अभी कुछ दिन पहले मैं खाना खाते हुए टीवी देख रही थी. टीवी पर समाचार के बाद अंतराल के दौरान एक विज्ञापन दिखाया गया जिसमें अभिनेता अक्षय कुमार की एक महिला सुरक्षा गार्ड के द्वारा तलाशी ली जा रही थी. वह महिला सुरक्षा गार्ड बार-बार यह पूछ रही थी कि “कहां है डॉलर? डॉलर कहां है ?” इस सवाल के तत्काल बाद अक्षय कुमार अपने जांघिये के पट्टी की ओर इंगित करते हुए उस महिला सुरक्षा गार्ड से कहते हैं, “यहां है डॉलर.” फिर सुरक्षा के लिए तैनात वह महिला डॉलर ब्रांड को देखकर अक्षय कुमार के आगे खुद को समर्पित करती हुई दिखायी जाती है. इस विज्ञापन में जिस तरह से एक महिला की छवि धूमिल की गयी है और कर्तव्यों के प्रति गैर - जिम्मेदारी दिखायी गयी है, वह न केवल पूरे महिला समुदाय के लिए शर्मनाक है बल्कि महिला के रूप में तैनात सुरक्षा कर्मचारियों की कर्तव्यनिष्ठा पर भी सवाल उठाया गया है.
एक महिला अपने कर्तव्यों के प्रति जितनी जिम्मेदारी होती है और कर्तव्यनिष्ठा के लिए उनके अंदर जो समर्पण होता है, वह शायद ही किसी और के अंदर हो सकता है. यही कारण है कि आज महिलायें घर और बाहर दोनों ही जिम्मेदारियों को बखूबी निभा रही हैं. एक महिला, खासतौर पर भारतीय महिला, की छवि त्याग, निष्ठा और समर्पण के लिए प्रसिद्ध रही है. फिर भी, इस पितृसत्तात्मक समाज में उसकी छवि को धराशायी करने का प्रयास निरंतर जारी है.
यह कोई पहला विज्ञापन नहीं है जिसमें महिलाओं को इस प्रकार से चित्रित किया गया है. ऐसे अनगिनत विज्ञापन हैं. महिलाओं को परफ्यूम और अंतःवस्त्रों के विज्ञापन में खूशबू और ब्रांड के आगे खुद को पुरूषों के सामने समर्पित करते हुए दिखाया जाता है. उनका गलत तरीके से प्रदर्शन किया जाता है. इस किस्म के विज्ञापन सिर्फ महिलाओं की ही छवि को धूमिल नहीं करते बल्कि उस सभ्यता, संस्कृति को भी धूमिल करते हैं जिसमें धन-समृद्धि, विद्या, शक्ति आदि के लिए महिलाओं की पूजा की जाती है. हमारी जननी भी महिला है और जिस धरती पर हम पैदा हुए हैं, वह धरती भी महिला का ही रूप है. महिलाओं के इतने समृद्ध, दृढ़ और शक्तिशाली रूप के बावजूद कोई उन्हें परफ्यूम और अंतःवस्त्रों से प्रभावित होकर स्वयं को पुरुषों को समर्पित करते हुए कैसे दिखा सकता है? अगर इस रूप में महिलाओं का प्रस्तुतीकरण किया जा रहा है, तो इसे पितृसत्तात्मक समाज की साजिश कहना कतई अतिश्योक्ति नहीं होगी.
हमारे देश में 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है. इसकी शुरूआत के पीछे मुख्य कारण रहा है - समाज में व्याप्त महिलाओं के प्रति असमानता को मिटाना और महिला-पुरूष को समान दर्जा देना. लेकिन एक महिला, खासतौर पर एक कामकाजी महिला होने के नाते अक्सर मैं यह महसूस करती हूं कि हमारा पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं की हर क्षेत्र में मौजूदगी को बर्दाश्त करने में आज भी असहज प्रतीत हो रहा है. महिला बॉस को बर्दाश्त करना और उनकी आज्ञा मानना पुरूषों के जीवन में खलल पैदा करने जैसा है. साथ ही, यह उनके आत्मसम्मान को भी ठेस पहुंचने जैसा भी है. इसका बदला लेने के लिए पुरूषों को अक्सर महिलाओं अथवा महिला बॉस के प्रति अश्लील बातें करते हुए सुना जा सकता है. उनके चरित्र पर उंगली उठायी जाती है और उनका चरित्र - हनन करने की कोशिश की जाती है. और अंततः उन्हें वेश्या, कुल्टा आदि का दर्जा दे दिया जाता है. लेकिन जिनके कारण महिलाएं वेश्या और कुल्टा बनती हैं, वे पाक – साफ़ करार दिये जाते हैं. यही वजह है कि पुरूषों के चरित्र - हनन के लिए इस पुरूषवादी समाज में कोई शब्द भी नहीं मौजूद है.
वर्तमान परिदृश्य पर हम नजर दौड़ायें, तो हम देखते हैं कि आज की महिलायें प्रायः सभी क्षेत्रों में अपनी मौजूदगी दर्ज कर चुकी हैं. कुछ दशक पहले शायद इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. महिलाओं की यह मौजूदगी उनके जुनून, जज़्बे और जोश का परिणाम है. इस जुनून ने उन्हें शून्य से चरम तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है. महिलाओं के लिए घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर पुरूषों के कंधे से कंधा मिलाकर चलना आज भी उतना सहज नहीं है, जितना कि ऊपर से प्रतीत होता है. महिला होने का संघर्ष हमें हर मुकाम पर करना पड़ता है. पितृसत्तात्मक सोच, नजरिया और मानसिकता लगातार महिलाओं को भेदती हुई गुजरती है, पर उन्हें (महिलाओं को) अपनी तटस्थता का निरंतर परिचय देना होता है. इसी सोच का नतीजा है कि आज भी महिलाओं को अधिकांशतः भोग-विलास की ही वस्तु समझा जाता है. कभी उन्हें आयटम बना दिया जाता है, तो कभी माल कहकर संबोधित किया जाता है या फिर उन्हें देवी बना दिया जाता है. किंतु आम इंसान की जिंदगी आज भी बहुत कम महिलाओं को नसीब होती है. इस बात को हम ’मी टू’ मुहिम, ’मेरी रातें, मेरी सड़कें’ मुहिम आदि से भली- भांति समझ सकते हैं. या फिर निरंतर बलात्कार की शिकार हो रही महिलाओं को देख सकते हैं, जिसके आंकड़े में कमी आने के बजाय निरंतर उछाल ही आता जा रहा है. ऐसी मुहिम और घटनाओं के माध्यम से महिलायें पितृसत्तात्मक समाज में लगातार अपनी बराबरी के लिए ही संघर्षरत हैं. आजादी के सात दशक बाद भी महिलाओं की स्थिति में बहुत सुधार नहीं देखा जा रहा है. उनकी स्थितियां बदली तो है, लेकिन उनका शोषण खत्म नहीं हुआ है. बस, शोषण के स्वरूप में परिवर्तन हुआ है.
इस पुरूषवादी समाज में अधिकांश गालियां भी महिलाओं को केंद्र में रखकर ही बनायी गयी हैं. पुरूषों द्वारा जिस किस्म की अभद्र महिला सूचक गालियों का प्रयोग किया जाता है, उससे भी उनके मन में बैठे महिलाओं के प्रति नजरिया और इज्जत का स्पष्ट तौर पर पता चल जाता है.
एक महिला के तौर पर पैदा होने के साथ ही हम कई बंदिशें भी अपनी जिंदगी में लेकर आती हैं, जिससे उबर पाना काफी मुश्किल होता है. इन बंदिशों के साथ-साथ हम महिलाएं सामाजिक भेदभाव भी लेकर इस धरती पर आती हैं, जो हमें अक्सर कुंठा और मानसिक प्रताड़ना के शिकार बना देता है.
हमारे देश में महिलाओं के नाम पर लगातार विमर्श हो रहे हैं. उनके उत्थान हेतु महिला दिवस मनाकर गैर- बराबरी मिटाने की पुरजोर वकालत की जा रही है. उनकी उपलब्धियों को लगातार विश्व फलक पर उजागर किया जा रहा है. उन्हें आरक्षण दिया जा रहा है. लेकिन अधिकांश सरकारी घोषणायें और योजनायें कागजों तक ही सिमट कर रह जाती हैं. महिलाओं को उनका उचित लाभ और अधिकार मिलना असंभव सा प्रतीत होता है, जिसकी वे हकदार होती हैं.
अंत में, हम यह कह सकते हैं कि स्त्री अथवा महिला विमर्श और महिला दिवस का औचित्य तभी सार्थक होगा, जब सामाजिक सोच में परिवर्तन होगा और महिलाओं को भोग - विलास की वस्तु न समझकर उन्हें देवी के बजाय एक आम इंसान का दर्जा दिया जायेगा. साथ ही, महिला दिवस पर खर्च किये जाने वाले सरकारी खजानों का प्रयोग उनके उत्थान में किया जायेगा.