भारत की औरतों के लिए साल 2018 बिलकुल 1857 की क्रांति वाले साल की तरह था. 1857 की क्रांति में सबका एक ही लक्ष्य था, अंग्रेज़ों से आज़ादी. लेकिन हम उस वक्त आज़ाद नहीं हुए. मोटा-मोटी इसके दो मुख्य कारण थे. एक तो इस लड़ाई से हर वर्ग के लोग नहीं जुड़े और दूसरा, जो जहां था वहीं से लड़ रहा था.
औरतों के परिप्रेक्ष्य में ये क्रांति अक्टूबर 2018 में मी टू आंदोलन के रूप में आई. पूरे साल में औरतों के पक्ष में इस आंदोलन ने सबसे ज्यादा बातें उठाईं. इस लड़ाई में बेशक हर औरत का लक्ष्य पितृसत्ता से छुटकारा पाना रहा लेकिन कई वजहों से सभी वर्गों की औरतें एकजुट नहीं हो पाईं. हर मोर्चे पर महिलाएं खड़ी तो हुईं लेकिन जिसको जैसा समझ आया, वो उसी हिसाब से लड़ पड़ीं. दो महीने का वक्त गुजर जाने के बाद औरतों का आंदोलन अभी तक एक बड़े आंदोलन का रूप नहीं ले पाया है. मी टू आंदोलन से पहले देश में औरतों के प्रति हृदयविदारक हिंसा की घटनाएं हुईं.
कठुआ गैंग रेप से लेकर मुज़्ज़फरपुर बालिका गृह तक
इस साल हमने छोटी बच्चियों के साथ जघन्य अपराध होते देखे. वो बच्चियां जिनका इन दुनिया में कोई नहीं है. अगर हैं तो हाशिये पर खड़े ऐसे मां-बाप हैं जो पैदा तो कर सकते हैं लेकिन पेट नहीं भर सकते. मुंबई के TISS संस्थान की रिपोर्ट्स ने बालिका गृहों में फैली तस्करी, वेश्यावृति और गैंग रेपों का पर्दा फाश किया.
साल के शुरूआती महीनों में कठुआ गैंग रेप की पीड़िता को न्याय दिलाने के लिए देशभर में आंदोलन खड़ा होना शुरू हुआ. सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश की गई. लोग सड़कों पर भी उतरे लेकिन यह निर्भया आंदोलन की तरह एक बड़े वर्ग का आंदोलन नहीं बन सका.
मुज़्ज़फरपुर बालिका गृह से शरू हुए इस प्रकरण ने देशभर के बालिका गृहों की तस्वीर हमारे सामने लाकर रखी. लेकिन विपक्ष के नेता तेजस्वी के लगातर आक्रामक रहने के बावजूद इस केस में कुछ खास नहीं हुआ. आरोपियों को पकड़ा तो गया लेकिन 4-5 महीने बाद तक जनता को नहीं पता है कि उन बच्चियों का क्या हुआ? केस कहां तक पहुंचा? बृजेश ठाकुर की वो हंसी गई कि नहीं? जो वो खुद के पकड़े जाने पर मीडिया के सामने हंस रहा था.
इतनी दिल दहला देने वाली कहानियों के सामने आने पर होना तो ये चाहिए था कि भारत सरकार निदान के लिए रिपोर्ट्स बनवाकर संज्ञान लेती. लेकिन पटना हाई कोर्ट ने मुज़्ज़फरपुर बालिका गृह मामले पर रिपोर्टिग करना तक बैन करवा दिया. ताकि लोगों तक इस केस की कानूनी कार्रवाई की जानकारी न पहुंचे और ताकतवर व सत्ताधारी लोगों को जैसे-तैसे बचाया जा सके.
मीटू आंदोलन रहा कितना असरदार?
यह आंदोलन आम औरतों का आंदोलन नहीं था. यह एक खास वर्ग की महिलाओं ने शुरू किया था. ये वे महिलाएं थीं जो बाकी वर्गों की महिलाओं से ज़्यादा प्रिविलेज्ड हैं. जिनके पास बोलने की ताकत है. ये महिलाएं फिल्म इंडस्ट्री और मीडिया के जगत से थीं.
जोर-शोर से चला ये आंदोलन भी साल के आखिरी तक आते-आते कमजोर पड़ता दिखाई दिया. फर्स्टपोस्ट पर छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक प्राइवेट नौकरियों में अब महिलाओं की संख्या कम होने लगी है. मेल एम्प्लॉयर्स यौन आरोपों के चक्कर में पड़ने से बचने के किए महिला कर्मचारियों को नौकरियां नहीं देना चाहते.
इस हिसाब से प्राइवेट सेक्टर जहां पुरुषों के मुकाबले महिलाएं पहले से ही कम है, अब मीटू की वजह से उनकी संख्या और कम होने आशंका बन गई है. यहां समाज में फैले रेप कल्चर और विक्टिम ब्लेमिंग की मानसिकता उभरकर सामने आती है कि लोग यौन शोषण का आरोप लगे व्यक्तियों को तो नौकरी रखने के लिए तैयार हैं लेकिन यौन शोषण का आरोप लगाने वाली महिलाओं को नहीं.
1857 के बाद देश से कंपनी का शासन हट गया था और रानी का शासन शुरू हुआ. इस क्रांति का ही असर था कि इस बार शासन के तरीके में बदलाव किया गया. पावर शेयरिंग की अवधारणा लागू की गई. लेकिन महिलाओं के मीटू क्रांति का असर इसके विपरीत हुआ है. पावर शेयरिंग की बजाय उनको नौकरी पर रखे जाने पर सवाल उठ गए हैं. महिलाओं को अब 'ट्रबल मेकर' की तरह देखा जाने लगा है. दफ्तरों में महिला कर्मचारी ना जाने किस अपराधबोध में आकर अपने पुरुष साथियों का बचाव करती नज़र आने लगी हैं.
हालांकि शुरूआती दिनों में आई माफीनामों ने यह यकीन दिलाने की कोशिश की थी कि महिलाओं का ये आंदोलन ऐतिहासिक है और अब काम करने की जगहों को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाया जाएगा. एमजे अकबर के इस्तीफे, विनोद दुआ के कार्यक्रम के बंद होने और AIB के नए शो ना आने से बोलने और आवाज़ उठाने की ताकत में विश्वास बढ़ा था.
लेकिन अभी नज़र दौड़ाएं तो पता चलता है कि इन पुरुषों की छवियों और काम मिलने के अवसरों पर ज़रा-सा ही फर्क पड़ा है. विनोद दुआ अपना नया शो लेकर आ गए हैं, एमजे अकबर के एडिटोरियल लेख आने लगे हैं. (जिनका के हॉलीवुड हार्वे वेंस्टीन से कम नहीं है, जिनपर कम से कम 25 महिलाओं ने यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए हैं)
ऐसा ही कुछ बॉलीवुड में हुआ है. जिन महिलाओं ने यौन हिंसा के आरोप लगाए और एफआईआर दर्ज कराई, अब वही अपने ऊपर लगे मानहानि के केस निपट रही हैं.
1857 की क्रांति के बाद 90 साल और लगे थे भारत को आजाद होने में. तो क्या ये माना जाए कि औरतों की आजादी में भी 90 साल और लगेंगे?
ये वक्त बतायेगा. पर अगर सकारात्मक बातों को देखें तो ये साल औरतों के पक्ष में दो बातों के लिए जाना जाएगा-
1. औरतें बोल सकती हैं और अब बोलेंगी.
2. तमाम स्टार शादियों के बीच नवंबर के किसान आंदोलन में खड़ी रही महिला किसानों को नोटिस किया गया. यहां ध्यान देने की बात है कि किसानी में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की भागीदारी ज्यादा होती है.