हम कैसे कब दूसरों पर निर्भर हो जाते हैं.

हम कैसे कब दूसरों पर निर्भर हो जाते हैं.

Update: 2019-01-30 16:23 GMT

मनोविज्ञान शिक्षा मे एक शब्द है निर्भरता, लेकिन मैने सामाजिक आर्थिक स्तर पर इसे समझने का प्रयास किया है हम कब कैसे और कितना दूसरों पर निर्भर हो जाते है हमें पता ही नही चल पाता स्वभावतया जब हम दूसरों पर आर्थिक और सामाजिक रुप से निर्भर हो जाते है और हमारी शक्ति और आत्मउद्योगी भावना का हृस हो जाता है जब इस निर्भरता का संज्ञान होता है तो उससे मुक्ति पाने के लिए हमजददोजहद करने लगते है लेकिन इस बीच वह पक्ष जिस पर हम निर्भर होते है वह हमारे अस्तित्व पर इस कदर हावी हो जाता है कि हम उसमें ही अपना अस्तित्व समझने लगते है और वह भी तनिक यह बर्दाश्त नही कर सकता की जिसके अस्तित्व को उसने अपने साये मे समेट रखा है वह शक्स किसी भी तरह इससे अलग हो। कुछ इसी का तरह का रिश्ता धर्म के ठेकेदारों और महिलाओं का है।

सबरीमला मन्दिर मे दो महिलाओं कनकलता और बिन्दू के प्रवेश के बाद शुद्धिकरण किया गया जैसे कोई पापी मन्दिर को दूषित कर देता हो, कनकलता को मन्दिर प्रवेश करने के कारण उसकी सांस ने इतना मारा कि उसे अस्पताल मे भर्ती होना पडा़, और जब अस्पताल से ठीक होकर अपने घर गई तो भी उसे ताला लगा मिला इसका मतलब जिस घर को अब तक समझती थी वह तो बेगाना था मन्दिर मे महिलाओं के प्रवेश का विरोध करने वाली कनकलता की सास जैसी ही वह महिलाएं है जो पुरुष मानसिकता से ग्रसित है, वे दबी जुबान मे कहती है पाबंदी है तो वहां जाने की क्या जरुरत है। जाहिर है यहीं वे औरते है जो पुरुष को अपना मालिक समझती है और खुद को उनके चरणों की धूल। उन्हे अपने वजूद का कभी अहसास ही नही रहा, परिवार का वंश पुरुष के भरोसे चलता रहा। औरत को इस बात का कभी संज्ञान तक न हुआ कि पुरुष ने बड़ी चालाकी से स्त्री को संकुचित दायरे तक सीमित रखने के अनेक साधन अपनाये। आदर्श गृहणी के खाके मे फिट कर सामाजिक, पारिवारिक, दैहिक रुप से पिछड़ा बनाये रखने के तरह तरह से प्रयास किये। पुरुषवादी विभेद के प्रति अब तक स्त्री नतमस्तक है, वह सिर झुकाये सब कुछ बर्दाशत करती रही, वह षो-ुनवजयाण को अपना कर्तव्य समझती रही उसे कभी इस बात का संज्ञान ही नही हुआ कि औरतों के भी कुछ अधिकार होते है। औरतों के अधिकार को लेकर खौफनाक खामोशी छाई रही।

इनमे एक उस वर्ग जाति की महिलाएं है जिन्हें अपनी इस निर्भरता का संज्ञान हो गया और उस निर्भरता को तोड़ने के लिए एकजुट हो सड़को पर उतरी और 620 किलोमिटर की लंबी श्रंखला बनाकर कनकलता और बिन्दु का साथ दिया और यह बताया कि अब धर्म के ठेकेदारों की हमें आवश्यकता नही हम इतने सक्षम है कि बिना किसी पुरुष को साधन बनाकर अध्यात्म की प्रप्ति कर सकते है लेकिन एक वर्ग उन महिलाओं का भी है जो इसका विरोध कर रही थी जो यह मान रही थी कि हम अपवित्र और हीन है, हम हमारी हीनता स्वीकार करते हैं कनकलता की सास उन्ही महिलाओं का प्रतिनिधित्व कर रही थी।

यह उसी तरह का था जैसे कि दो परंपराओ का, दो मानसिकताओं का युद्ध चल रहा हो, एक मानसिकता वह है जो विज्ञान को नकार रु-सजय़यों मे जकडे़ रहना चाहती है। धर्म का सबंध इसी तरह का है, कोई धर्म नही चाहता कि महिला पुरुष के सामने खड़ी हो कर आत्मनिर्भर रहे, सभी धर्मो में महिलाओं को यह पाठ समझया जाता है कि वह पुरुषकी परछाई मात्र है और पुरुष के बिना वह अधूरी है जबकि वास्तविकता तो यह है कि स्त्री स्वं मे इतनी पूर्ण है कि बिना स्त्री के पुरुष जीवन ही संभव नही, प्रकृति महिलाओं को यह सृजन षक्ति देती है यह एक ऐसी जैविक शक्ति है जो पुरुषों के पास नही। पुरुष स्त्री की इस शक्ति से भयभीत है वह इसे रहस्मयी बनाकर स्त्री को अपने वश मे रखना चाहता है इसके लिए वह धर्म रुपी हथियार का इस्तेमाल बड़ी ही चतुराई से करता है।

यहुदी, इस्लाम हो या हिन्दु ,जैन व बौद्ध धर्म के पालनकर्ता सभी महिलाओं के मासिक धर्म होते ही तरह तरह के नियमकानून और धार्मिक मर्यादाओं व क्रियाकलापों में महिला को बांधने लगते है। सबरीमला मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश का मामला ऐसा ही है जहां माहवारी वाली उम्र की महिलाओं काप्रवेष वर्जित है। पुरुष मानसिकता ने बहुत ही चालाकी से महिलाओं के एक सृजन शक्ति के गुण को उनके लिए अभिशाप बना कर प्रस्तुत किया।

औरतें अपवित्र होती है, उनकी माहवारी का आना उनकी अशुद्धता का प्रमाण है ऐसी सोच रखने वाले उसी कोख से जन्म लेते है, तेरह साल की उम्र से पचास साल तक माहवारी के आने से ही यह पता चलता है कि औरतें प्राकृतिक रुप से प्रजनन शक्ति पा गई है वही प्रजनन शक्ति जिसके कारण दुनियां चलती है जिस रक्त का संचार उनकी देह मे हो रहा है वह स्त्री की कोख से उन तक पहुचा है स्त्री के उसी अशुद्ध मार्ग से निकलने के बाद उन्हे जीवन प्राप्त होता है, वही प्रजनन शक्ति जिसकी पूजा कामाख्या मन्दिर में की जाती है। कामाख्या मन्दिर भी केरल के सबरीमला की तरह उत्तर पूर्वी भारत का सबसे प्रसिद्ध मन्दिर है, इस मन्दिर की परंपरा है कि जब तक कामाख्या देवी का मासिक धर्म संपन्न होता है तब तक यहां भव्य मेला लगता है। इस मेले को देखने के लिए दुनिया भर से श्रद्धालु एकत्रित होते है और मेले के बाद जब मन्दिर का कपाट खुलता है तो प्रसाद के रुप मे लाल रंग का वस्त्र बांटा जाता है जिसे देवी की राजस्वला के दौरान धारण करती है। ऐसी मान्यता है कि जिसे उस वस्त्र का टुकड़ा मिलता है उसकी सारी समस्याएं दूर हो जाती है। यह भारतीय समाज का विरोधाभासी मानसिकता है कि अपने लाभ के लिए माहवारी की उम्र वाली स्त्रियों को मन्दिर मे प्रवेश से रोक लगा देता है, वहीं देवी कामाख्या का उसी रुप में वन्दना करता हैं।

फिर क्यों पचास व-ुनवजर्या के भीतर उम्र वाली इन औरतों के प्रवेश ने केरल मे भूचाल ला दिया वहां जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। देश के सबसे ज्यादा शिक्षितों वाले इस सुसभ्य प्रदेश में कटट्रपंथियों की माफिक जगह जगह टायर फूंके, तोडफोड़ की और देशी बमों से हमला भी किया। देश की सबसे बड़ी अदालत के आदेशों को ठेंगा दिखाते हुए सभी कानूनों को हाथ में लिया और सरकार इस सब में बराबर की भागीदार बनी रही। संसार का सर्जन करने वाले इस शारिरीक बदलाव का इतना गहरा महत्व है मेरे अनुसार इसका सम्मान होना चाहिए, उसकी उर्वरता का अपमान हो रहा है जबकि पुरुष को हमेशा सम्मान दिया जाता है उसे शक्ति व ताकत से जोड़ा जाता है।

स्त्री के देह, उसकी बनावट, कामुकता और प्राकृतिक जरुरतोंपर कभी चर्चा नही होती है स्त्री देह को शुचिता से बांधे रखने वाली मानसिकता से दुनिया का कोना कोई मुक्त नही है।दूसरी वह मानसिकता है जो परंपराओं को तोड़ जैविक वैज्ञानिक कारणों को आत्मसात कर रही है। युवतियों के बीच मासिक धर्म और नारी देह की संरचना को लेकर जो मिथक गड़े गए है उनका खंडन कर रही है। वह खुलकर माहवारी के दौरान होने वाली पीड़ा की बात करती है लेकिन यह संख्या बहुत कम है। यह वह स्त्री है जो समानता के लिए किसी धर्म का सहारा नही लेना चाहती, बात सिर्फ मन्दिर में प्रवेश कीनही आत्मसम्मान की है, सबरीमला मन्दिर मे प्रवेश अपने अधिकारों और स्वाभिमान को तवज्जों देने की मुहीम भर है। लेकिन यह समझना आवश्यक है कि धर्म, जो मानसिक गुलामी का एक रुप है उसकी शरण मे जाकर स्त्री कैसे समान हो सकती है? वह स्त्री समझती है कि मन्दिर में प्रवेश करने मात्र से स्त्री का कल्याण नही होगा। बराबरी आने के लिए स्त्री को सामाजिक, पारिवारिक, राजनैतिक और मानसिक तौर पर अभी भी बहुत सशक्त होने की जरुरत है।

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