता, व्यक्ति की जाति और उसके लिंग पर आधारित है। इसी असमानता का एक पक्ष है महिलाओं के आराधाना स्थलों पर प्रवेश पर पाबंदियां। अधिकांश मस्जिदों में अल्लाह को याद करने वाले व्यक्तियों में लगभग सभी पुरूष होते हैं। परंतु हिन्दू धार्मिक स्थलों पर भेदभाव लिंग के आधार पर तो होता ही है, वह जाति के आधार पर भी होता है। इस संदर्भ में डॉ. भीमराव बाबासाहेब अंबेडकर का कालाराम मंदिर में दलितों के प्रवेश की अनुमति के लिए चलाया गया आंदोलन स्मरणीय है। हाल में, तृप्ति देसाई के नेतृत्व में हिन्दू मंदिरों (विशेषकर महाराष्ट्र के शनि शिगनापुर मंदिर) में महिलाओं को गर्भगृह में प्रवेश की अनुमति के लिए एक आंदोलन चलाया गया था। मुंबई की हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश के मुद्दे को लेकर भी एक आंदोलन चला था। इन सभी आंदोलनों के नतीजे में महिलाओं को इन पवित्र स्थलों पर प्रवेश करने का अधिकार हासिल हुआ।

इसके बाद भी, देश में ऐसे कई प्रसिद्ध और अपेक्षाकृत कम प्रसिद्ध मंदिर हैं, जिनमें कुछ जातियों के लोगों और महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। इनमें से एक है केरल में भगवान अयप्पा का सबरीमाला मंदिर, जहां प्रजनन-योग्य आयु की महिलाओं का प्रवेश वर्जित था। इसका कारण यह बताया जाता है कि भगवान अयप्पा ने चिर ब्रम्हचर्य का व्रत धारण किया है। हाल (28 सितंबर, 2018) में उच्चतम न्यायालय ने बहुमत (चार विरूद्ध एक) से दिए गए अपने निर्णय में कहा कि सबरीमाला में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध भेदभावपूर्ण है और महिला अधिकारों का हनन है। अधिकांश महिला अधिकार संगठनों ने इस निर्णय का स्वागत किया है।

कविता कृष्णन का ट्वीट, महिला आंदोलन संगठनों की प्रतिक्रिया का सार है। वे लिखती हैं, ‘‘मुंह जुबानी तलाक,हाजी अली और सबरीमाला प्रकरणों में अदालतों ने बिल्कुल ठीक यह कहा है कि महिलाओं को  धार्मिक आचरण या परंपरा के नाम पर समानता से वंचित नहीं किया जा सकता। जिस तरह किसी मंदिर में जाति के आधार पर प्रवेश के अधिकार का निर्धारण करना असंवैधानिक और भेदभावपूर्ण है, उसी तरह लैंगिक आधार पर महिलाओं को किसी धार्मिक स्थल में प्रवेश से वंचित करना भी उतना ही असंवैधानिक और भेदभावपूर्ण है। हम अपने मूल्यों को अपने भगवानों पर लाद रहे हैं। किसी पुरूष के ब्रम्हचर्य की रक्षा करने की जिम्मेदारी महिलाओं की क्यों होनी चाहिए?‘‘ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि अदालत को लोगों की भावनाओं को भी संज्ञान में लेना चाहिए था। कांग्रेस ने सबरीमाला मंदिर ट्रस्ट से कहा कि वह इस निर्णय पर पुनर्विचार के लिए याचिका लगाए। भाजपा का कहना था कि केरल की सरकार को अध्यादेश के जरिए इस निर्णय को पलट देना चाहिए।

महिलाओं की समानता की लड़ाई काफी कठिन रही है। सती जैसी घृणित प्रथा के विरोध की शुरूआत राजा राममोहनराय ने की थी। उनकी राह में अगणित रोड़े अटकाए गए। यह, इसके बावजूद कि सरकार ने कानून बनाकर विधवाओं को उनके पतियों की चिता पर जिंदा जलाने की बर्बर प्रथा को गैरकानूनी करार दिया था। इन कानूनों के बावजूद भी सती प्रथा का उन्मूलन आसानी से नहीं हुआ। रूपकुवंर के सती होने की घटना बहुत पुरानी नहीं है। जहां समाज के अधिकांश वर्गों ने उसे सती होने पर मजबूर करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की मांग की थी वहीं भाजपा की तत्कालीन राष्ट्रीय उपाध्यक्ष विजयाराजे सिंधिया ने सती प्रथा के समर्थन में कई रैलियां निकालीं थीं। हिन्दू महिलाओं के मामले में यौन संबंधों की स्वीकृति देने की विधिक आयु के बारे में लंबे समय तक बहस-मुबाहिसे चले। जब इस आयु को दस वर्ष से बढ़ाकर बारह वर्ष किया गया था, उस समय लोकमान्य बालगंगाधर तिलक जैसे नेताओं ने भी इसका यह कहकर विरोध किया था कि यह हिन्दू परंपराओं के खिलाफ है। इसके पीछे सोच यह थी कि लड़कियों का विवाह उनके पहले मासिक धर्म के पूर्व कर दिया जाना चाहिए। इस तरह के सुधारों के लिए जो संघर्ष जागरूक नागरिकों को करने पड़े, उनका विवरण उपलब्ध है और यह अत्यंत रोमांचक और दिलचस्प है। तनिका सरकार की पुस्तक ‘हिन्दू वाईफ, हिन्दू नेशन‘ ऐसे संघर्षों की दास्तान कहती है। कुछ ही वर्षों पहले, मौलानाओं ने महिलाओं की यौन संबंध बनाने की स्वीकृति देने की विधिक आयु को अठारह वर्ष करने का विरोध किया था। उनकी दृष्टि में महिलाओं की कम से कम आयु में शादी कर दिया जाना धर्मसम्मत और ज़रूरी था।

हमारे समाज में असमानताओं का बोलबाला है। कहा जाता है कि लड़कियों का कम उम्र में विवाह इसलिए कर दिया जाना चाहिए क्योंकि उनकी सुरक्षा एक बड़ी समस्या है, विशेषकर ऐसे अभिभावकों के लिए, जो गरीब और अशिक्षित हैं। सबरीमाला मामले में उच्चतम न्यायालय ने ऐसे समूहों के बीच बहस को जन्म दिया है जो महिलाओं की समानता के हामी हैं और जो दकियानूसी परंपराओं और आचरण से चिपके रहना चाहते हैं। आज भी इस मुद्दे पर समाज बंटा हुआ है। एक ओर महिलाओं के ऐसे समूह हैं, जिन्होंने यह घोषणा की है कि वे यह सुनिश्चित करेंगे कि प्रजनन-योग्य आयु की महिलाएं सबरीमाला में प्रवेश न पा सकें। दूसरी ओर एकलव्य आश्रम जैसी संस्थाएं भी हैं, जहां मासिक धर्म से गुजर रही महिला को अपवित्र नहीं माना जाता और उन्हें पूजा करने की इजाजत होती है। इस मुद्दे पर किसी भी प्रकार की सहमति के निर्माण के प्रयास की राह बहुत कठिन है।

कई महिला संगठनों ने महिलाओं के मंदिरों में प्रवेश के संघर्ष से स्वयं को दूर रखा। उनका तर्क यह था कि सभी धर्म मूलतः पितृसत्तात्मक हैं और इसलिए धार्मिक मान्यताओं के जाल में फंसने का कोई औचित्य नहीं है। यह सही है कि पितृसत्तात्मकता सभी संस्थागत धर्मों का अविभाज्य हिस्सा है। मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश का आंदोलन इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर चोट कर रहा है और इसके अच्छे नतीजे भविष्य में सामने आ सकते हैं। यद्यपि कानून बनाने से किसी समस्या का पूर्ण समाधान नहीं होता परंतु यह अपने वैध अधिकारों को प्राप्त करने के लिए संघर्षरत समूहों की यात्रा में एक मील का पत्थर होता है। गरीबी और महिलाओं की सुरक्षा का अभाव ऐसे दो कारक हैं जो पितृसत्तात्मकता को बढ़ावा और मजबूती देते हैं। हमें एक ऐसे समाज के निर्माण का प्रयास करना चाहिए जिसमें इस तरह के निर्णयों और कानूनों को पूर्णतः लागू करना  संभव हो सके। उच्चतम न्यायालय का यह कदम, महिलाओं की समानता की राह प्रशस्त करेगा। हमें ऐसा वातावरण बनाने का प्रयास करना चाहिए जिसमें इस तरह के निर्णयों को लागू करना संभव हो सके।

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